Author:
Aparna Ghosh
बूढ़ा सा दिसंबर
एक बूढ़ा सा दिसंबर,
सेंक रहा दुपहरी की धूप,
उठा रहा फेंके हुए छिलके,
बदल रहा उसका भी स्वरूप।
आज़ादी दिवस
आज खड़े पचहत्तर वर्ष पर,
सोचो कितना कुछ पाया है,
सफलता का इतिहास रचा है,
सब धर्मों का आशीष सरमाया है।
माँ
कभी कुछ लिखा नही तुमको
ना कभी कुछ तुम्हारे बारे में,
शायद तुम इतने करीब हो मेरे
की रूह से रूह बतियाती है।