
अकेलापन
अकेलापन
शहरों, नगरों, गलियों में है अकेलापन का डंका,
सबने अकेलेपन को खूब अपनाया,
अब अकेलापन भी अकेला कहां रहा,
घरों में, कमरों में, दिलों में अकेलेपन की आई ऐसी छाया,
मैंने सोचा, वाह ! गजब है तेरी माया।
मुझे भी मिलना है उस अकेलेपन से,
यही सोच किया आमंत्रण मैंने उसे दिल से,
राह ताके, कल शाम में बैठी थी अपने कमरे में ,
दस्तक सुन मैं दौड़ गई उससे मिलने।
मगर ये क्या, दरवाजे पर तो कोई नहीं था,
मेरी नज़र फिर उस दावत पर आई, जिसे मैंने उसके लिए थी बनाई,
फिर बहुत देर तक मैं उसकी राह देखने लगी,
दोबारा दस्तक सुनने पर मैं फिर दरवाजे पर आ खड़ी हुई।
ये देख इस बार मैंने आवाज लगाई ,
फिर बहुत देर बाद मुझे ये समझ आई।
अकेलापन सिर्फ एक सोच है,
उसमें एक अजीब सा नशा है,
तुम यदि सोचो तो सबके साथ भी अकेले हो,
तुम यदि चाहो तो उसमें डूब भी सकते हो,
यदि चाहो तो उसमें तैरकर खुद को तलाश सकते हो,
अब यह तुम्हें तय करना है कि तुम्हें क्या चाहिए।
रचयिता – स्वेता गुप्ता
Photo by Luis Fernandes: https://www.pexels.com/photo/side-view-photo-of-woman-sitting-on-ground-overlooking-a-hill-2422854/
Comments (0)
Please login to share your comments.