
जीना सीखा गया ..यह साल !

जीना सीखा गया ..यह साल !
फंसा था एक परिंदा,
माया के चक्रव्यूह जाल में,
वही डाल, वही पात,
काट रहा था चक्कर,
समझ रहा उसको ही अपना जीवन।
अचानक लगा झटका,
एक बाज ने दिया झपट्टा,
टूट गया घरौंदा, टूट गयीं टहनी,
छिन-भिन्न हो गए पंख,
उड़ गए कुछ साथी,
बस रह गयीं कुछ उखड़ी साँसे।
वह कुछ सहम सा गया,
कुछ डर सा गया,
जा छुप गया, एक कोने में
बाज़ के जाने के इंतज़ार में।
दिन बीतें,
मौसम बदला, पर ना बदला समय,
थम गयीं ज़िन्दगी उसकी,
बाज़ ने बना लिया डेरा, था आंतक उसका ।
छुपकर रहना हो गया था परिंदे की नियति,
हर पल सोचता,
जीवन तो बीता, पर जीया नहीं एक पल,
सपन पुराने बक्से में ही भस्म हो गए ।
एहसास हुआ,
जीवन हैं इस पल में,
ना भूत में, ना भविष्य में,
मौत से क्यों भयभीत,
पंख मिले हैं,
उड़ान असीमित क्षितिज के पार जाने के लिए !
अडिग मन कर निकला बाहर,
अटल, सजग, और जीवित,
जीना सीखा गया, वोह बाज़ !
रचयिता – राखी सुनील कुमार

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