चिड़िया

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dineshkumar singh

29 Jul 20241 min read

Published in poetry

चिड़िया

चिड़िया परेशान थी,

उसका घोसला

जो उजड़ गया था,

 

बरसात में भीगे अपने

शरीर को उसने

झटकारा,

जहाँ कुछ पल पहले

घोसला था,

उस जगह को

फिर निहारा,

 

मुझे लगा, शायद वह

चिल्लाएगी,

कुछ शोर मचाएगी,

ऐसे मौसम में घर

खोया था,

कुछ तो शोक

मनाएगी।

 

 

पर वह चिड़िया थी,

इंसान नही,

उसने अपने पंख पसारे,

और उड़ गई।

 

सच है, जो अपने

पंखों पर रहते हैं,

कहाँ वो, कुछ

खोने पर आहें भरते हैं।

ढूंढ लेते हैं, रस्ता नया कोई,

फिर नई उड़ान भरते हैं।

 

 

 

रचयिता- दिनेश कुमार सिंह

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चिड़िया

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dineshkumar singh

29 Jul 20241 min read

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चिड़िया

चिड़िया परेशान थी,

उसका घोसला

जो उजड़ गया था,

 

बरसात में भीगे अपने

शरीर को उसने

झटकारा,

जहाँ कुछ पल पहले

घोसला था,

उस जगह को

फिर निहारा,

 

मुझे लगा, शायद वह

चिल्लाएगी,

कुछ शोर मचाएगी,

ऐसे मौसम में घर

खोया था,

कुछ तो शोक

मनाएगी।

 

 

पर वह चिड़िया थी,

इंसान नही,

उसने अपने पंख पसारे,

और उड़ गई।

 

सच है, जो अपने

पंखों पर रहते हैं,

कहाँ वो, कुछ

खोने पर आहें भरते हैं।

ढूंढ लेते हैं, रस्ता नया कोई,

फिर नई उड़ान भरते हैं।

 

 

 

रचयिता- दिनेश कुमार सिंह

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