
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
जो है वह लिखता हूँ,
जो पास नही,
जो पाया दूसरों से,
वह सीखता हूँ।
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
कितनी कितनी इच्छाओ के
बादल आते हैं।
मन के खाली आकाश को
भर वो जाते हैं।
अपने में वो फिर टकराते है।
कुछ बिजली का ख़ौफ़ दिखाते
कुछ गरज़ गरज़ कर बरस जाते हैं।
उनके जाने के बाद
थका थका सा दिखता हूँ।
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
मेरे हर सांसो में बसी
असीम कहानी है।
लिखने की आदत भी बहुत पुरानी है।
पन्नो पर काफी कम है
ज्यादातर वह मुहजुबानी है।
कहना है, पर चुप रहना है
यह भी परेशानी है।
इस दुविधा में रहता हूँ।
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
क्यूँ किसी से कोई
तुलना हो।
क्यों कोई स्पर्धा या
बस किसी एक को
चुनना हो।
क्यूँ ना हम मिल बाटे
उनके अच्छे गुण को
अपने
अच्छे गुण से बुनना हो।
ऐसे संगम में मिलकर,
अपनी ही धारा में बहता हूँ।
जो अपनी शैली है,
जो अपना भाव है,
वह लिखता हूँ,
बाकी नित नया
सीखता हूँ।
लिखता हूँ, सीखता हूँ।
रचयिता- दिनेश कुमार सिंह
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