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अधूरी कहानियाँ (भाग-1)
अंशिका जो मेरे बचपन की दोस्त थी और जिसके पापा मेरे पापा साथ काम करते थे, उसका जन्मदिन था। अंशिका से मेरी खूब बनती थी। बचपन से साथ में खाना-पीना, खेलना-कूदना लगा रहता था। उसके परिवार वाले और मेरे परिवार वालों में बहुत घनिष्टता थी। अगर मेरी और आंशिका की कभी किसी बात पर लड़ाई हो जाती थी तो हमदोनों के परिवार वालों को हमारे हावभाव से पता चल जाता था। फिर हमदोनों के परिवार वाले हमारी दोस्ती करवाने के लिए पुनः जुट जाते। स्कूल में मैं उसी के साथ टिफिन खाता। मुझे उसके घर से भेजी टिफिन पसंद आती और उसे मेरे घर की। यद्यपि मेरे दोस्तों को लगता था कि हमारे बीच कुछ प्यार-व्यार जैसा झोलझाल है और मैं जब उन्हें समझाता कि हम बस अच्छे दोस्त हैं तो वो मुझे चिढ़ाते,"लड़के और लड़की कभी अच्छे दोस्त नही हो सकते।" अब उन्हें कौन समझाए कि कुछ रिश्ते, प्यार से भी परे होते।
अंशिका को लड़को की तरह रहना पसंद था। लड़कों की तरह कपड़े पहनना, लड़को के तरह मारा-पिटी करने में भी वो काफी आगे थी। कभी किसी लड़के से मेरी लड़ाई हो जाती, तो वो मेरे तरफ से उस लड़के से लड़ जाती। एक बार एक लड़के ने बेंच से मेरा बैग फेक दिया था और जब मैं रोता-बिलखता अंशिका के पास गया और उसे अपने रोने का कारण बताया तो वो इतना गुस्सा हो गयी कि उसने मुझे चुड़ी पहनने का सुझाव दिया और उस लड़के के पास जाकर उसे इतनी जोर से घुसा मारा कि उस बेचारे की दरवाजे से लग कर आगे के दो दाँत टूट गए। और जब उस लड़के के पिताजी शिकायत करने स्कूल आये तो उसने उल्टा उस लड़के पर उसकी बाल खींच कर उसे चोट लगाने का आरोप लगा दिया और उसी दौरान उसे धकेलने के क्रम में उस लड़के को चोट लग गयी, ये बहाना बना डाला। कुछ ऐसी ही चुलबुल और झगड़ालू थी मेरी अंशिका।
अंशिका ने मुझे कॉल किया,"अबे! ओ उजड़े चमन कहाँ के तू?"
"अरे अंशु! जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। मैं कॉल करने ही वाला था, तुमने कॉल कर दिया। सॉरी, रात को नींद लग गयी थी, इसलिए 12 बजे कॉल नहीं कर पाया। I am really sorry"
"चल झूठा,कॉल करने वाला था। अच्छे से झूठ भी नहीं बोल सकता फट्टू।"
"अब फट्टू वट्टू मत बोला कर मुझे। मैं अब बड़ा हो गया हूँ और गंभीर भी, बोले तो फूल मेच्योर्ड (matured)।"
"साले! फट्टू को फट्टू नहीं बोलूंगी तो टट्टू बोलू।"
"अंशिका, चुप हो जा ।"
"मैं चुप हो गयी तो बात तुमसे कौन करेगा? आज तक एक लड़की तो फंसा नहीं पाया। साला फट्टू।"
"तुम्हें तो मैंने कितनी बार बोला कि अपनी किसी दोस्त से सेटिंग करवाओ। तुम करवाती कहाँ हो?"
"बेज़्ज़ती थोड़ी करवानी अपनी मुझे तुमसे दोस्ती करवा कर। वोलोग बोलेगी कि कैसे फट्टू से दोस्ती करवा दी। Kiss भी नहीं करने आता उसे ढंग से। न बाबा न, मैं अपनी बेज़्ज़ती नहीं करवा सकती।"
Kiss वाली बात सुनकर मैं शर्मा गया और फिर कुछ न कहा।
"देखा, किस का नाम सुनकर ही शर्मा गए तुम। किस घंटा तुमसे हो पायेगा। फट्टू।" उसने जोर से हँसते हुए कहा।
"तुम सीखा दो मुझे किस करना।" मैंने उसका मज़ा लेने के लिए कहा।
"किस करना, सीखा तो सकती। पर बेटा, तुमसे फिर भी न हो पायेगा।"
"क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ?" मैंने "तारे जमीं में" के गाने के बोल कहा।
"नहीं बेटा, तू बुरा नहीं है। तू तो मेरा लाडला बेटा हैं लेकिन ये अभागन माँ क्या करे अपने इस बच्चे का, जिससे आज तक एक भी लड़की न पटी। इस माँ का तूने नाम खराब कर दिया है। अच्छा, एक बात बता बेटा, तुम्हें लड़कियाँ ही पसंद है न?"
"अंशु, चुप कर तुम। नहीं तो तेरी जुबान काट लूँगा।" मैंने गुस्से का दिखावा करते हुए कहा।
"अच्छा चल, चुप हो गई।"
उसके बाद मैं कॉल में अंशु, अंशु करते रहा, पर उसने कोई जवाब न दिया।
"माफ कर दो अंशु। तुम तो यार बुरा मान गई। मैंने मजाक किया था।" मैंने दबे हुए आवाज़ में कहा।
"डर गए? देखा, बोली थी न फट्टू हो तुम। तुम फट्टू थे, फट्टू हो और फट्टू ही रहोगे।" अंशु ये बोल कर खिलखिला कर हँसने लगी।
मेरी भी हँसी रुक न पाई और फिर कुछ पल हमदोनो हँसते ही रह गए।
"अच्छा सुन, मैंने आज अपनी जन्मदिन की पार्टी रखी हैं। तुम तो मेरे बेस्ट फ्रेंड हो, तुम्हें तो आना ही है और सुन, थोड़ा जल्दी आना। पार्टी की सजावट का जिम्मा तेरा ही हैं। घर में वैसे ही तू रोटी तोड़ता है, काम धाम तो है नहीं। इसलिए जल्दी आ जाना।" उसने चहकते हुए कहा।
"तुम नहीं भी बुलाती तो मैं जरूर आता। क्योंकि वो घर मेरा है, तेरा थोड़ी है। तू तो वहाँ कुछ सालों की मेहमान हो। तेरी शादी के बाद मैं ही वहाँ राज करूँगा।"
"अबे चल, शादी करके मैं थोड़ी कहीं जाने वाली हूँ। घरजमाई दूल्हा लाऊंगी। अच्छा ये सब छोड़, थोड़े अच्छे कपड़े पहन कर आना। भिखारी की तरह मत आ जाना, नहीं तो तुम्हारी इस माँ की सबके सामने बेज़्ज़ती हो जानी हैं कि खुद तो ठाट बाट में रहती और अपने बच्चे को अच्छे कपड़े भी न पहनाती।"
"ठीक है माँ, जैसी आपकी मर्जी।"
"अच्छा सुन!"उसने पूरे उत्साह से कहा।
"अब क्या है अंशु?"
"तेरी वाली भी आ रही है।"
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"मेरी वाली? कौन? " मैंने जानबूझ कर अंजान बनने का नाटक करते हुए कहा।
"मेरा बेटा क्या-क्या गुल खिलाता हैं, सब पता हैं इस माँ को।"
"मैं समझा नहीं अंशु?"
"अब नाटक मत कर ज्यादा, फर्जी इंसान । साक्षी भी आ रही है पार्टी में।" उसने इस बात थोड़ा खिसियाते हुए कहा।
"साक्षी? मेरी साक्षी? मेरा मतलब है पटेल अंकल की बेटी साक्षी?" यह सुनकर मैंने अपने दिल में हुए रिएक्टर स्केल में 9 से अधिक तीव्रता वाले भूकंप के कंपन को दबाते हुए कहा।
"सच्ची बात निकल ही गयी न तेरे मुहँ से, फट्टू। हाँ जी! आपकी साक्षी भी आने वाली है पार्टी में।" उसने बहुत प्यार से कहा।
"अरे, मेरा वो मतलब नहीं था ।" मैंने शर्माते हुए जवाब दिया।
"तुम्हारा सब मतलब मैं समझ रही हूँ। अच्छा चल, मैं अब फ़ोन रखती हूँ और सबको भी invite करना है। तू आ जाना जल्दी।" उसने फ़ोन काटते हुए कहा।
अंशिका के फ़ोन रख देने के बाद भी मैंने अपने कान में फ़ोन लगाए रखा। बार-बार एक ही बात मेरी कानों में गूंज रही थी,"आपकी साक्षी भी आ रही हैं पार्टी में।" मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कुछ। कुछ देर के लिए मानो सबकुछ थम सा गया था।
पहला प्यार भी कितना प्यारा होता है न, पतझड़ के बाद तरु से निकले नए पत्तों की तरह। एकदम नवीन, मनमोहक, आकर्षण से भरा हुआ। सबकुछ नया सा लगता है। उसके एक नज़र को पाने के लिए हमारी नज़र लालहित रहती और अगर उस प्रेयशी की एक नज़र भी हमारे नज़र से मिल जाती तो पूरा शरीर ऊर्जा से ओत प्रोत होने लगता और पूरा दिन उस क्षण को याद करते-करते खुशनुमा बीतता।
सागर गुप्ता
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