रफ़्तार पकड़ती जिंदगी

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dineshkumar singh

30 Jul 20241 min read

Published in poetry

रफ़्तार पकड़ती जिंदगी

रफ़्तार पकड़ती जिंदगी

दो पहिये पर दौड़ती

दो लोगों की जिंदगी।

 

रफ़्तार पकड़ती जिंदगी।।

 

सुबह की भीड़ में,

किसी को, स्कूल, तो

किसी को दफ्तर

जाने की तैयारी।

 

एक वाहन पर, दो सवारी।

एक चालक,

एक आसन पर भारी।

 

एक हाथ से, वह

गाड़ी चलाता।

दूसरा, सर्दी से

या फिर डर के कारण

थर थर कंप कपाता।

 

वह सर्राटे से दुपहिया

भागनेवाला, शायद

आज का विद्यार्थी है।

समय का अभाव हो,

इसलिए जल्दी है?

 

गाडियों का काफिला

बढ़ता जाता है,

यहां वहां मोड़ता दौड़ता,

आखिर वह ब्रेक लगाता है।

पीछे की सीटवाला,

संभलते संभालते,

गिर जाता है।

 

विकल दोनों, बौखलाए,

गाड़ी संभाले की

खुद संभल जाए?

इतने में और लोग भी

दौड़े आए,

कुछ ने हाथ बढ़ाया,

गिरे हुए को उठाया,

कुछ ने ज्ञान दिया,

कुछ लापरवाही पर

चिल्लाये।

 

दोंनो फिर तैयार हुए,

छटने लगी भीड़

दुपहिये पर दोनों

फिर सवार हुए।

 

अब तेज़ नही, धीमी

रफ़्तार लेती जिंदगी,

शायद गिरकर ही, खुद से

कुछ सीखती, और फिर

संभलती जिंदगी।

 

तब तक, धीरे चलो,

जल्दी निकलो, समय पर पहुंचो,

यह सब उपदेश लगता है,

मन, “मुझको सब मालूम है”,

ऐसा समझता है।

 

पर हर बार गिरकर उठना

सफल नही,

यह प्रयास होता है विफल कभी।

तो काल की चाल पहचानो,

उपदेश नही,

वह प्यार तुम्हारे अपनों का,

उसकी कीमत जानों।

 

उसकी कीमत जानों।

 

 

रचयिता

दिनेश कुमार सिंह

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रफ़्तार पकड़ती जिंदगी

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dineshkumar singh

30 Jul 20241 min read

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रफ़्तार पकड़ती जिंदगी

रफ़्तार पकड़ती जिंदगी

दो पहिये पर दौड़ती

दो लोगों की जिंदगी।

 

रफ़्तार पकड़ती जिंदगी।।

 

सुबह की भीड़ में,

किसी को, स्कूल, तो

किसी को दफ्तर

जाने की तैयारी।

 

एक वाहन पर, दो सवारी।

एक चालक,

एक आसन पर भारी।

 

एक हाथ से, वह

गाड़ी चलाता।

दूसरा, सर्दी से

या फिर डर के कारण

थर थर कंप कपाता।

 

वह सर्राटे से दुपहिया

भागनेवाला, शायद

आज का विद्यार्थी है।

समय का अभाव हो,

इसलिए जल्दी है?

 

गाडियों का काफिला

बढ़ता जाता है,

यहां वहां मोड़ता दौड़ता,

आखिर वह ब्रेक लगाता है।

पीछे की सीटवाला,

संभलते संभालते,

गिर जाता है।

 

विकल दोनों, बौखलाए,

गाड़ी संभाले की

खुद संभल जाए?

इतने में और लोग भी

दौड़े आए,

कुछ ने हाथ बढ़ाया,

गिरे हुए को उठाया,

कुछ ने ज्ञान दिया,

कुछ लापरवाही पर

चिल्लाये।

 

दोंनो फिर तैयार हुए,

छटने लगी भीड़

दुपहिये पर दोनों

फिर सवार हुए।

 

अब तेज़ नही, धीमी

रफ़्तार लेती जिंदगी,

शायद गिरकर ही, खुद से

कुछ सीखती, और फिर

संभलती जिंदगी।

 

तब तक, धीरे चलो,

जल्दी निकलो, समय पर पहुंचो,

यह सब उपदेश लगता है,

मन, “मुझको सब मालूम है”,

ऐसा समझता है।

 

पर हर बार गिरकर उठना

सफल नही,

यह प्रयास होता है विफल कभी।

तो काल की चाल पहचानो,

उपदेश नही,

वह प्यार तुम्हारे अपनों का,

उसकी कीमत जानों।

 

उसकी कीमत जानों।

 

 

रचयिता

दिनेश कुमार सिंह

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