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रूह का अस्तित्व

#समर्पित मेरे दिवंगत माँ-पापा को
मैं और मेरी रूह अक्सर बातें करतें हैं,
पर बहुत दिन सी दिखाई नहीं दे रहीं थी,
मैंने पुकारा, ढूँढा, पाया,
किसी कोने में, अँधेरे में दुबकी मिली ।
मेरी आवाज़ पर,
आयीं दबे पाँव बाहर, कुछ सहमी हुई लग रहीं थी,
मैंने पूछा, 'क्यों छिपी हों, बातें क्यों नहीं करती मुझ से आजकल ?'
मेरी रूह बोली,'डर लगता हैं'
मुझें हंसी आ गयीं, 'रूह को किस बात का डर भला ?'
आंसू टपक पड़े उसके बड़े नैनो से, 'तुम नहीं समझोगे, मेरे डर को, मेरा अस्तित्व खोने का डर !'
'रूह का भी अस्तित्व होता हैं भला ?
तुम तो अमर हों, स्वछंद हों, हर पल चलायमान हों,
फिर अस्तित्व कैसा ?'
रो पड़ी वो, 'मेरा अस्तित्व तो मेरे बंधन में हैं, जन्मो के बंधनो में,
जो लेकर आयें थे मुझें, काट के बंधन मुझसे, चल दिए वो इस जहाँ से,
साथ ले गए .. मेरा अस्तित्व भी...मेरा वज़ूद भी..
अब सब झूठा लगता हैं '
आंसू भरी मुस्कान लिए, चल दी वो फिर उस अंधेरे कोने को ।
मैं चुप हो गया, क्या बोलता,
मैं भी तो अपने अस्तित्व को तलाश में हूँ.. .। ।
राखी सुनील कुमार
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