
मेरी मुझसे मुलाक़ात
मेरी मुझसे मुलाक़ात
बैठी थी अकेले,
और हुई मुझसे मेरी मुलाक़ात
अवाक हो देखती रही,
क्या करूं इस अज्ञात से बात,
अच्छाई,मधुरता के परतों के नीचे,
असली मैं कहीं खो गई थी,
सबकी फरमाइशें पूरी करते करते,
हां कहने की आदत जो हो गई थी,
नीति,नियम,परंपराओं की बेड़ियां
आत्मा को मेरी कचोट रही थी,
बाह्य आडंबर के मेलों में,
मेरी सच्चाई लूट खसोट रही थी,
समय लेकर बड़े जतन से,
मैने मेरा यूं दीदार किया,
अच्छा मेरा,बुरा भी अपना,
खुद का साक्षात्कार किया,
देखा जितनी भली,उतनी बुरी मैं,
दोष गुण की एक अनूठी खान हूं,
नहीं अतिमानव बन सकी कभी,
हाड़ मांस की साधारण इंसान हूं ।।
स्वरचित एवं मौलिक
© अपर्णा
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