पुष्पांजलि

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ashish kumar tripathi

23 Jul 20241 min read

Published in poetry

पुष्पांजलि

पुष्प को पुष्प की पुष्पांजलि कैसे दूँ,
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।
तेरी ममता के आकर्षण में, माँ के स्पर्श की अनुभूति है
फिर माँ के खोने पर भी तेरे मातृत्व की अस्वीकृति कैसे दूँ।
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

कंटक भरे जीवन में, पुष्प की कोमलता
तुम्हारे आभास के आभास से, जीवन की सार्थकता
यत्र तत्र सर्वत्र, फिर भी गहन सारगर्भिता।
कहो, इस कृपा व्याप्त जीवन को फिर कैसे श्रद्धांजलि दूँ?
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

मन में कटाक्ष हो फिर भी, सब विष से व्याप्त हों फिर भी
समभाव, सहज सी होकर,
माँ के सजल नेत्र सी – ऊर्जा का स्रोत बनकर,
समदृष्टि से सबपर जीवामृत बरसाती तुम।
कहो, फिर तुम्हारे इस अटूट आशीष को श्रद्धांजलि कैसे दूँ?
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

वृक्षों की लताओं से, फैली वृद्ध जटाओं से
नवचेतना का संचार करती, प्राणवायु भर जाती तुम।
जन जन के जीवन में फिर से नव स्फूर्ति भर जाती तुम।
कहो, फिर इस अचेतन की, चेतना को पुष्पांजलि कैसे दूँ।
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

 

रचयिता,
आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”

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पुष्पांजलि

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ashish kumar tripathi

23 Jul 20241 min read

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पुष्पांजलि

पुष्प को पुष्प की पुष्पांजलि कैसे दूँ,
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।
तेरी ममता के आकर्षण में, माँ के स्पर्श की अनुभूति है
फिर माँ के खोने पर भी तेरे मातृत्व की अस्वीकृति कैसे दूँ।
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

कंटक भरे जीवन में, पुष्प की कोमलता
तुम्हारे आभास के आभास से, जीवन की सार्थकता
यत्र तत्र सर्वत्र, फिर भी गहन सारगर्भिता।
कहो, इस कृपा व्याप्त जीवन को फिर कैसे श्रद्धांजलि दूँ?
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

मन में कटाक्ष हो फिर भी, सब विष से व्याप्त हों फिर भी
समभाव, सहज सी होकर,
माँ के सजल नेत्र सी – ऊर्जा का स्रोत बनकर,
समदृष्टि से सबपर जीवामृत बरसाती तुम।
कहो, फिर तुम्हारे इस अटूट आशीष को श्रद्धांजलि कैसे दूँ?
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

वृक्षों की लताओं से, फैली वृद्ध जटाओं से
नवचेतना का संचार करती, प्राणवायु भर जाती तुम।
जन जन के जीवन में फिर से नव स्फूर्ति भर जाती तुम।
कहो, फिर इस अचेतन की, चेतना को पुष्पांजलि कैसे दूँ।
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।
हे ब्रह्म रचित प्रकृति तुझे तिलांजलि कैसे दूँ।

 

रचयिता,
आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”

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