पल इतंजार का

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meenu yatin

18 Aug 20241 min read

Published in poetry

पल इतंजार का

गुम है कहीं, गुमशुदा सा है
हँसने हंसाने से डरा सा है
मिला तो रोज ही की तरहा
लम्हा फिर भी
रोज से जुदा सा है ।

बीतता नहीं क्यों
वक्त इतंजार का
जाने किस पहर से
ये पहर,यहीं रुका सा है।

वक्त के साथ चलना
इसे आया नहीं
किस उम्मीद पे अब भी
कमबख़्त दिल ठहरा है ।

आँखो की आदत भी
अजीब है न!
नम हों तो दरिया है
सूख जाये तो सहरा है।

 

मीनू यतिन

 

Photo by Juan Pablo Serrano Arenas: https://www.pexels.com/photo/woman-leaning-on-glass-window-1101726/

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meenu yatin

18 Aug 20241 min read

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पल इतंजार का

गुम है कहीं, गुमशुदा सा है
हँसने हंसाने से डरा सा है
मिला तो रोज ही की तरहा
लम्हा फिर भी
रोज से जुदा सा है ।

बीतता नहीं क्यों
वक्त इतंजार का
जाने किस पहर से
ये पहर,यहीं रुका सा है।

वक्त के साथ चलना
इसे आया नहीं
किस उम्मीद पे अब भी
कमबख़्त दिल ठहरा है ।

आँखो की आदत भी
अजीब है न!
नम हों तो दरिया है
सूख जाये तो सहरा है।

 

मीनू यतिन

 

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