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राम नाम सत्य है
काफ़ी भीड़ लगी हुई थी। कुछ लोग रो-बिलख रहे थे। कुछ बस शांत खड़े थे। मैं भी उनके समीप जाकर खड़ा हो गया, ताकि पता चले कि माजरा आखिर है क्या।
किसी ने कहा कि “बॉडी” अब किसी भी समय घर पहुँच जाएगी। कोई कह रहा था कि वे अच्छे नेक आदमी थे।
गुमसुम माहौल बना हुआ था। पेड़ के सूखे पत्ते भी पेड़ से बिछड़कर हवा के झोंकों के साथ उमड़-घुमड़ कर नीचे गिर रहे थे, मानो पेड़ भी अपने सूखे पत्तों से अपनी संवेदना प्रकट कर रहा हो।
एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ पहले मंद थी, फिर धीरे-धीरे तीव्र होती चली गई, जैसे वह किसी अनकहे डर को अपने साथ लिए चली आ रही हो।
सायरन की आवाज़ के तीव्र होते ही मुझे आस-पास के लोगों के हृदय-स्पंदन की तीव्रता भी साफ़-साफ़ सुनाई देने लगी।
उस घर के पड़ोस वाले घर के किसी सज्जन ने कहा कि लगता है कि लाश आ गई है।
मुझे यह बात बुरी लगी कि जिसका बचपन में नामकरण कर दिया गया और पूरे जीवनकाल में उसी नाम से पुकारा गया, अब उसे “लाश” की संज्ञा दी जा रही थी, मानो उसका नाम कुछ था ही नहीं। फिर इस बात को लेकर मैंने ख़ुद से वाद-विवाद करना शुरू किया कि जब हमें पता है कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं, और आत्मा अमर है, तो शरीर को लाश कहने से क्या फ़र्क़ पड़ता है? इस पर मेरा दूसरा हिस्सा तर्क देता है कि माना कि हम आत्मा हैं, लेकिन नामकरण आत्मा का नहीं, बल्कि उस शरीर का किया गया था। तो आत्मा के उस शरीर को छोड़ देने से वह शरीर लाश थोड़े ही हो गया। उस शरीर को लाश कहकर पुकारने से उस आत्मा को कितना दुख पहुँचा होगा, जिसने उस शरीर में इतने साल बिता दिए। मुझे मेरे दूसरे हिस्से का यह पक्ष तर्कसंगत लगा और मेरा पहला हिस्सा भी उसके तर्क से सहमत हो गया।
लोगों के रुदन सुनकर मैं अपने सोच के जंजाल से बाहर निकला। एम्बुलेंस सामने थी। लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। सारे लोग एम्बुलेंस की ओर टकटकी लगाए खड़े थे। जैसे ही एम्बुलेंस का दरवाज़ा खुला, चीखने-चिल्लाने और रोने की आवाज़ तेज़ हो गई। इतना दर्द सुनकर मेरा भी हृदय बिलखने लगा।
स्ट्रेचर पर पड़े उस पार्थिव शरीर को एम्बुलेंस का स्टाफ़ घर के अंदर ले गया और उसके साथ ही लोगों की भीड़ भी भीतर चली आई।
मुझे लगा कि अब उस शरीर को उसके बिछावन पर ले जाया जाएगा, पर पंडित जी ने कहा कि शरीर को कमरे के अंदर नहीं, बाहर रखना है। मैंने देखा कि कमरे के बाहर का स्थान धोया हुआ था और वहाँ पुआल की एक सेज बिछी हुई थी, जिस पर फूलों की कलाकृति वाली एक साफ़ चादर बिछी हुई थी। उस व्यक्ति को उसी सेज पर सलीके से लिटाया गया।
फिर काफ़ी प्यार से उस परिवार के पुरुषों द्वारा उस व्यक्ति के शरीर को नहलाया गया। उन्हें नए वस्त्र पहनाए गए और उनके ललाट पर हल्दी का लेप लगाया गया।
हालाँकि उन्हें कमरे के बाहर रखना मुझे उतना अच्छा नहीं लगा, पर इतने प्यार से तैयार करना मुझे पसंद आया, क्योंकि उस शरीर को अब नई यात्रा पर जाना था।
सबने उनके पाँव छुए और पंडित जी द्वारा सबको निर्देश दिया गया कि सारे लोग हाथ जोड़कर उनसे माफ़ी माँगें कि जाने-अनजाने में यदि किसी भी प्रकार की कोई गलती हुई हो, तो उसके लिए क्षमा कर दिया जाए।
मैं फिर अपने विचारों में खो गया कि काश लोग ग़लती करते ही नहीं, और अगर ग़लती करते भी, तो अपने अहम को त्यागकर उसी समय माफ़ी माँग लेते, जिस समय उनसे ग़लती हुई होती—तो कितना अच्छा होता।
“राम नाम सत्य है” की आवाज़ से मैं होश में आया। मैंने देखा कि शरीर को चार-पाँच लोग बाँस से बनी सेज पर लिटाकर ले जा रहे थे और उनके साथ पूरी भीड़ उनके पीछे चल रही थी। मैं भी उनके पीछे चल पड़ा।
“राम नाम सत्य है”—ये शब्द किसी एक के लिए नहीं थे। वे उस पार्थिव शरीर के लिए भी नहीं थे, जो चुपचाप अर्थी पर लेटा था। वे उन जीवित लोगों के लिए थे, जो उसके पीछे चल रहे थे।
हर कदम के साथ यह वाक्य उन्हें याद दिला रहा था कि
यह देह नश्वर है,
रिश्ते यहीं छूट जाते हैं,
और इस संसार में जो सत्य है,
वह केवल ईश्वर का नाम है।
धर्म से ज़्यादा अध्यात्म में रुचि रखने वाला मैं इसका अर्थ भली-भाँति समझ रहा था, पर बस रट्टू तोते की तरह रट लगाने वाले लोग इसका अर्थ समझते भी हैं या नहीं—इस पर मुझे संदेह है।
ख़ैर! सारे लोग नदी के किनारे पहुँच चुके थे। लकड़ियों से बनी चिता तैयार थी। हालाँकि उस परिवार के सज्जनों के दिशा-निर्देश में चिता के आस-पास की जगह साफ़ कर दी गई थी, लेकिन जहाँ-तहाँ मानव मल-मूत्र नदी के रास्ते में बिखरा पड़ा था। शायद “स्वच्छ भारत अभियान” की गूँज केवल कानों तक नहीं, हृदय तक उतारनी ज़रूरी है।
एक आदमी, जिसने नीले रंग की जाली वाली जीन्स और पीले रंग की टी-शर्ट पहनी हुई थी, चिता के आस-पास घूम रहा था और लगातार मुँह में कुछ चबा रहा था।
मेरे बगल में खड़े एक आदमी ने दूसरे से पूछा, “डोम यहीं है क्या?” उसने हामी भरी।
मुझे यह बात उतनी ही चुभी, जितनी यह बात कि मरने के बाद व्यक्ति को नाम से इंगित न करके उसे लाश कहा जाता है। उसी तरह उस व्यक्ति को नाम से न पुकारकर डोम कहा गया, मानो उसकी पहचान वही हो और कुछ नहीं। समाज की इस पाखंड-भरी व्यवस्था से मैं शर्मिंदा महसूस कर रहा था।
वह “डोम” अब भी मुँह में कुछ चबा रहा था और लगातार लाल-भरा द्रव ज़मीन पर थूक रहा था। जहाँ चिता के पास उस पार्थिव शरीर को रखा गया था, वहाँ भी वह उसी प्रकार लाल-भरा द्रव थूक रहा था, जैसे कोई साँप ज़हर उगलता हो।
इस पर उस परिवार के एक सदस्य ने, जिसकी आँखें अपने परिवार के सदस्य को खोने के कारण नम थीं, आपत्ति जताते हुए कहा, “भाई, इधर क्यों थूक रहे हो? देख नहीं रहे कि भैया का शरीर यहाँ है?”
इस पर उस “डोम” ने फिर वहीं लाल द्रव थूकते हुए कहा, “यहीं से मेरा काम शुरू है। मुझे मत समझाओ आप।”
उस सदस्य ने इस बार ग़ुस्से भरी आवाज़ में कहा, “यहाँ थूकना तुम्हारा काम है? थूकना है तो दूर जाकर थूको।”
उस “डोम” ने फिर चिता के पास थूका और मन-ही-मन कुछ बड़बड़ाया।
वह परिवार का सदस्य कुछ और बोलता, उससे पहले परिवार और आस-पास के लोगों ने उसे रोकते हुए कहा, “आप शांत रहिए, अभी कुछ मत बोलिए। डोम नाराज़ हो गया तो शायद चिता जलाने से मना कर दे।”
उस सदस्य ने दबे स्वर में कहा, “वह नहीं देगा तो क्या हुआ? मैं दे दूँगा, इसमें क्या है?”
सबने उसकी आवाज़ दबा दी और कहा, “बिना डोम के आग दिए अंतिम संस्कार अधूरा है।”
मुझे अब “डोम” की समाज में महत्ता समझ आने लगी थी।
चिता पर उस पार्थिव शरीर को लिटाया गया और अब आग देने की बारी थी, लेकिन “डोम साहब” वहीं चिता के पास बैठ गए। सब उन्हें देखने लगे। पहली बार किसी ने उन्हें नाम से पुकारते हुए पूछा, “क्या हुआ, मनोज? बैठ क्यों गए?”
“डोम साहब” मुँह में कुछ चबाते हुए बोले, “पहले लेन-देन की बात हो जाए। चिता को ऐसे ही आग दे दूँ क्या?”
“कितना देना है, बोलो!” उस परिवार के सदस्य ने, जिसे आग देनी थी, नम आँखों से धीरे से पूछा।
“इकतीस हज़ार पाँच सौ,” उसने लाल द्रव थूकते हुए कहा।
सब लोग चौंककर एक-दूसरे को देखने लगे। सबने एक स्वर में कहा, “इतना कौन माँगता है?”
“डोम साहब” अड़ गए—
“इससे कम में आग नहीं दूँगा।”
मोल-भाव का दौर शुरू हुआ। अंत में परिवार के सदस्यों ने बारह हज़ार पाँच सौ में सौदा मंज़ूर करवाया।
“डोम साहब” फिर से बैठ गए। उन्होंने फिर ज़हर उगला, “एक सोने की चेन भी चाहिए।”
“मेरे पास सोने की चेन कहाँ है?” ग़रीबी का दंश झेल रहे उस परिवार के सदस्य ने कहा।
“आप बस हाँ बोल दीजिए। अपन बाद में ले लेगा आपसे।”
इस पर लोगों से रहा नहीं गया और सबने विरोध किया कि अब यह ज़्यादा हो रहा है।
पर “डोम साहब” अपना काम निकालने में माहिर थे।
उन्होंने अगला दाँव खेला, “ठीक है, सोना मत दीजिए। पाँच हज़ार और दे दीजिए और एक विदेशी शराब। बस इतना ही माँग रहा हूँ।”
शायद “डोम साहब” जानते थे कि मनोविज्ञान की ‘डोर-इन-द-फेस’ तकनीक का प्रयोग कब और कैसे करना है।
मजबूरन सबको उसकी बात माननी पड़ी। मानना ही था, नहीं तो अंतिम संस्कार अधूरा रह जाता।
मैं वहाँ खड़ा सब देख रहा था। मेरे मन का एक पक्ष, दूसरे से तर्क-वितर्क करने लगा।
महाभारत का ‘मत्स्य न्याय’, जो यह कहता है कि नियम या व्यवस्था न होने पर बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, अब समझ में आने लगा था—क्योंकि यह समझ पाना कठिन हो गया था कि यहाँ सताया हुआ समाज का हिस्सा कौन है। क्योंकि सब बहती गंगा में हाथ धोने में लगे थे—जिसे जब मौका मिला, उसने अपने हिस्से की सफ़ाई कर ली।
अब चिता में आग लग चुकी थी। धुआँ ऊपर उठ रहा था, जैसे इच्छाएँ आख़िरी बार आसमान की ओर देख रही हों। कुछ लोग अपने में मग्न होकर इधर-उधर की बातें कर रहे थे। कुछ की आँखें अब भी नम थीं। कुछ लोग बस खड़े थे, आग को देखते हुए—जैसे मृत्यु के बीच से जीवन को समझ लेना चाहते हों।
कुछ घंटों में शरीर लगभग जल चुका था और उसके साथ कुछ यादें भी धुँधली होती जा रही थीं…
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