
एक दौर मुहब्बत का

एक दौर मुहब्बत का.
बदलते दौर में
मुहब्बत को क्या कहूँ
वो और दौर था
जब मुहब्बत,
मुहब्बत होती थी।
लहजे में होती थी नरमी
और दिलों में
मासूमियत होती थी।
आँखो पे गिरे रहते थे
हया के परदे
सरगोशी दिलों में,
बातों में थोड़ी
तकल्लुफ़ होती थी ।
वफा हो के बेवफाई
बदजबानी,बदसलूकी
की दिल को न
इजाजत होती थी।
एक नाम में या
कि एक याद में
बस रह जाती थी,
जिंदगी ,किसी और के साथ
कहाँ बसर होती थी।
दोस्त हो, के मोहब्बत,
थे ताउम्र के लिए
दिल को हर रोज नये
साथ की कहाँ
जरूरत होती थी ।
मीनू यतिन
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