
मर्कट मन
मर्कट मन
मर्कट मन है मेरा,
कोई इसको बांध ले आओ रे,
कभी हंसाता, कभी रुलाता,
कोई इसको समझाओ रे।
क्यों बिगड़ता, क्यों बिलखता,
क्यों बेचैन रहता रे?
रिश्तो की तृष्णा के पीछे,
क्यों करतब दिखाता रे?
आंख मुंदे, यादों को संजोते,
तू कैसे हाथ निकालेगा?
कर विदा तू, वक्त से पहले,
वरना मदारी ले जाएगा।
क्यों रुलाता, क्यों लुभाता,
ये कैसा खेल दिखाता रे?
रिश्तो की अभाव में,
कोई नहीं है तुझे समझता,
फिर तू खुदको क्यों लुटाता रे?
रिश्तो की चाहत में तू क्यों,
खुद की डोर दे आता रे?
देख, तुझे मर्कट समझ वो,
कैसा नाच नचाता रे।
वक्त का पहिया चलता जाता,
हर कोई मर्कट एक दिन है बनता,
रिश्तो की इस झोलझाल में,
एक मर्कट, दूसरे मर्कट को सलाह दे आता रे।
पहले भी मर्कट थे,
अब भी मर्कट है,
दुनिया में बस मर्कट ही रह जाएंगे,
फिर इंसान कहां पायेंगे?
मर्कट मन है मेरा, कोई इसको बांध ले आओ रे,
कभी हंसाता, कभी रुलाता,
कोई इसको समझाओ रे,
कोई इसको समझाओ रे।।
रचयिता, स्वेता गुप्ता
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