
चला-चल ओ राही
चला-चल ओ राही
चला-चल, ओ राही, चला-चल,
डर मत, मुड़ मत, आगे बढ़, तू चला-कर।
देख, तूं कितना चलते आ चुका है,
अपने जीवन को संवारते जा चुका है।
लोग आएंगे, प्यार जताएंगे,
खुदको ना आधारित किया कर,
तूं उन छलियों के मंडली से बचाकर।
तेरा खुदका था ही क्या,
जिसे खोकर, तूं भयभीत होता है,
तूं सिर्फ खुदका है, बस यही बात समझा कर।
अपनी अपेक्षाओं से बाहर निकला कर,
बाहर कि कहानियों में ना उलझा कर।
ना ढूंढ प्रेम उन छलियों में,
तूं प्रेम का सागर खुद बनाकर।
ना कोई कमी तुझमें, यही अब देखा कर।
खुद की गलतियों से सीखा कर,
औरों के लिए ना खुदको बदला कर,
चला-चल, ओ राही, चला-चल।
आगे हर मोड़ के लिए खुदको तैयार कर लिया कर,
औरों के प्रेम में सम्मोहित ना हुआ कर।
समझदारों के इस दुनिया में,
तूं बच्चा बन बस जिया कर।
साहसी होते हैं वें,जो हर बार नादानी कर जाते हैं,
यही सोच खुदको मस्ती में उतारा कर।
जिया-कर,ओ राही, जिया-कर,
रोकर, फिर हंस लिया कर।
यही पहचान है तेरी,
अपनी हस्ती को हर पल बनाया कर,
डर मत, मुड़ मत, आगे बढ़,
बस चला-चल, ओ राही, चला- चल।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
Comments (0)
Please login to share your comments.