
‘मैं’
‘मैं’
आजकल जहां देखो वहां ‘मैं’ ।
किसी से भी बात करो वहाँ ‘मैं’ ।
मैंने ऐसा किया, मैंने वैसा किया,
संघर्षो में ‘मैं’ ।
कमियाबी में ‘मैं’ ।
परिवार में ‘मैं’ ।
तो रिश्ते में भी ‘मैं’ ।
अंतिम सांस तक मैं ।
हर जहाँ बकरी की तरह ‘मैं’ – ‘मैं’ ।
इस ‘मैं’ में इतनी है ताकत,
की वो परिवार, रिश्ते, कमियाबी,
सभी को ख़तम कर सकती है ।
मैं भी इस ‘मैं’ को देख, ये सोचने लगी,
आख़िर कब तक इस ‘मैं’ में, मैं भी अटकी रहूंगी,
कब तक अहम् की अग्नि में घी डालती रहेगी !
अंत में ‘मैं’, यहीं रह जाएगा और हमें जहां जाना है, वहीं चले जाएंगे ।
आख़िर कब तक हम ‘मैं’ – ‘मैं’ करते रहेंगे ?
क्या यहीं करने आये हैं हम सब ?
स्वेता गुप्ता
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