चारों वर्णों की एकात्मता का, ‘सद्विप्र’ का पर्व है होली
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||श्रीसद्गुरवे नमः||
रंगों के महापर्व होली पर विशेष….
चारों वर्णों की एकात्मता का, ‘सद्विप्र’ का पर्व है होली
दिनांक 8.3.2012 को सद्गुरुधाम आश्रम, डुमरी में होली के अवसर पर सदगुरुदेव के आशीर्वचन
अखण्ड मंडलाकारं…..
प्रिय आत्मन्,
आज होली है| होली के नाम पर हमलोग केवल हुड़दंगयी कर लेते हैं| तुमलोग यह नहीं जानते हो, तांत्रिक साधना के लिए साल भर के लिए आज के दिन का इंतजार करते हैं| होली के पर्व पर तंत्र साधना, लक्ष्मी साधना, मन्त्र साधना का बहुत अच्छा मुहूर्त्त रहता है| लेकिन इसको हमलोग अक्सर भूल जाते हैं| इनका आविष्कार ही होली पर तंत्र से हुआ है| पूछोगे कि कैसे? होलिका बहुत बड़ी तांत्रिका थी, सिद्ध थी| तंत्र साधना को सिद्ध करके उसने एक चादर पाई थी कि उसको ओढ़कर यदि अग्नि में भी बैठेगी, तब भी वह नहीं जलेगी| होलिका हिरण्यकश्यप की बहन थी| इसके बारे में हम नहीं कह रहे हैं, आपलोग जानते ही हो| आज ही के दिन इन्होंने अपनी बहन से कहा कि बहन! जब तुमको यह सिद्धि है, तब तुम प्रह्लाद को जला दो| देखो, तंत्र तो ठीक है लेकिन भक्ति बड़ी दुर्लभ है|
भगवान् कृष्ण भी गीता में कह रहे हैं कि शुद्ध बुद्धि और निष्काम प्रेम से परमात्मा मिलता है| जिसके लिए यह फिजिकल बॉडी, शरीर केंद्र है, जो शरीर के इर्द-गिर्द घूम रहा है; वही शूद्र है| जो इसी को देख रहा है कि नहीं, यह शरीर ही सुन्दर है, इसीका रख-रखाव हम करें| खाएँ, पीयें और सो जाएँ| अच्छा पहनें, अच्छा खाएँ- शरीर को केंद्र-बिंदु बना लिया- तो समझो कि वह शूद्र है| और मन जिसका केंद्र-बिंदु बन गया; सोच रहा है कि मन से हम यह करें, वह करें; मन के इर्द-गिर्द जो घूम रहा है, वह धन के इर्द गिर्द घूमने लगेगा| और धन के लिए वह सब कुछ कर देगा| पद, पैसा, प्रतिष्ठा सब मन के लिए ही न चाहिये? पद-पैसा-प्रतिष्ठा- यह मन का ही खेल है| लेकिन भगवान् कृष्ण को देखो, उनको अंतर पड़ रहा है क्या! कृष्ण को तो कहीं का राजा ही नहीं बनाया गया| और नियुक्ति भी हो गयी है किसी की ड्राइवरी में| अर्जुन का रथ हाँकने लगे| कोई पद भी नहीं मिला| राजा बने नहीं, पद मिला नहीं| प्रतिष्ठा की आकाँक्षा भी नहीं की| गाय चराने लगे| लेकिन मन के इर्द-गिर्द नहीं घूमे|
हमलोग यदि मन को केंद्र बिंदु बना लेते हैं तो मन सुख चाहता है; तब हम पद, पैसा और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमेंगे| हम वैश्य कहलायेंगे| और जब मन से थोड़ा ऊपर उठ जायेंगे, ध्यान-धारणा करने लगेंगे, आत्मा के नजदीक पहुँचने की कोशिश करने लगेंगे, अपने को दाँव पर लगा देंगे; पद, पैसा, प्रतिष्ठा को दाँव पर लगायेंगे- तब हम क्षत्रिय बन जायेंगे| आत्मदर्शी हो जायेंगे| और आत्मदर्शन करके जो एक कदम आगे बढ़ जायेगा, परमात्मा में मिलन होने लगेगा तब वह हो जायेगा- ब्राह्मण! और यह होली का पर्व चारों वर्णों का, सद्विप्र का रूप है|
होली पर सुबह से लोग हुड़दंगयी करते हैं| ढेला, मिटटी, ईंटा फेंकना, गाली-गलौज करना- यह क्या है? और फिर जब कोई बुरा मानने लगता है तो कह देते हो, बुरा न मानो होली है! तो यह हुड़दंगयी- सुबह यानि प्रभात का, पहला चरण का काम शूद्र का है| इसके बाद जब कोई पूआ-पकवान खाने लगते हो, नया कपड़ा, मिठाई खरीदने लगते हो; तब यह दूसरा चरण वैश्य का है| फिर अबीर लेकर जब एक दूसरे को लगाने लगते हो, अंक से मिलने लगते हो, ऊँच-नीच का भेदभाव सब भूल जाते हो- तब तीसरा चरण होली का आता है दोपहर के लगभग; यह चरण क्षत्रिय का है| चौथे चरण में जब स्नान करके चकाचक कपड़ा पहन कर चल देते हो और अपने बड़े बुजुर्गों को, बाप को, पितामह को, दादा को तिलक लगाते हो या मंदिरों-गुरुद्वारों में जाकर या आश्रम में गुरु के चरण पर, चरण-पादुका पर तिलक लगाते हो, तब बड़े बुज़ुर्ग, दादा-बाबा या गुरु खुश होकर तुमको आशीर्वाद देते हैं, तिलक लगाते हैं- त्रिकुटी पर| और जब वह अपना अंगूठा रखते हैं तुम्हारी त्रिकुटी पर कि तुम्हारी त्रिकुटी खुल जाये! तुम विप्र बन जाओ| बहुत दिन घूमे हो न, अब तुम ज्ञानी बन जाओ- तब यह चौथा चरण जो है ब्राह्मण का है| तो देखो, चार चरण होली के हो गए! लेकिन तुमलोग एक ही चरण में रह जाते हो|
तो यह चार चरण होली में हैं और सद्विप्र के भी चार चरण हैं| यहाँ भी फोर इन वन हो गया! लेकिन तुम तो एक ही चरण समझते हो! हड़दंगई में एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन भी पटियाला चले गए| यहाँ के नेताजी से दुश्मनी थी, बदला लेना था तो सोचा कि चलो, होली में नेताजी से ले ही लें बदला! तो रोड का कोलतार उठाकर नेताजी के मुँह पर लपेट दिया| कहा कि अब नेताजी बैठकर छुड़ावें- चमड़ा तो छूट ही जायेगा न इनका! पहला चरण यह हो गया| दूसरे और तीसरे चरण में नहीं गए मुल्ला| चौथे चरण में चले अबीर ले कर कि जाकर देखें जरा नेताजी को| फिर यदि कुछ कहा तो कह देंगे कि आप तो हिन्दू हैं न| बुरा न मानो होली है! नेताजी बैठकर मालपुआ वगैरह खा रहे थे| मुल्ला को देखकर मुस्कुराने लगे| कहा- मुल्ला क्या हुआ? मुल्ला बोले- हम तो कोलतार लपेट कर गये थे, आपका चेहरा साफ़ कैसे हो गया! कहा- देखो, वह जो चेहरा रखा है, कहीं उस पर तो नहीं कोलतार लिपटाए थे? तो कहा कि अच्छा! इसका मतलब? अब अगर इस पर हम अबीर लगायेंगे तो कैसे यह उम्मीद करें कि आपका यह चेहरा ओरिजिनल है! नेताजी बोले- अरे पागल! नेता का ओरिजिनल चेहरा यदि पकड़ लिया तो मैं नेता किस काम का? हमसे बदला लोगे? नेता का ओरिजिनल चेहरा कोई नहीं पकड़ सकता है|
तो यह चार चरण हैं होली पर| लेकिन इस चौथे चरण पर तुमलोग ध्यान नहीं देते हो| बचपन में इसी चौथे चरण के लिए हमारी माँ-दादी कहती थीं कि रुमाल में अबीर ले लो, जाओ पहले मंदिर में जाकर शिवजी को चढ़ा आओ| पहले देहात में मंदिर होता था न! अगर हमारी जन्मभूमि तुमलोग कभी जाओगे तो देखोगे कि दरवाजे के बाहर ही शिवजी का मंदिर है| तुम तो कहोगे कि उस पत्थरवा को यह क्या चढ़ावें यार! यहाँ पर उस पत्थर से मतलब नहीं है, मतलब तुम्हारी श्रद्धा से है कि तुमने देव जानकर उनको कुछ चढ़ा तो दिया! तो जिस भाव से, श्रद्धा से तुमने चढ़ाया, उसी के अनुसार तुमको आशीर्वाद मिल जायेगा| फिर कहा जाता था कि अपने दादाजी के पैर पर जाकर रख आओ| सबसे पहले दादाजी, फिर छोटे बाबाजी, फिर ताऊजी, चाचाजी- यानि उम्र के अनुसार जाकर रखो| वे लोग भी अपना आशीर्वाद देते थे| इसके बाद अपने लोगों के साथ जो करना हो करो| यह सब हमारी सभ्यता है, संस्कृति है जिसको हमलोग अब भूल रहे हैं, टीवी में खोजने लगे हैं|
तो देखो, होलिका भी तांत्रिक थी और हिरण्यश्यप भी| प्रह्लाद भक्त था| तुम कहते हो भक्ति- यह भक्ति क्या है? शरीर के इर्द-गिर्द रहना यह शूद्र वाला काम है| शरीर को ठीक रखने के लिए जो भी तुम करते हो, उसको कहते हैं- योगासन| उठते-बैठते हो, नाक दबाते हो न! और मन के इर्द-गिर्द जो भी तुमलोग करते हो- उसको जाप कहते हैं| जाप- यानि अजपा जाप|‘अजपा जपे सो जाने भेऊ’ आपलोगों को यह बताया गया है| जाप मन से होता है| यह दूसरा चरण यानि तंत्र जो है तन और मन तक ही निहित है| तीसरा चरण होता है ध्यान| इसको कहते हैं योग| यह आत्मा के तल पर होता है| और चौथा चरण है- भक्ति| भक्ति माने परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण| टोटल सरेंडर टू गॉड| अर्थात् मैं अब कुछ नहीं हूँ| रामायण में दशरथ जी ने कहा है-
‘नाथ सकल संपदा तुम्हारी| मैं सेवकु समेत सुत नारी||’
जब दशरथजी श्रीराम की शादी कराकर बारात सहित अयोध्या वापस लौटे हैं, और विश्वमित्र उनसे विदा लेना चाह रहे हैं, चलने लगे हैं; तब अपने गुरु विश्वमित्रजी के प्रति दशरथजी कहते हैं कि ‘नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी|’ कहा कि अच्छा! और तुम? सब सम्पदा तो मेरी हो गयी, राज्य तो मेरा हो गया! लेकिन तुम- दशरथ? तब दशरथ कहते हैं-‘मैं सेवक समेत सुत नारी|’ यानि आप यहाँ रहिये| हम आपकी सेवा करेंगे| यह राज्य, सकल सम्पदा- गुरुदेव, यह सब आपका है! मैं तो आपका सेवक हूँ| अपनी पत्नी और पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ|
तुम तो कह दोगे कि गुरुजी, हम आपके सेवक हैं! लेकिन जब पूछेंगे कि तुम्हारा लड़का? तो कह दोगे कि उसका हम नहीं जानते| और तुम्हारी पत्नी? कहोगे कि उससे तो हमारा पटता ही नहीं! यहाँ से घर जायेंगे, तो वहाँ से निकाल दिए जायेंगे न!
लेकिन दशरथजी का पत्नी और पुत्रों पर पूर्ण नियंत्रण है, कण्ट्रोल है| इसलिए वह कह रहे हैं- ‘मैं सेवक समेत सुत नारी|’ यही भक्ति है| यानि चौथा चरण| और यह चौथा चरण ज्यों ही होगा, भक्ति का जन्म हो जायेगा| और भक्ति का जन्म जब हो जायेगा, तब उस घर में परमात्मा और राम का अवतरण हो जायेगा|
प्रह्लाद भक्त है, परमात्मा के तल पर है| भक्ति का प्रतीक है प्रह्लाद और होलिका तांत्रिक है| अभी तन और मन के तल पर ही खड़ी है| तांत्रिक लोग शरीर और मन के स्तर पर रहते हैं| तो बताओ, तांत्रिक शरीर को ही न जलाएगा? इसीलिए जब होलिका प्रह्लाद को लेकर बैठ जाती है, प्रह्लाद कहता है कि हे परमात्मा! मैं तो तुमको समर्पित हूँ| यह शरीर जल जाये तो भी क्या हर्जा है! इसको जल जाने दो न!
देखो प्रह्लाद यह नहीं कह रहा है कि हे परमात्मा, इस शरीर को बचा दो| वह तो कह रहा है कि मैं तो तुम पर समर्पित हूँ| इस शरीर को हमारे पिता और फ़ूआ जलाना चाहते हैं तो इसको जल जाने दो| इनकी बात मान लो| तो परमात्मा भी कहता है कि तूने यह मुझे समर्पित कर दिया है न, तो अब इसका क्या किया जाये- यह सोचना मेरा काम है, न कि तुम्हारा| यहाँ से आगे अब तुम्हारा काम ख़त्म|
अग्नि से ऊपर वायु तत्त्व है| वही अग्नि को जलाता भी है| तो जिस वायु से अग्नि की लपट ऊपर उठीं, उसी वायु ने होलिका की चादर को उड़ा दिया और वह प्रह्लाद पर आ गयी| जब वरदान है तो उस चादर की अपनी कीमत तो वही रह ही जाएगी न! जो उसे ओढ़ेगा, नहीं जलेगा| इसलिए भक्त की रक्षा में पवन देव आ जाते हैं और इतनी तेज आँधी चली कि वह चादर होलिका के शरीर से उड़कर प्रह्लाद को घेर लेती है और फिर वही पवनदेव उस अग्नि को और धधका भी देते हैं| धू-धू कर होलिका उसी अग्नि में जल जाती है और प्रह्लाद हँसता हुआ बाहर निकल आता है| उसका पिता हिरण्यकश्यप कहता है कि चाण्डाल! अरे तू फिर निकल आया! हमारी बहन को जला दिया?
इसीलिए उस दिन से हमलोग हर वर्ष होलिका जलाते हैं इस भाव के साथ कि उस पापमयी होलिका- मन और शरीर को हम इस अग्नि में जला रहे हैं| अपनी आत्मा को उस परमात्मा में सौंप रहे हैं और तब वह भक्ति रूपी प्रह्लाद हँसते हुए बाहर आ जायेगा| इसलिए इस होलिका को तुमलोग ठीक से समझ लो| प्रह्लाद भक्त है, इसलिए वह जला नहीं, हँसता हुआ बाहर आ गया| तो सद्विप्र के यह जो चार चरण हैं- फोर इन वन; होली के दिन आज पकड़ लो और प्रह्लाद की तरह उस परमात्मा को उपलब्द्ध हो जाओ| जब यहाँ पर गुरुजी के चरण में चढ़ाकर, उनसे तिलक-आशीर्वाद लेकर जाओगे तो यह अबीर घर में अपने माता-पिता के चरणों में भी रखो| उनका भी आशीर्वाद लो| अपने पति का भी मान करो| उनके चरणों में रखो| आशीर्वाद लो| यदि नहीं, तो उनसे चरण छुआ लो| उनको आशीर्वाद दो| एक को देना चाहिए| इस तरह से जब अपने घर में एक दूसरे को देखोगे प्रेम से; तो यह पर्व तुम लोगों के लिए नया जीवन लेकर चला आयेगा| एक नया वातावरण आ जायेगा ख़ुशी का, प्रेम का, आनंद का| तब पूरे साल का मारपीट-झगड़ा- चाहे वह परिवार में हो या आस-पड़ौस में; वह सब तुम भूल जाओगे| और फिर आज से कर दोगे एक नयी शुरुआत| इसलिए हमारे यहाँ के ऋषियों ने चारों वर्णों को मिलाकर यह व्यवस्था कर दी, कि क्यों न चारों को मिलाकर एक कर दिया जाये! और इन चारों चरणों को मिलाकर जब ठीक-ठीक यह पर्व मनाओगे, तब तुम एकदम नए होकर निकलोगे| एक नई उमंग से, नयी ख़ुशी से, नए जोश से भरकर निकलोगे| पूरे साल यही कहोगे कि बुरा न मानो होली है! और पूरे साल तुम किसी की बात का बुरा नहीं मानोगे| कोई यदि कड़क बोल भी देगा, गाली भी दे देगा- तो हँस कर निकल जाओगे कि चलो, जाने दो| तुम बुरा नहीं मानोगे|
अरे, बुरा मान क्यों लेते हो! देखो इसीलिए होली का त्यौहार बनाया गया है कि आज तुम यह याद कर लो- बुरा न मानो| क्योंकि- ‘जाकर जौन स्वभाव, छूटे न जीव से|’ जिसका गाली देने का स्वभाव है, वह गाली ही देगा| इसमें बुरा मानने की क्या बात है!
एक महात्मा थे- स्वामी अभेददासजी| यहीं डुमरी में, गंगा तट पर रहते थे| देखा होगा, यहाँ पर उनका आश्रम बना है, वहीं रहते थे| एक बार अकाल पड़ गया| अपने शिष्यों से पूछा कि कौन-कौन अपना जीवन दान देगा? तीन शिष्य आगे बढ़े| कहा कि सोच लो| कहा कि नहीं, गुरुजी! हम अपना जीवन दान देंगे| स्वामीजी ने कहा कि देखो, अकाल पड़ा गया है| तुमलोग भूखे को भोजन, नंगे को चीर बाँटो| कहा- गुरुजी! मुफ्त में.. भिक्षाटन से ही? कुछ दीजिये, तब न! गुरुजी ने तीनों को तीन बटलोही देकर कहा कि जब तक निकालते रहोगे, तब तक गरमागरम भोजन इससे निकलता रहेगा| लोगों को वही तुमलोग खिलाना|
गुरुजी से आज्ञा लेकर तीनों चल दिए| उनमें दो तेज थे, बुद्धिमान| एक जगह जाकर बैठ गए| कहा कि चलो भाई, यहीं पर झोंपड़ी लगा लो, आश्रम बना लो| जो आ जाये, उसको खिलाते जाओ| तो आश्रम भी बन गया, फिर दोनों ने सेवक-सेवादार भी रख लिये| सेवादार रख ही लेते हैं लोग| अब सेवादार खिला रहे हैं और बाबा आराम से मस्ती कर रहे हैं| यही होता भी है सभी जगह!
तो महात्माजी के तीनों शिष्यों में से दो जो पढ़े-लिखे थे, दोनों चालाक निकले| आश्रम बनाकर, सेवादार नियुक्त करके आराम से रहने लगे कि हम तो लोगों को सेवा कर रहे हैं| खिला रहे हैं न! लेकिन उनमें भी तीसरा जो था, वह बोला कि नहीं, गुरुजी ने कहा है कि पात्र लेकर गाँव-गाँव घूमो| लोगों को खिलाओ| वह जगह-जगह घूमता था, खिलाता था| लोगों की सेवा में लगा रहा- बिहार से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक| लेकिन उस बेचारे का न कहीं आश्रम बना, न सेवादार| जब अकाल ख़त्म हुआ, गुरुजी ने तीनों को सन्देश भेजा| वापस बुलाया| तीनों ने अपने-अपने काम का ब्यौरा रखा| गुरुजी ने कहा- ठीक!
गुरुजी समय-समय पर प्रवचन देते तो अपने तीसरे शिष्य की, उसके सेवा भाव की प्रशंसा करते कि इसने बड़ी मेहनत की है, बड़ा परिश्रम किया है| यह प्रशंसा का पात्र है| इससे वे दोनों जो चालाक थे, खड़े हो गए| कहा- गुरुजी, हद हो गयी! यह तो अत्याचार है| अब आप पर अविश्वास प्रस्ताव लागू होगा| पूछा- क्या हो गया, बेटा| क्यों इस बूढ़े पर अविश्वास प्रस्ताव ले कर आ रहे हो? कहा- हम दोनों ने आश्रम बना दिए, सेवादार भी रख दिए| सेवा के लिए आप हम लोगों का नाम नहीं लेते हैं और यह जो भिखमंगे की तरह गाँव-गाँव घूमता रहा यहाँ-वहाँ, हरदम इसी का नाम लेते हैं!
कहा- ठीक कह रहे हो| सेवा का काम तो तुमलोगों ने भी किया है| इसके लिए तुमदोनों भी धन्यवाद के पात्र हो| लेकिन तुम एक जगह बैठ गए| जो रोगी-अपाहिज, गरीब-दरिद्र अपने घर से नहीं निकल सकते हैं- वे तो अपने घर ही में न मर जायेंगे, सिमटकर? तुमने उनको तो मरने के लिए भगवान् भरोसे छोड़ दिया न! अक्सर घर से निकलकर आते हैं चालू-पुर्जा लोग| यानि तेज़ तर्रार आदमी| जो अपने घर से निकल ही गया- वह तो अपना भरण-पोषण कर ही लेगा न! जो अपने घर से निकलना जानता है, वह अपना भरण पोषण कर लेगा| सरदार घर से निकलना जानते हैं| इसलिए वे पूरे भारत में, पूरे मुल्क में ही नहीं; पूरी दुनिया में छा गए| अब इनको क्या खिलाना है? ये तो दूसरे को खिला देंगे| लेकिन दुरूह जंगलों में, देहातों में जो हाथ पर हाथ रखकर बैठा है; बाहर निकलना ही नहीं जानता है- जिसे मरने के लिए छोड़ दिया गया है; वहाँ तक यह पहुँचा है| उनकी आँखों में झाँका है, उनके पेट को टटोला है, उनको जीने का अवसर दिया है| इसलिए इसको मैं धन्यवाद दे रहा हूँ| यह मेरी प्रशंसा का पात्र है|
हमने भी अपने आचार्यों को ‘दिव्य गुप्त विज्ञान’ दे दिया है बटलोही| यह ख़त्म नहीं होने वाला है| लेकिन होली के पर्व पर मैं यह कह रहा हूँ कि यदि तुम भी घर में, आश्रम में ही बैठ जाओगे- जो आयेगा उसको ही दोगे; तब उनका क्या जो जंगलों में बैठे हैं? आज भी नंगे रह रहे हैं! आज भोजन बिना कोई नहीं मर रहा है| भोजन सरप्लस हो गया है| लोग मानसिक बीमारी से मर रहे हैं| आज का आदमी मानसिक रूप से रोगी हो रहा है| मानसिक खुराक का अभाव हो गया है| भोजन सरप्लस हुआ है, लेकिन मानसिक खुराक घट गयी है| उनके बारे में भी सोचो बच्चा! क्या होगा उनका? अपने अपने घर में रह करके, आश्रम में सेवादार नियुक्त करके सोच रहे हो कि हमलोग कर देंगे?
तुमलोग भी कहोगे कि गुरुजी होली के टाइम में यह बड़ा गड़बड़ कह रहे हैं! देखो इस पृथ्वी पर कहीं भी कोई दुर्घटना घट रही हो- सबसे ज्यादा सेंसिटिव और इंटेलेक्चुअल यानि सबसे ज्यादा बुद्धिमान, संवेदनशील व्यक्ति वही होगा जो चाहे कहीं भी हो, यह समझ ले कि कहीं न कहीं इसमें दोष मेरा ही है! अन्यथा क्या कारण है कि मेरा हाथ वहाँ नहीं पहुँच पाया? यदि मैं वहाँ पहुँच जाता तो इस दुर्घटना को मैं रोक सकता था| इसलिए सर्वाधिक इंटेलेक्चुअल, सेंसिटिव आदमी उसमें भी अपने को कारण मान लेता है| अपना दोष देख लेता है| और सबसे दुष्ट और क्रिमिनल आदमी वह होता है जो देखता है कि बगल में किसी लड़की का बलात्कार हो रहा है तो कहता है कि इसमें मुझे क्या पड़ी है! मैं क्यों कुछ करूँ? जब हमारे साथ होगा, तब देख लेंगे| अक्सर आदमी यही कहता है| बगल में, पड़ौस में डकैती पड़ रही हो तो कह देगा कि इससे मुझे क्या? मेरे यहाँ जब पड़ेगी तो मैं देख लूँगा| यह आदमी किसी काम का नहीं है बच्चा!
यदि ऐसा होता तो गुरु गोविन्द सिंह के घर से कोई उनके लड़के को उठाकर नहीं ले गया था| और न ही किसी में यह क्षमता थी कि ले जाता| तो आज होली के दिन आज तुमलोगों को मैं यह याद दिला देना चाहता हूँ कि घर में बैठने से नहीं होगा| बाहर निकलो| निकलोगे, घूमोगे- तभी न होगा| महात्माजी के तीनों शिष्य निकले, लेकिन तुमलोग कौन सा काम करोगे? सेवादार नियुक्त करके आश्रम में बैठ जाओगे या गाँव-गाँव उस बंटोही को लेकर घूमोगे? आचार्यों को ही नहीं, हम तो सब लोगों को कह रहे हैं| दीक्षा में भी जब हम देते हैं साधना; तो कहते हैं कि साधना करना और औरों को भी कराना| साधना करने के लिये दूसरों को साधना के लिए प्रेरित करना- यह भी साधना का एक अंग है| यह शपथ लेते हो न! देखो, एक आदमी डिप्रेशन में आत्महत्या कर रहा हो और तुम्हारा हाथ वहाँ पहुँच गया; वह ध्यान की तरफ अग्रसरित हो गया, और जाने-अनजाने उसका जीवन बच गया तो तुम्हारा जीवन सफल हो गया| एक आदमी तक भी यदि तुम्हारा हाथ पहुँच गया, तो उस एक आदमी की रक्षा तो तुमसे हो ही गयी न! अब उसके साथ भी सैंकड़ों-अनंत जीवन हैं यार! पूछोगे कैसे? उसकी भी पत्नी होगी, बच्चा-बच्ची होंगे; फिर उनके भी तो बच्चे होंगे| न जाने कितने लोग उस पर आश्रित होंगे| ऐसे ही चलता जायेगा| ज़रा सोचो तो एक-एक आदमी से कितने जीवन जुड़े हैं! अनंत जीवन जुड़े हैं एक श्रंखला में| तो एक आदमी की रक्षा में, क्या अनंत जीवन का रक्षण नहीं हो गया? और जहाँ तुम्हारा हाथ नहीं पहुँचा और एक भी आदमी यदि आत्महत्या कर लेता है तो क्या उससे अनंत आत्महत्याएँ नहीं शुरू हो जायेंगी? अनंत जीवन नष्ट नहीं हो जायेंगे? इसलिए हमने भी तुमलोगों को यह दिव्य गुप्त विज्ञान रूपी पात्र पकड़ा दिया है| देखो यह आश्रम केंद्र-बिंदु है, जहाँ पर तुम रिपोर्टिंग कर सको| यानि चारों ओर से घूमकर रिपोर्ट कर दिया गया कि इस क्षेत्र में हम गए थे| तब हम कह देते हैं वहाँ वह गया है, तुम अपनी बटलोही लेकर उधर चले जाओ| एक ही क्षेत्र में चार-पाँच लोग मत घूमो| आश्रम तो एक केंद्र-बिंदु है, जहाँ चारों ओर से लोग तुमको खोजते हुए आ सकें| और, कोई उन भटके हुओं का पथ-प्रदर्शन करनेवाला बैठा हो| जो खोज रहा होगा, वह पता-ठिकाना पूछकर वहाँ पहुँच जायेगा|
इसलिए आज होली के दिन तुमलोगों से हम यही कहेंगे कि इस होली को चार चरणों में मानो| और जितने भी लोगों ने दीक्षा या दिव्य गुप्त विज्ञान लिया है, जहाँ तक जा सकते हो, जाओ| बाहर निकलो| काम करो| और जहाँ नहीं जा सकते हो, वहाँ अपने सिद्धासिद्धों को, आचार्यों को बताओ| जाने के लिए इन्हें धक्का दो| तो देखो, हमलोग जिनके वंशज हैं- उनके प्रति हमको सजग रहना चाहिए| अपना अवलोकन करना चाहिए कि हम लोग क्या कर रहे हैं! लगता है कि आचार्य लोग बड़े दुखी हो गए आज!
पंजाब के लोग भी यहाँ बैठे हैं| गुरुनानक के लिए भी गाँव-गाँव जाना क्या ज़रूरी था? अगर वह एक ही जगह, घर पर ही पर बैठे रहते तो भी उनका काम चल जाता| फिर भी वे निकले, घूमते रहे| ज़रूरत तो नहीं थी! फिर क्या वजह है? वजह वही है कि उनकी तृप्ति इसी में है| तृप्ति यानि मानसिक खुराक| और यही आजकल लोगों को मिल नहीं रहा है| भोजन सबको मिल जाता है| अरे, कुत्ता भी भोजन पा जाता है| पक्षी को भी मिल जाता है| लेकिन यह भोजन (मानसिक) तो नहीं मिल रहा है, जिसके चलते लोगों को फ्रसट्रेशन-डिप्रेशन हो रहा है, आत्महत्याएँ हो रही हैं| अभी सुना ही होगा, एम्स के डॉक्टर, आईएएस, आईपीएस आत्महत्या कर रहे हैं| इसलिए आज होली के दिन हम आपलोगों यही संकल्प दे रहे हैं कि आपलोग अपनी बटलोही को लेकर घूम लीजिये| सद्विप्र समाज का, सद्विप्रता का प्रचार-प्रसार कीजिये| आज बस इतना ही.. धन्यवाद|
सद्गुरुदेव की जय!
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‘समय के सद्गुरु’ स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज द्वारा प्रकाशित सद्गुरु टाइम्स पत्रिका से साभार….