अष्टावक्र गीता
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||श्री सद्गुरवे नमः||
अष्टावक्र गीता
पाँचवां प्रकरण – लयोपदेश प्रकरण
पहला प्रवचन, श्लोक संख्या – 1
दिनांक 23.01.2021 दिन शनिवार को नवनिर्मित आश्रम तुलसी, नया रायपुर (छत्तीसगढ़) में सदुरुदेव का दिव्य आशीर्वचन….
अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं…
प्रिय आत्मन्,
आज हमलोग नवनिर्मित आश्रम- तुलसी, नया रायपुर में प्रथम प्रवचन, सत्संग, सम्मेलन में उपस्थित हैं और हम परमात्मा से- गुरु और गोविन्द से प्रार्थना करेंगे कि इस आश्रम के निर्माण में जो लोग किसी भी तरह का सहयोग दिए हैं उनका मंगल करें| कोई तन से करता है, कोई मन से करता है, कोई धन से करता है- कोई तन मन धन तीनों से करता है| कोई विघ्न-बाधा डालकर, विरोध करके ही करता है लेकिन उसका भी सहयोग है न! इसलिए सभी तरह के सहयोग कर्ताओं का मंगल हो|
हम अष्टावक्र की गीता पर बोलते आ रहे थे – कबीर साहब का बीजक, साखी, शबद, रमैनी – सब तो हो गया था, चौरासी अंग की साखी भी| उसके बाद कहा कि अब क्या चुनें भाई! कुछ सार्थक बोलने पर सार्थक साहित्य का भी निर्माण होता है| हम टच करते हैं वह, जिसपर लोगों ने न बोला हो| कबीर साहब के बीजक पर नहीं बोला था भाष्य| चौरासी अंग की साखी पर भी नहीं बोला गया है| फिर कहोगे कि गीता पर तो बहुत लोग बोले हैं गुरुजी| गीता पर बहुत बोले हैं लोग, लेकिन हमने वही बोला है, विशेष जोर दिया है उसपर; जो कोई नहीं बोला है- हमारे लिए छोड़ दिया गया| प्रकृति जो है व्यक्ति विशेष के लिए कुछ काम छोड़ देती है कि वही आयेंगे तो करेंगे| तो जो-जो भाग छोड़ दिया गया उसी को हम टच कर रहे हैं| इस पर तो बहुत लोग नहीं बोले हैं, बोला तो एक आदमी नहीं है, लिखा है|
श्रीमद्भागवद्गीता पर भी हमसे पहले टीवी पर कोई नहीं बोला था| अब जब हम बोले तो एकाध कोई बोलने लगा है| इस पर अभी तक कोई बोला नहीं है| छोटी-छोटी किताबें आई हैं अष्टावक्र गीता पर, लेकिन हम जानते हैं कि लगभग सात-आठ वॉल्यूम में भाष्य हमारा होगा- मोटा-मोटा| लोग अक्सर अर्थ कर देते हैं कि बस, हो गया| इसलिए मुझे बोलना पड़ रहा है| आज एक ही दो श्लोक पर बोलेंगे – इसलिए कि आप लोगों ने अष्टावक्र गीता का नाम सुना होगा या नहीं भी सुना होगा|
भगवान् कृष्ण की गीता में विश्व के प्रत्येक धार्मिक और अधार्मिक आदमी के लिए कुछ न कुछ मसाला मिल जायेगा – सभी लोग अपनी संभावनाएं गीता में देख लेते हैं| अष्टावक्र की गीता में सबके लिए संभावनाएं नहीं हैं| इसलिए लोग बोलने का साहस नहीं करते हैं| इस तरह से समझो- जैसे लोग किसी विषय में एमए कर लेते हैं, उसके बाद एम फिल करते हैं- रिसर्च करते हैं, अष्टावक्र गीता वही है| वह जनक के लिए है| जो विदेह हैं| ज्ञान को, मुक्तत्व को प्राप्त कर लिए हैं| ऐसा शिष्य है और ऐसा गुरु | जो बहुत बड़ा धार्मिक व्यक्ति होगा- संभावनाएं उसके लिए हैं| जो मुक्ति चाहता हो- मोक्ष चाहता हो| इससे कम नहीं| इसलिए इसमें सम्भावना कम है न! मोक्ष चाहते कितने लोग हैं? 0.00001% भी नहीं| इसीलिए इस पर कम बोलेंगे, एकाध श्लोक का ही बहाना लेकर कह देंगे- अष्टावक्र गीता का पाँचवां प्रकरण- पहला श्लोक है| अष्टावक्र जी कह रहे हैं-
अष्टावक्र उवाच-
न ते संगोऽस्ति केनापि किंशुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि|
संघात विलयं कुर्वन्नेवमेव लयं व्रज|| 1 ||
पदच्छेद अन्वय –
न ते संगः अस्ति केन अपि किम् शुद्धः त्यक्तुम् इच्छसि|
संघात विलयम् कुर्वन् एवम् एव लयम् व्रज||
अष्टावक्र कहते हैं-
तेरा किसी के साथ भी संग नहीं है, इसलिए शुद्ध है; किसको त्यागना चाहता है? इस प्रकार देहाभिमान का त्याग करता हुआ मोक्ष को प्राप्त हो|
अष्टावक्र जी जनक को समझा रहे हैं| इससे पहले जनक कह दिए हैं कि विदेह हो गया हूँ, मैं आत्मस्थ हो गया हूँ| अब मुझे कोई कामना नहीं है| सब भूतों में आत्मा को देख रहा हूँ- परमात्मा को देखता हूँ| यह सृष्टि मुझे ही हुई है| मुझसे ही सूर्य-चंद्रमा, तारे निकल रहे हैं| मुझमें ही लय हो रहे हैं| शिष्य जनक फिर कह दिये कि मुझे अब त्यागने की इच्छा है| हे अरिहंत! ब्रह्मा से लेकर चींटी पर्यंत चार प्रकार के जीवों के समूह में ज्ञानी को ही इच्छा और अनिच्छा त्यागने का निश्चित सामर्थ्य है| इसलिए त्याग पर ही अब बोल रहे हैं अष्टावक्र कि जनक! किसको तू त्यागेगा? कौन तुम्हारा है कि त्यागेगा! त्यागना भी तुम्हारा देहाभिमान है न!
जरा इसको समझो| त्याग- यह मुक्ति की बात है| हमलोग कहते हैं कि त्याग कर दिए हैं| तुम्हारा है ही क्या इस संसार में, कुछ है? न लेकर कुछ आए- न लेकर जाओगे| न यहाँ पर कुछ किया- न किया जा सकता है| जब तुम शुद्धचित्त, शुद्ध चैतन्य आत्मा हो, तो क्या त्याग करना है! कुछ है तुम्हारा? बड़ी कठिन बात है न! ‘कहत कठिन, समुझत कठिन, साधत कठिन विवेक’-तुलसीदास जी ने कहा है| अभी तो तुमलोग समझ रहे हो कि यह मेरा है- वह मेरा है| यहाँ अष्टावक्र जी उपदेश दे रहे हैं कि तुम्हारा है क्या, यह तो पहले बताओ| जब तुम्हारा कुछ है ही नहीं यहाँ पर- शुद्ध चित्त आत्मा है; और आत्मा से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, फिर तुम्हारा इसमें है क्या? क्या तू त्याग करेगा, क्या दे सकता है? यह तुम्हारा अभिमान बोल रहा है| यही दैहिक अभिमान है कि मैं यह कर सकता हूँ, यह कर सकता हूँ! तू अभिमानी है न जनक! अब समझा रहे हैं कि यह तू अभिमान में बोल रहा है|
देखो, यह सुख-दुःख जो है सब हमारे अन्दर की भावना है| हम बाहर से प्रोजेक्ट करते हैं| बाहर से किसी को न सुख दिया जा सकता है, न दुःख| यह सारा प्रोजेक्शन हमारा है| इससे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है| आत्मा तो सदैव निर्लेप रहता है, आत्मानंद में रहता है| उसको दुःख पहुँचाने का, जन्म देने या मारने का कोई उपाय नहीं है| हालाँकि भगवान् कृष्ण भी गीता में कहते हैं-
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः|
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः|| 2.23 ||’
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग से जलाया जा सकता है| न पानी इसे भिगो सकता है, न हवा इसे सुखा सकती है| इसको फिर दुःख कैसे दिया जा सकता है?
सुने हैं एक रानी नदी सरोवर में स्नान करने के लिए आई| तालाब यहाँ हैं न दोनों तरफ- पूरब- पश्चिम! पहले के लोग नदी में, तालाब में स्नान करते थे| अब तो बाथरूम बन गए हैं न, तुमलोग कहोगे कि गुरुजी, अरे तालाब में भी राजा लोग स्नान करते हैं! दिल्ली का लाल किला जो बना है, अब उसमें भले जो कुछ कर दिया गया; सुनते हैं कि पाण्डवों की रानियों के स्नान करने के लिए वह बना था स्थान| और यमुना नदी उसके किनारे से बहती थी| अब तो यमुना जी दूर चली गयीं| यह भी समझना चाहिए कि गुरु-गोविन्द या जो महापुरुष हुए हैं इस पृथ्वी पर, उनकी हम पूजा करते हैं- उपासना करते हैं, लेकिन उनसे तत्काल ज्ञान नहीं ग्रहण कर सकते हैं| उनसे वार्ता नहीं कर सकते हैं, अपना दुःख-सन्देश नहीं कह सकते हैं| जो वर्तमान में आपका गुरु है, माता-पिता है- उसी से आप कुछ लेनदेन कर सकते हो न! जो पिछले जन्म में छूट गया है, उससे कुछ कर नहीं सकते हो|
लाल किले के नजदीक यमुना कभी बहती थी, अभी कई किलोमीटर दूर बह रही है| अब यदि वहाँ स्नान करना चाहें तो यमुना नहीं है, गड्ढा हैं| शूकर हैं, कबाड़ी हैं| उसी तरह से जो सद्गुरु चला जाता है, उसकी प्रतिमा लेकर हम पूजा करते रहते हैं| फिर कहते हैं कि नहीं, गुरु हमारा तो है! अरे यह तुम्हारा भ्रम है| वह जा चुका है| अब जो आ गया है उसकी उपासना करनी पड़ेगी, उसके नजदीक रहना पड़ेगा|
वह रानी भी उस ताल में स्नान करने गयी| तो जो बना था स्नान के लिए कक्ष- उसमें खूंटी पर अपना नौलखा हार टांग दिया| अक्सर रानियों-महारानियों के पास नौलखा हार होता है| उस समय नौ लाख कीमत थी, अब तो और कीमती हो जायेगा न! वह स्नान करके वस्त्र बदलकर जब आई तो देखती है कि खूंटी पर हार नहीं है| न कोई आया, न गया- चारों ओर ब्लैक कैट कमांडो हैं, फोर्स है- कौन आयेगा, जायेगा? लेकिन हार गायब हो गया| रानी ने राजा से कहा कि मेरा हार लाओ| कहा कि हार गया, अब कहाँ से लायें- चलो, तुम्हारा दूसरा हार बनवा देंगे| कही कि नहीं, मुझे वही हार चाहिए|
औरतें जिद ही करती हैं| कहा कि नहीं, वही चाहिए- चाहिए तो वही| वही लाकर दो- नहीं तो मैं खाना-पीना छोड़ूँगी| अब राजा बड़ा फेर में पड़ा| घोषणा हुई चारों तरफ| हल्ला हुआ, डुगडुगी पिटी| जब नहीं लाया कोई तो कहा कि जो ला देगा हार- उसको आधा राजपाट दे देंगे| राज्य कि पूरी मिलिट्री, फ़ोर्स, जनता- सब हार की खोज में निकल गए कि हार गया कहाँ गया आखिर! लेकिन संयोग से एक कौआ वह हार लेकर उड़ गया| समझा कि कोई खाद्य पदार्थ चमक रहा है- मांस के छोटे-छोटे टुकड़े हैं..|
राज्य के कर्मचारी खोजने लगे तो देखा कि एक पोखर में वर्षा का जल जमा है, उसमें हार दिखाई पड़ रहा है| जो कूदता था उस हार को लेने के लिए- उसे वह दिखाई नहीं पड़ता| निकल जाता जब, पानी थिर होता, फिर दिखाई पड़ने लगता| राज्य के सेनापति से लेकर सबलोग उस हार को लेने के लिए दौड़ रहे हैं पोखर में| हार दिखाई नहीं पड़ रहा है| संयोग से एक फ़क़ीर उधर से गुज़र रहा था| पूछा कि क्या मामला है? कहा कि रानी का हार चला गया है- दिखाई पड़ रहा है; लेकिन लेने के लिए जाते हैं तो अंतर्ध्यान हो जाता है| मालूम होता है, कोई प्रेत पकड़ लिया है|
प्रेत को कोई देखा नहीं है| लेकिन प्रेत में बच्चा-बच्चा विश्वास करता है| है न! यहाँ के तो लोग और भी विश्वास करते हैं| पूछो- अरे देखा है! कहेगा कि न| तुम पर विश्वास नहीं करेगा| फ़क़ीर से लोग कहे कि हमलोग हार खोज रहे हैं| दिखाई पड़ता है, लेकिन भूत उठा ले जाता है|
कहीं चले जाओ कि हमारा यह काम नहीं हो रहा है, बड़े परेशान हैं! ‘अरे आप पर भूत न लगा है! आपके काम का, दुकान का बंधन न कर दिया गया!’ इसपर सब विश्वास कर लेंगे| है न जी! हम भी कभी-कभी झटका मारते हैं- तुमलोगों के विश्वास के लिए| फ़क़ीर से भी कहा कि कोई भूत है- प्रेत है, उठा ले जाता है हार| कहा कि राजन्, हार हम दिलवा दें! कहा कि हाँ, महाराज जी! दिलवा दीजिये, बड़ी कृपा होगी| कहा कि हार कहीं है, तुमलोग खोज कहीं रहे हो! उसका प्रतिबिम्ब? आदमी जो है इस दुनिया में सर्वश्रेष्ठ है| गुरु और कुछ नहीं करता है, आपको जब दीक्षा देता है तो वह सर्वश्रेष्ठता आपमें प्रकट करता है|
प्रेत जो तुम जो कहते हो, बहुत चर्चा करते हो, उस पर बड़ा हमारा अनुसन्धान है| प्रेत को हम नकार नहीं रहे हैं कि नहीं है, लेकिन वह एक शरीरी है| एक शरीरी मतलब? केवल हम ही इस बात को कहते हैं बार-बार| वह पवन है- हवा| लोग कहते हैं कि फलाना को हवा लग गई- वायु लग गयी| प्रेत- एक तत्त्व, वायु तत्त्व है| समझ लो- प्रेत वायु तत्त्व है और जिसको जिन्न कहते हो, उसमें दो तत्त्व हैं वायु तत्त्व और अग्नि तत्त्व| इसलिए आग लग जाती है| जिसको ब्रह्म पिशाच कहते हो, उसमें भी दो तत्त्व हैं| अग्नि तत्त्व है इसलिए आग लगती है| ये ओझा से कण्ट्रोल नहीं होता है| ओझा लोगों को भी मारता है, पीटता है| और जिसको यक्ष-किन्नर-गंधर्व कहते हो, उसमें तीन तत्त्व हैं आकाश तत्त्व भी है| और देवताओं में भी यही तीन तत्त्व हैं| जल तत्त्व और पृथ्वी तत्त्व- ये दो तत्त्व मनुष्य में ज्यादा हैं| इसीलिए कहा गया-
‘बड़े भाग मानुष तनु पावा| सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा||’
मनुष्य में पाँच तत्त्व हैं, इसलिए सर्वश्रेष्ठ है| देवता में तीन ही तत्त्व हैं| इसलिए आपलोग यह नहीं जानते हो, मंदिर अक्सर बनाया जाता है नदी के तट पर, हिमालय पर| जहाँ पानी रहता हो| समुद्र तट पर या नदी के, गंगा के तट पर ज्यादा बनता है| क्यों? इसलिए कि जल तत्त्व आसानी से मिल जाए और पृथ्वी तत्त्व यानि पत्थर का देवता तो बनता ही है| यह दोनों तत्त्व मिल जायें, इसलिए शंकरजी का मंदिर भी बनाते हो तो शिव लिंग पर जल टपकाते रहते हो- जल तत्त्व देने की एक विधि बनाई गई| भगवान् नारायण का भी बनाते हो तो देखते हो, उनका विग्रह- हमलोग बार-बार स्नान कराते हैं| जल तत्त्व को प्रत्यक्ष आने के लिए बाध्य करते हैं| पाँचों तत्वों का समावेश करके पूजा करते हैं| लेकिन आपमें पाँचों तत्त्व हैं तो आपसे प्रेत कैसे मजबूत हो जायेगा?
‘ये भ्रम भूत सकल जग खाया| जिन जिन पूजा तिन जहँडाया||’
आपलोग भ्रमित हो जाते हैं इसलिए आपको वह मार गिराता है| नहीं तो, आपसे श्रेष्ठ नहीं है| गुरु का काम यही है कि आपको वह मन्त्र दे, विधि दे जो उससे मुक्त कर दे| लेकिन बचपन से ही मन में इतना भय बैठा दिया जाता है कि बच्चा बूढ़ा हो जाता है- मरते दम तक भूत-भूत करते रहता है| है न जी! तब क्या करें हम? हालाँकि हमारा हर आश्रम भूत की ही जगह पर बनता है अक्सर| यह बात समझ लो|
फ़क़ीर ने कहा कि राजन्! पेड़ के ऊपर देखो| राजा ने ऊपर देखा- हार तो पेड़ पर लटका हुआ है! फ़क़ीर बोला कि कोई पक्षी इसे ले गया खाने के लिए| खा नहीं पाया- इस पेड़ पर छोड़ दिया| पेड़ की डाली पर लटका है| उसका प्रतिबिम्ब जो आ रहा है इस पोखर में| और तुमलोग इसी में खोजे जा रहे हो- ऊपर नहीं देख रहे हो|
इसी तरह से मनुष्य का शरीर है| तुम्हारे ह्रदय देश में परमात्मा रहता है| ‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |(18.61)’- भगवान् कृष्ण गीता में कह रहे हैं अर्जुन से| लेकिन हमलोग अक्सर नीचे खोजते हैं| कहाँ? सेक्स सेंटर के इर्द-गिर्द घूमते हैं मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र पर| और सब वहीं की वृत्तियाँ हैं काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, अहंकार..| इसको सेक्स सेण्टर कहते हैं| अष्टावक्र भी कहते हैं कि जनक! तुम फिर वहीं की बात सोच रहे हो? वहीं से कुछ छोड़ा जा सकता है- वहीं से ग्रहण किया जा सकता है, वहाँ परमात्मा का वास नहीं| परमात्मा ऊपर है देखो|
फ़क़ीर ने भी कहा कि देखो, हार ऊपर है| तुम्हारे अन्दर ऊपर जो दिया गया है, दीक्षा में हम बताते हैं- गुरु का स्थान कहाँ है, गोविन्द का स्थान कहाँ है! वहाँ ध्यान करो| लेकिन हमारा ध्यान अक्सर नीचे जा रहा है- सेक्स सेंटर पर, नाली में| नाली में वह नहीं है, न हार मिलेगा| फ़क़ीर ने राजा को बताया कि देखो हार ऊपर टंगा है| उसका प्रतिबिम्ब है नीचे| यह रिफ्लेक्ट कर रहा है| उसी तरह से आपके ह्रदय देश- आज्ञा चक्र के ऊपर सहस्रार में जो परमात्मा वास करता है उसका रेफ्लेक्शन आता है पूरा सिर से लेकर पैर तक| हम उस रिफ्लेक्शन में विश्वास कर लेते हैं कि परमात्मा है|
देखो, जैसे किसी लड़की को शादी करके कन्यादान दे देते हो- विदाई कर देते हो; वह लड़की साल में एक बार अपने मायके आ जाती है तो बड़ा सुकून महसूस करती है| आपलोगों में जिसको लड़की है, वो जानता होगा| नहीं तो तुम खुद लड़की हो, अपने भी जानती होंगी| यदि अपने मायके में मिल लेती है माँ से, पिताजी से, भाई से- बहन से, एकाध महीना रह जाती है तो उसमें इतना संबल आ जाता है- शक्ति और स्फूर्ति आ जाती है कि एक साल तक पति के घर जाकर सुख-दुःख झगड़ा-फसाद सहन करती है| सहन करने की क्षमता आती है| वो लड़कियाँ आत्महत्या नहीं करती हैं| इसलिए एकाध महीना के लिए हमलोग उसको छूट देते हैं कि जाओ, रहो| कहने का मतलब- आश्रम भी वही काम करता है| जैसे लड़कियाँ मायके जाकर अपना सुख-दुःख सब भूल जाती हैं, नूतन होकर फिर लौटती हैं; उसी तरह से आश्रम बनाया गया है- जब घर पर परिवार में टेंशन हो जाता है, बहुत तरह की समस्याएं आ जाती हैं तो आश्रम में आते हैं, एकाध हफ्ता रुकते हैं| जगह-जगह शिविर लगता है| अभी हरिद्वार में कुम्भ लग रहा है भाई, एक महीना हम रहेंगे| जिसको आना हो, अपना-अपना नाम बता देना|
हरिद्वार- हरि के द्वार पर भी जाकर हम अपनी सांसारिक बातें भूल जाते हैं| पूरे कुम्भ क्षेत्र में- सैकड़ों मील में केवल हरि चर्चा- राम चर्चा, हर पंथ का- संप्रदाय का यज्ञ होता है, श्रीराम का संकीर्तन होता है तो जाने-अनजाने आपका एक-एक सेल श्रीराम की भक्ति में स्नान करता है- तरोताजा हो जाता है| फिर आप घर पर आते हो ऊर्जान्वित होकर- संघर्ष करते हो| समस्याएं घर से ज्यादा कहीं बाहर नहीं मिल सकती हैं| सच पूछो तो घर जो है समस्याओं का जड़ है| आप गाड़ी चलाते हो- बैटरी बार-बार डिस्चार्ज हो जाती है| लेकिन बैटरी भेज देते हो मिस्त्री के यहाँ; वह चार्ज होकर फिर आ जाती है- गाड़ी चलने लगती है| इसी तरह हमारे यहाँ कुम्भ का- तीर्थों का निर्माण किया गया विभिन्न क्षेत्रों में| विभिन्न दिशाओं में आश्रम का निर्माण किया गया| बस इसका एक ही काम है कि हम जो डिस्चार्ज होते जा रहे हैं- वहाँ जायें कम से कम अपना मोबाइल फोन छोड़कर; और वहाँ से पूरा चार्ज होकर आवें, पुनः अपने काम में लग जायें- छोड़ न दें| जैसे जनक को भी अष्टावक्र कह रहे हैं कि छोड़ना क्या? क्या तुम्हारा है- जो छोड़ेगा? छोड़ना और लेना-देना- यह अभिमान है| यह शारीरिक अभिमान की बात है|
एक पत्रकार था| उसकी पत्नी कही कि सबसे सुन्दर व्यक्ति का फोटो खींचकर लाओ| यह आठ साल तक दौड़ा- एक दिन देखा- वाटिका में आठ साल का एक लड़का खेल रहा है| वह फोटो खींच कर लाया- अपने घर में टांग दिया कि सबसे सुन्दर फोटो यह है| अब आठ साल का लड़का तो सुन्दर होगा ही- वाटिका में खेल रहा था| उसकी पत्नी फिर कही कि इस पृथ्वी के सबसे कुरूप व्यक्ति का फोटो लाओ|
अब सुन्दर तो लाया, फिर यह चक्कर काटने लगा- खोजने लगा पृथ्वी का सबसे कुरूप व्यक्ति| और चालीस साल बाद एक आदमी का फोटो खींचा जेल में| नाली के नजदीक- वह रो रहा था, गंदगी में पड़ा हुआ था| हाथ-पैर टूटा था, शरीर पर फोड़ा-घाव हो गया था- बुरी तरह से गल रहा था| चेहरा बड़ा बदसूरत हो गया था| कहा कि सृष्टि का सबसे कुरूप व्यक्ति यही है| उसका फोटो खींचकर लाया- नाम, डेट ऑफ़ बर्थ, पिता का नाम, उम्र- सब नोट कर लिया| लेकिन पृथ्वी के सुन्दरतम व्यक्ति- उस आठ साल के लड़के का भी नाम लिखा था डायरी में- रोशन| डेट ऑफ़ बर्थ- बाप का नाम लिखा था| मिलाया तो मालूम हुआ- यह तो वही है लड़का| इसका भी नाम देखा रोशन| डेट ऑफ बर्थ वही है और बाप का भी नाम वही| अभी अड़तालीस साल का हो गया| आठ साल का था- चालीस साल पहले इसका फोटो हम लिए थे, तब यह सृष्टि का सबसे सुन्दर व्यक्ति था| क्या हुआ कि चालीस साल में यह सृष्टि का सबसे कुरूप व्यक्ति हो गया! फिर गया, पता लगाया| मालूम हुआ कि यह चोर-बदमाश, गुंडा हो गया- डकैत हो गया| पुलिस ने मारा-पीटा, दण्डित किया- जेल भेज दिया| इसका मतलब क्या? समझे!
परमात्मा सबको सुन्दर-सुशील, गुणवान भेजता है| ‘करमन का फल देत, सदा निर्दोष हरि है’– कबीर साहब कहते हैं कि जो हम कर्म करते हैं, उसी का फल हम हैं| अभी भी हैं और कल जो होंगे- अपने कर्मों का फल होंगे| हम दो कल के बीच में जी रहे हैं| एक कल जो बीत गया- एक कल जो आने वाला है| हम अक्सर अतीत के बारे में सोचते हैं कि हमने कल ऐसा किया, हमारे साथ फलाना व्यक्ति ने ऐसा किया- हम उसको ऐसा करके दिखायेंगे..| हम या तो केवल अतीत में जीते हैं या भविष्य में| वर्तमान को छोड़ देते हैं| इसलिए हम कुरूप हो जाते हैं| जैसे आठ साल का वह सृष्टि का सबसे सुन्दर लड़का, चालीस साल में अपने कर्मों के चलते कुरूपता को प्राप्त हो गया|
हमलोग भी लगभग वही काम करते हैं| अक्सर अपने घर जायेंगे, कल के बारे में सोचेंगे- हमने ऐसा किया, ऐसा नहीं करना चाहिए- ऐसा हमने किया! या किसी ने मार दिया तो प्रतिशोध से भर जायेंगे कि अच्छा! उसको हम ऐसा करेंगे| छोड़ेंगे नहीं| हमारे कहने का मतलब है कि जो कल बीत गया- उसको छोड़ दो| अच्छा-बुरा सबसे होता है- भूल जाओ| फॉरगेट इट| कल जो आनेवाला है, उसके बारे में भी नहीं सोचो- छोड़ दो| कल क्या होगा, तुम्हारे हाथ में नहीं है- ‘क्षणार्द्धं किं भविष्यत दैवं न जानाति|’ क्षण के आधे भाग में क्या होगा, परमात्मा भी नहीं जानता है| कृष्ण का भगिना अभिमन्यु 18-19 साल की अवस्था में चला गया छोड़कर| इनकी बहन सुभद्रा का एकलौता लड़का था न! सुभद्रा ने खाना-पीना छोड़ दिया| विलाप करने लगी| इनके माता-पिता भी सुभद्रा के पक्ष में खड़े हो गए- तुम उस ब्राह्मण लड़का ला सकते हो कृष्ण- अपने गुरु का; द्वारिका में एक ब्राह्मण के चार लड़के ले आये- अभिमन्यु क्यों नहीं? ठीक थी न बात! दो ब्राह्मण के लड़कों को लाये तो एक अपने भगिना को क्यों नहीं ला सकते हो? क्या हमलोग समझ लें कि वह झूठा है.. तुम्हारा लाना?
अब बताओ इससे भी ज्यादा विषम क्या होगा? बहन का दबाव- माँ-बाप का भी दबाव पड़ रहा है, अब कोई कुल में रह भी नहीं गया| कृष्ण सांच बात कहे कि न मैं लाया, न किसी को भेजा| न मैं कोई लाने वाला, न भेजने वाला| सब अपनी गति का ही फल पाते हैं- मैं निमित्त मात्र हूँ| मैं केवल ज्ञाता हूँ- जानता हूँ| आपमें हममें अंतर यही है कि आप पूर्व जन्म को नहीं जानते हैं, मैं जानता हूँ| जो यहाँ पर अष्टावक्र भी कह रहे हैं जनक को- तू यह जान कि मैं निमित्त मात्र हूँ| तेरा किसी के साथ भी संग नहीं है, इसलिए शुद्ध है; किसको त्यागना चाहता है? देहाभिमान का त्याग करता हुआ तू मोक्ष को प्राप्त हो जा|
इसी बात को भरतजी भी जब ननिहाल से लौटे हैं तो पूछे हैं| आप तो त्रिकालदर्शी हैं वशिष्ठ जी! वशिष्ठ संहिता के रचैता हैं, ब्रह्मा के लड़के हैं! जब भैया राम का वनवास होने वाला था, हमारे पिता की मृत्यु होने वाली थी, क्यों नहीं बता दिया कि ननिहाल मत जाओ, ऐसा-ऐसा घटने वाला है| मैं यहाँ रहता, समस्या का समाधान कर लेता| जानते हो, रामायण में स्पष्ट आया है-
‘सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ| हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ||’
हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश- यह छः ही न होता है! वशिष्ठ जी बिलखकर कह रहे हैं कि यह विधि के हाथ में है| हमारे हाथ में नहीं है| कहा कि विधि तो आपके पिता ही न हैं? फोन लगाओ- जरा हम उनसे बात करें| ब्रह्मा जी का फोन आपलोग भी नोट कर लो- 00918| कभी फोन उठा लेंगे तुमलोगों का| तो ब्रह्माजी के यहाँ फोन हुआ हॉट लाइन से| जानते हो, ब्रह्माजी उधर से उत्तर क्या दिए! कहा- ‘क्षणार्द्धं किं भविष्यत दैवं न जानाति|’ मैं ब्रह्मा हूँ न! दैव हूँ| लेकिन क्षण के आधे भाग में क्या हो जायेगा, मैं भी नहीं जानता हूँ|
अब देख लो, इधर तुमलोग ज्योतिषी की, प्रकाण्ड विद्वान् की बात कहते हो| क्या जी! यह तो बड़ा गड़बड़ हो गया न! उधर से ब्रह्माजी कह दिए- क्षण के आधे भाग में क्या हो जायेगा, मैं नहीं जानता| तब, कौन जानता है? कहा कि वही, जो जंगलवा गया है| जानता तो वही है! तब भरत जी ने निर्णय लिया कि जब वही जानता है जो जंगल गया है तो वहीं चलो| हम क्यों राजगद्दी पर बैठें? वहीं चलें| अब समझ गए! तो दोष हम किस पर, क्या लगायेंगे? इसीलिए कहा जाता है, होनहारी प्रबल है|
‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा| को करि तर्क बढ़ावै साखा||’
गुरु का काम केवल यही है- तुमको ठीक-ठीक रास्ता बता देना कि इस रास्ते से चले जाओ| जी टी रोड है, इस पर कार चलाकर ठीक से चले जाओ- पहुँच जाओगे| अपने गंतव्य पर निकल जाओ|
भगवान् कृष्ण के सामने उनके माँ-बाप बैठे| इकलौती बहन बैठी, अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा भी बैठी| इतनी अल्पायु में वो विधवा हुई| अल्पायु है न! भगवान् कृष्ण एक बहुत मार्के की बात कह रहे हैं कि देखो तुमलोग नहीं जानते हो, मैं जानता हूँ| अर्जुन से भी यही कहे हैं कि तू पूर्वजन्म की बातों को नहीं जानता है अर्जुन, मैं जानता हूँ| मेरा और तुम्हारा जन्म बहुत बार हुआ है| भगवान् बुद्ध भी कहे हैं कि यह मेरा अंतिम जन्म है| अपने दो सौ जन्मों के बारे में कहा| जिनको जातक कथा के रूप में बौद्धिष्ठ लोग पढ़ते हैं|
आपका-हमारा कितना जन्म हुआ, आपलोग नहीं जानते हो| बस, अंतर यही है| भूल जाते हो इस जन्म में| इसलिए कि हमारा अभ्यास है| कृष्ण कह चुके हैं- हमलोग वही काम करने के अभ्यस्त हैं| वही काम करते हैं बार-बार- जन्म लेते हैं, शादी करते हैं, घर-मकान बनाते हैं, बच्चा-बच्ची होता है, पढ़ाते हैं- फिर उसके चक्कर में उम्र निकल जाती है- बूढ़े होते हैं, मर जाते हैं| फिर कमवा यही करते हैं| इसको कहे हैं अष्टावक्र- यह अभ्यास है हमारा, जन्मोंजन्म का अभ्यास| इसलिए इसको हम भूल नहीं रहे हैं| संसार में काम करते-करते इस अभ्यास को तोड़ दो| गुरु जो ध्यान कराता है, इसी अभ्यास को तोड़ने के लिए| जो साधु बने हैं, संन्यासी बने हैं बस उस अभ्यास को तोड़ रहे हैं कि बहुत हो गया- अब और नहीं|
भगवान् कृष्ण कहते हैं कि जब मेरा यहाँ पर आगमन हुआ- अवतार लिया पाप का नाश करने के लिए, सब देवता अवतार लेने लगे| लेकिन चन्द्रमा का लड़का नहीं आना चाहता था| ब्रह्मा ने कहा कि नहीं, तुम भी जाओ| तुम्हारा बहुत उपयोग होगा- सबलोग गए| तो कहा कि हम जायेंगे, लेकिन अल्पकाल के लिए| हमारी इच्छा नहीं है कि स्वर्ग छोड़कर जायें| कहा कि ठीक है, अल्पकाल के लिए ही जाओ| ऐसा काम करके आओ कि दीर्घकाल तक उसका स्मरण करा जाये| कहा कि ठीक है, मैं जाऊँगा अल्प काल के लिए| लेकिन कृष्ण के ही परिवार में जाऊँगा| बहुत नजदीकी, हमारे लिए सुनिश्चित कीजिये ऐसा ही गर्भ..| उन्हीं के नजदीक मैं रहूँ, उन्हीं से पढ़ाई-लिखाई करूँ, विद्या सब सीखूँ और उनका काम कर दूँ! कृष्ण कहे कि चन्द्रमा का वही लड़का अभिमन्यु बनकर आया- मेरी ही बहन के गर्भ से| लेकिन जब से गर्भ में आया, उसका पालन-पोषण मेरे ही घर पर हुआ| उसको शिक्षा-दीक्षा भी मैंने ही दी|
आपलोग नहीं जानते हो, अभिमन्यु के गुरु भी कृष्ण ही थे| अब बताओ, वह तो चेला भी था| कृष्ण ने कहा कि उसकी शिक्षा-दीक्षा, विवाह भी मैंने ही कराया राजा विराट की लड़की से| उत्तरा वही थी न! कौन्डिल्यपुर, जहाँ हमारा आश्रम बना है, रुक्मिणी जी का मंदिर है| वहाँ लेकर गए हैं कृष्ण| कहे कि अभिमन्यु की शादी मैंने करायी, पढ़ाया-लिखाया भी| क्या मैं जानता नहीं था? अरे जानता तो था, लेकिन मैं इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता था|
तो देखो सभी लोग अपना रिजर्वेशन कराकर चलते हैं| आपलोग भी चलते हो| यहाँ से कोई दिल्ली का रिजर्वेशन कराकर जायेगा- कोई बिलासपुर तक ही करा लेगा| रास्ते में और बहुत सारे स्टेशन पड़ते हैं, कहीं उतर जायेगा| तो ट्रेन में जो तुम्हारे बगल में बैठ जायेगा, उसको पकड़ लोगे कि नहीं-नहीं, हम छोड़ेंगे नहीं| चले चलो वहाँ तक| पकड़ लोगे? लेकिन हमलोग वही करते हैं| अष्टावक्र समझा रहे हैं कि पति-पत्नी, लड़का-लड़की- सांसारिक सम्बन्ध जो है संयोग मात्र है| जो जहाँ तक अपना रिजर्वेशन कराकर आया है, वहाँ तक जायेगा| स्टेशन आने पर तुरंत उतर जायेगा- टाटा बोल देगा| और तुम नहीं जानते हो, वहाँ से वह सीट खाली नहीं रहेगी| फिर रिज़र्व कर दिया जायेगा दूसरे के लिए| फिर उस जगह पर कोई न कोई आएगा| बस तुम समझते नहीं हो, कोई नहीं है अपना| यह सृष्टि का नियम है| इसी को अष्टावक्र कहते हैं कि तुम्हारा कोई है नहीं| जबरदस्ती क्यों समझ रहे हैं? क्यों नहीं अतीत से अपना सम्बन्ध तोड़ लेते हैं? इसी को कहते हैं अभ्यास| इसीलिए गुरु ध्यान की विधि देता है कि ध्यान से, साधना से, सत्संग से इस अभ्यास को तोड़ो| संसार में काम करते रहो- जनक की तरह निर्लिप्त रहो| ‘हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ ||’ इनका कोई असर न पड़े आप पर| निर्लिप्त होकर रहो|
दान क्यों देते हैं? दान देने का महत्व हमारे लिए केवल यही है कि हमारा मोह ख़त्म होता है| हम बड़ी कठिनाई से पैसा कमाते हैं| चोरी, डकैती, नौकरी, दुकानदारी, खेती, व्यापार, विभिन्न तरह का काम जो करते हैं- सबका उद्देश्य केवल एक ही है पैसा कमाना| अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा जब हम दान देते हैं तो उससे हमारा मोह भंग होता है| आकर्षण टूटता है| देखो, हमने आपलोगों को जो डिवाइन सीक्रेट साइंस दिया है, उसका प्रयोग हमलोग केवल करते हैं कब? जब किसी पर कोई कष्ट आ जाता है, तब याद पड़ता है| लेकिन हमने यह दिया है कि रोज़ इसका अपने में अभ्यास करो| यह अभ्यास जब अपने में करोगे रोज़, तब एक काम होगा- आप निरोग रहोगे| संसार से ममता टूटेगी| आपमें तेज आएगा- आपकी विघ्न-बाधाएं स्वतः दूर होंगी| भूत-प्रेत, आल-जाल, ग्रह-नक्षत्र जो भी हों- सब विघ्न- बाधाएं दूर होंगी| इस संसार में तेजोमय होकर रहोगे और तेजोमय ढंग से अपना काम करके इस संसार को विदा करोगे| राम-राम कहते हुए निकल जाओगे| लेकिन हमलोग यह नहीं करते हैं, भूल जाते हैं यह क्यों दिया गया! जैसे ही कोई आता है हमारा कष्ट यह है, वह है, वह है- तुरंत लगते हैं फिर हाथ घुमाने| डिवाइन को तो हमलोग कहते हैं कि इसको एक नशा बनाओ| जो नशा डिवाइन में, वो नहीं है वाइन में| जब डिवाइन याद हो गया, वाइन भुला गया| वाइन का मतलब केवल शराब ही नहीं है, संसार का जो भी नशा है- वाइन है| संसार में विभिन्न प्रकार के नशाओं में हम फँसे हुए हैं- वाइन में| यदि वह नशा हमसे छिनता है तो हम दुखी हो जाते हैं| और बच्चा, अपनी ज़िन्दगी में हम जो उतार लिए हैं- देख लिए हैं, वही कहते भी हैं| तुमलोग कहोगे कि गुरुजी! परउपदेश कुशल बहुतेरे|
हमको यह कहना नहीं चाहिए, ऐसा इस पृथ्वी पर संसार में शायद ही कोई होगा- जिसका लड़का दून स्कूल से पढ़-लिखकर आया, जिसकी एजुकेशन पर इतना पैसा खर्च किया गया हो- मेरे सामने आ गया काल, लेने उसको| एक-दो दिन पहले मैंने कह दिया कि तुम्हारी मृत्यु फलाना दिन को हो रही है- इतना बजकर इतने मिनट पर| परमात्मा नहीं बचाएगा| आज तक उसकी माँ और भाई डरते हैं कि न-न, ये कुछ कहेंगे| दूर रहो- दूर| देखते नहीं हो, दूर-दूर रहते हैं| और महाकाल ने आकर पूछ लिया हमसे| कहा कि मैं ले जाना चाहता हूँ| कब? कहा कि फलाना दिन- इतने बजे| ‘तो ले जाओ, ठीक है! काम ख़त्म हो गया?’ कहा कि हाँ, हो गया|
तो क्या कृष्ण से नहीं पूछा होगा, बोलो| क्या राम से नहीं पूछा होगा- दशरथ को ले जाते वक्त? जब बड़े लोगों के यहाँ आता है तो परमिशन लेना पड़ता है| जैसे सीबीआई को मामूली केस करने के लिए भी ऊपर से परमिशन लेना पड़ता है- पूछना पड़ता है| यह तो प्रैक्टिकल हमने देखा है- महाकाल आया है कि स्वामी जी, मैं ले जाना चाहता हूँ| क्यों भाई, अब क्यों पूछ रहा है! उसका रूटीन है| और उसके बाद मैं खुद गरुड़ पुराण मँगाकर उपदेश देने लगा| पर हमारा उपदेश कौन सुनेगा उस समय! लेकिन मैंने दिया|
तो देखो गुरु का काम है, तुमको वह उपदेश दे कि अन्दर से विरक्त हो जाओ- बाहर से संसार में काम करो| इसीलिए भगवान् कृष्ण गीता में कहे हैं- ‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः’ (3.20) अर्थात् जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे| जनक का ही नाम लिया है बस| हम साधु बन सकते हैं दाढ़ी बढ़ा-बढ़ाकर, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि हम अपनी वृत्तियों का परित्याग कर दें| संसार छोड़ देना आसान है, वृत्तियों का परित्याग करना बड़ा टफ है| अष्टावक्र यह ध्यान दिलाना चाहते हैं| हम संसार छोड़कर चले जायें, दाढ़ी बढ़ा-बढ़ाकर साधु हो जायें लेकिन हमारी चोरी छूट जाये, हमारी सांसारिक वृत्ति- काम- क्रोध- लोभ- मोह- अहंकार छूट जाये- क्या संभव है? नहीं| लोग कहते हैं कि हम यह-यह करेंगे तो आत्मा मिल जाये| यहाँ पर अष्टावक्र कहते हैं कि आत्मा को ही प्राप्त कर लो- सब अपने आप मिल जायेगा| अष्टावक्र इसका यहाँ थोड़ा उलटा कह रहे हैं|
तो चलो, यह बात समझ लो, डिवाइन सीक्रेट साइंस जो दिया गया है- वह नशा बना लो| जहाँ हो, घूमते-फिरते अपने में उतारते रहो| जब तुम यह अपने में उतार लोगे, तुम्हारा शरीर ही डिवाइन हो जायेगा| क्योंकि वह प्रकाश ही है| तुम प्रकाशित हो जाओगे- यू विल बी एनलाइटेन्ड| तुम देखोगे कि तुम्हारे साथ कोई घटना घटने वाली है तो वह आकर पूछेगा- यह होने वाला है, क्या करूँ? मैं चलूँ!
तुम देखते हो, गांधारी को श्राप देने के पहले कृष्ण से परमिशन लेना पड़ता है| गांधारी कहती है कि कृष्ण! मैं तुझे श्राप देना चाहती हूँ| यह कथा में केवल सुन लेते हो! क्या कृष्ण कहे कि न-न फुआ, मत श्राप दो| कहा कि श्राप दो- फुआ| रिश्ता नहीं भूले, कहा कि फुआ! श्राप दो| वह श्राप देती है कि तुम्हारा खानदान नष्ट हो जाये| हमारा खानदान अठारह दिन में समाप्त हुआ, तुम्हारा अढ़ाई घड़ी में हो जाये| तुम भी व्याध ही के द्वारा मारे जाओ| और कृष्ण तुरंत कहते हैं कि स्वीकार किया, फुआ!
अरे ऐसा भी आदमी देखा है! उस समय भी रोते हुए नहीं, हँसते हुए कहते हैं कि फुआ! स्वीकार किया| कुंती बगल में खड़ी है, कहती है कि अब तो हद हो गई! फुआ है न, कुंती को नहीं बर्दाश्त हो रहा है| कही कि अपनी जिह्वा पर तो नियंत्रण करो अब| बहन! बंद करो, बहुत हो गया| लेकिन देखो, कृष्ण यह नहीं कहते हैं| कहते हैं कि छोड़ दो- फुआ! इन्हें जो-जो देना है, दे देने दो| आज मैं लेने के लिए तैयार हूँ| अंतर यही है|
हमलोग भूत-प्रेत ग्रह-नक्षत्र के जो चक्कर में पड़े हैं, दीक्षा में जो दिया गया है मन्त्र, हरदम उसका स्मरण करते रहो- चौबीस घंटा| चलतं फिरतं करतं ध्यानं- करते रहो| दूसरा- जो डिवाइन सीक्रेट साइंस सीखे हैं, उससे अपने को एनलाइटेन करते रहो| तुम पर किसी ग्रह-नक्षत्र का असर नहीं होगा| हरदम मुस्कुराते रहोगे| और परमानेंट गति- परमगति जो कराकर आया होगा- वह यदि चाहेगा कि उसको स्वीकार कर लें, तो वह स्वीकार कर सकता है| यदि उसे अस्वीकार करना चाहे तो अस्वीकार भी कर सकता है| लेकिन अक्सर महापुरुष, बुद्ध पुरुष जो हैं स्वीकार कर लेते हैं| कृष्ण का चेहरा कभी गंभीर देखा है! फुआ श्राप दीं, रोने लगे? बोलो| भगिना गया तो रोने लगे? नहीं न! चूँकि अब उसमें भी मस्त हैं- तुझे जो करना है सो कर!
यह लीला है| इसी को लीला कहते हैं| जब यह समझ लोगे, तुम्हारा भी जीवन ‘लीला’ होगा| जीवन ऐसा जीओ कि लीला हो जाये और लीला ऐसे करो कि जीवन हो जाये| फिर तुम्हारा जीवन सफल हो जायेगा| बस आज इतना ही.. धन्यवाद|
सद्गुरुदेव की जय !
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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