‘मैं’

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sweta gupta

16 Aug 20241 min read

Published in poetry

‘मैं’

 

आजकल जहां देखो वहां ‘मैं’ । 

किसी से भी बात करो वहाँ ‘मैं’ । 

 

मैंने ऐसा किया, मैंने वैसा किया,

संघर्षो में ‘मैं’ । 

कमियाबी में ‘मैं’ । 

परिवार में ‘मैं’ । 

तो रिश्ते में भी ‘मैं’ । 

अंतिम सांस तक मैं । 

हर जहाँ बकरी की तरह ‘मैं’ – ‘मैं’ । 

 

इस ‘मैं’ में इतनी है ताकत,

की वो परिवार, रिश्ते, कमियाबी, 

सभी को ख़तम कर सकती है । 

मैं भी इस ‘मैं’ को देख, ये सोचने लगी,

आख़िर कब तक इस ‘मैं’ में, मैं भी अटकी रहूंगी, 

कब तक अहम् की अग्नि में घी डालती रहेगी !

 

अंत में ‘मैं’, यहीं रह जाएगा और हमें जहां जाना है, वहीं चले जाएंगे । 

आख़िर कब तक हम  ‘मैं’ – ‘मैं’ करते रहेंगे ?

क्या यहीं करने आये हैं हम सब ?

 

 

स्वेता गुप्ता


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‘मैं’

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sweta gupta

16 Aug 20241 min read

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‘मैं’

 

आजकल जहां देखो वहां ‘मैं’ । 

किसी से भी बात करो वहाँ ‘मैं’ । 

 

मैंने ऐसा किया, मैंने वैसा किया,

संघर्षो में ‘मैं’ । 

कमियाबी में ‘मैं’ । 

परिवार में ‘मैं’ । 

तो रिश्ते में भी ‘मैं’ । 

अंतिम सांस तक मैं । 

हर जहाँ बकरी की तरह ‘मैं’ – ‘मैं’ । 

 

इस ‘मैं’ में इतनी है ताकत,

की वो परिवार, रिश्ते, कमियाबी, 

सभी को ख़तम कर सकती है । 

मैं भी इस ‘मैं’ को देख, ये सोचने लगी,

आख़िर कब तक इस ‘मैं’ में, मैं भी अटकी रहूंगी, 

कब तक अहम् की अग्नि में घी डालती रहेगी !

 

अंत में ‘मैं’, यहीं रह जाएगा और हमें जहां जाना है, वहीं चले जाएंगे । 

आख़िर कब तक हम  ‘मैं’ – ‘मैं’ करते रहेंगे ?

क्या यहीं करने आये हैं हम सब ?

 

 

स्वेता गुप्ता


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