रोटियां

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dineshkumar singh

19 Sept 20241 min read

Published in poetry

सब्जी अच्छी नहीं बनी थी,
ऐसी बात नहीं थीं,
पर चटपटा खाने की इच्छा में,
बाहर से और व्यंजन मंगवाए गए,
घर का खाना बच गया,
रात में, दिन की गर्मी में
टेबल पर पड़ी रोटियों ने
दम तोड़ दिया,
टीवी में व्यस्त, किसी ने
इन पर ध्यान नहीं दिया।

कभी जब,
जेब खाली होते थे,
टीवी पर चैनल कम होते थे,
जोमैटो, स्वीगी नही थे,
तब अन्न भगवान होता था,
उसका रोज मिलना,
नसीब वान होता था।

पर अबकी पीढ़ी,
पका पकाया पाती है,
पर वह भी नहीं खाती है,
स्वादिष्ट के आगे
पौष्टिकता हार जाती है।

हर दिन ऐसे अन्न व्यर्थ होता है,
यह उस दुनिया में,
जहां एक चौथाई आबादी,
भूखा सोता है।

दिनेश कुमार सिंह

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dineshkumar singh

19 Sept 20241 min read

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सब्जी अच्छी नहीं बनी थी,
ऐसी बात नहीं थीं,
पर चटपटा खाने की इच्छा में,
बाहर से और व्यंजन मंगवाए गए,
घर का खाना बच गया,
रात में, दिन की गर्मी में
टेबल पर पड़ी रोटियों ने
दम तोड़ दिया,
टीवी में व्यस्त, किसी ने
इन पर ध्यान नहीं दिया।

कभी जब,
जेब खाली होते थे,
टीवी पर चैनल कम होते थे,
जोमैटो, स्वीगी नही थे,
तब अन्न भगवान होता था,
उसका रोज मिलना,
नसीब वान होता था।

पर अबकी पीढ़ी,
पका पकाया पाती है,
पर वह भी नहीं खाती है,
स्वादिष्ट के आगे
पौष्टिकता हार जाती है।

हर दिन ऐसे अन्न व्यर्थ होता है,
यह उस दुनिया में,
जहां एक चौथाई आबादी,
भूखा सोता है।

दिनेश कुमार सिंह

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