इश्क़ की रेत

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sweta gupta

28 Jul 20241 min read

Published in poetry

इश्क़ की रेत

इश्क़ की रेत फिसलती चली जा रही है,
चुनौतियों की तपिश ने फिसलन बढ़ा दी है।

कैसे रोकूं मैं तुझे, तू क्यों इतरा रही है,
मुझे देख, तू क्यों इतना मुस्कुरा रही है।

तभी अंदर से आवाज़ आई…

जो तेरा है, वह तेरा होकर ही रहेगा,
चुनौतियों की तपिश पर डांटा रहेगा।

फिसलने दो उस रेत को और देख उनकी रज़ा,
तू नादान ना समझें बस देख, लें मज़ा।

यदि रब की मर्ज़ी हुई, तो ओस की मोती रोक लेंगी उस रेत को,
यदि रब की मर्ज़ी ना हुई, तो बारिश बन कोई रोक ना सकेगा उसको।

इश्क़ की रेत फिसलती चली जा रही है,
तू नादान ना समझें बस देख उनकी क्या है रज़ा।

 

रचयिता स्वेता गुप्ता

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इश्क़ की रेत

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28 Jul 20241 min read

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इश्क़ की रेत

इश्क़ की रेत फिसलती चली जा रही है,
चुनौतियों की तपिश ने फिसलन बढ़ा दी है।

कैसे रोकूं मैं तुझे, तू क्यों इतरा रही है,
मुझे देख, तू क्यों इतना मुस्कुरा रही है।

तभी अंदर से आवाज़ आई…

जो तेरा है, वह तेरा होकर ही रहेगा,
चुनौतियों की तपिश पर डांटा रहेगा।

फिसलने दो उस रेत को और देख उनकी रज़ा,
तू नादान ना समझें बस देख, लें मज़ा।

यदि रब की मर्ज़ी हुई, तो ओस की मोती रोक लेंगी उस रेत को,
यदि रब की मर्ज़ी ना हुई, तो बारिश बन कोई रोक ना सकेगा उसको।

इश्क़ की रेत फिसलती चली जा रही है,
तू नादान ना समझें बस देख उनकी क्या है रज़ा।

 

रचयिता स्वेता गुप्ता

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