भगवान् शंकर की पूरी काशी की यात्रा
|| श्री सद्गुरवे नमः ||
भगवान् शंकर की पूरी काशी की यात्रा
शिवत्व को, अपने आत्मस्वरूप को उपलब्ध होने के महापर्व ‘महाशिवरात्रि’ के अवसर पर विशेष….
मैंने निश्चय किया कि काशी, संग्रीला की घाटी, हिमालय की कुबेरपुरी (अलकापुरी) के साथ अन्तरिक्ष लोकों का भ्रमण किया जाए| इसके लिए यात्रा का प्रथम सूत्र काशी से ही हस्तगत हुआ| यदि कोई सूत्र हस्तगत हो गया या कोई परिचय मिल गया तो उत्तम है| अन्यथा अकेले अनजान व्यक्ति एवं स्थान पर भटकाव ज्यादा होता है| मेरा परिचय काशी के क्षेत्रपाल भैरवजी से हो ही गया था एवं गणपति जी से सामंजस्य भी| मैंने गुरु की स्तुति की| सहसा गुरु की आवाज़ कानों में गूँज उठी| तुम दिव्य काशी जाना चाहते हो| जाओ परन्तु किसी से कुछ भी माँगना मत| माँगना ही लघुता है| अपने स्वभाव में स्थिर रहना, जो प्राब्द्धानुसार मिल जाये उससे संतोष रखना ही राजवृत्ति है| गुरु हर समय शिष्य की मदद करता है|
मैंने गुरु की वंदना की| उनका, कबीर साहब का आशीर्वाद लिया और गुरु द्वारा प्रदत्त विधि से कारण शरीर में शरीर रूपी मंदिर से बाहर निकला| भैरवजी के साथ दिव्य काशी में प्रवेश किया| और देखते ही देखते विशाल शिव मंदिर सामने था| ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह मंदिर द्वादश कमलदल पर खड़ा है| सभी कमल दल पर अलग-अलग प्रकाश था| विचित्र आभायुक्त प्रकाश मंत्र-द्वार दिखाई पड़ रहा था| बाहर एकाएक श्वेत वस्त्र-श्वेताम्बर, गौर वर्ण, विशालकाय दिव्य पुरुष प्रकट हुए| उन्होंने प्रेम से झुककर अभिवादन किया| अपना परिचय दिया कि मैं नंदी हूँ| भगवान् शिव के द्वार पर बैठा रहता हूँ| उनके ज्योतिर्मय प्रकाश पर त्राटक करता हूँ| हठयोगी हूँ| भगवान् शंकर मेरे गुरु हैं| अतएव द्वार पर बैठकर मैं निरंतर उनकी सेवा में रहता हूँ| आँखों से त्राटक और कानों से उन्हीं का प्रणव सुनता हूँ| और जिह्वा से पंचाक्षर का जाप करता हूँ| भगवान् शंकर आपका इंतजार कर रहे हैं| आप अन्दर जाएँ| द्वार खुला है|
चन्द्रमा से कांतिपूर्ण प्रकाश सर्वत्र फ़ैल रहा था| मैं अंदर चला गया| कुछ देर के लिए सब कुछ भूल गया| जब स्मरण वापस आया तो देखता हूँ कि सामने नील वर्ण, विशाल वक्ष, ललाट, जटा-जूटधारी मनमोहक व्यक्ति पद्मासन पर बैठे हैं| मैंने नम्रतापूर्वक दण्डवत् करते हुए पूछा- “प्रभु! आप ही भगवान् शंकर हैं?” वे मुस्कुराकर स्वागत किये| मैंने कहा- “आपको मेरी तरफ से भी अनंत बार प्रणाम एवं स्वागत स्वीकार हो| हे प्रभु! माँ भगवती कहाँ हैं? आपका लोक अति सुन्दर और अनुशासित है| आपके कक्ष में आकर मैं भाव-विह्वल हो गया था|”
भगवान् शंकर- “ हे स्वामीजी! आपका काशीपति की तरफ से स्वागत है| आप यहाँ आकर सोच रहे होंगे कि शंकर श्मशान में नहीं हैं| विशाल भवन में हैं| शरीर में सर्पों की माला नहीं है| ये सब मात्र प्रतीक हैं| आप मेरी तरफ देख रहे हैं| मेरा शरीर पारदर्शी है| नील अर्थात् आकाश वर्णी है| नावों नाड़ियाँ स्पष्ट दिखाई पड़ रही हैं| ऊर्जा कुण्डलिनी मूलाधार चक्र से अनाहद चक्र में घेरा डाल कर ज्ञान गंगा अर्थात् सिर पर सहस्त्र-दल कमल ही ज्ञानगंगा है; जहाँ मैं हर समय रमण करता हूँ| वहाँ से सदैव अमृत झरते रहता है| जिसको सर्पिणी पीते रहती है| यह सर्प का कुण्डल है| अन्दर कुटस्थ से सहस्रार तक- ज्योतिर्लिंग है पर अनवरत ध्यान ही ज्योतिर्लिंग है| बाहर आँख खोलने पर भी वही दिखाई देता है| यही कारण है कि मेरे निवास-स्थल को काशी कहा जाता है| व्यक्ति की काया के मध्य में भी द्वादश दल कमल पर मेरी काशी है| जो साधक उस काशी का दर्शन कर लेता है, वह भी काशी में प्रवेश कर सकता है| मैं माया के मध्य में हूँ| तीन लोक मेरे नीचे हैं| तीन लोक हमसे ऊपर हैं| जो साधक गुरु कृपा से इस काशी में पहुँच जाता है उसे त्राटक मन्त्र देता हूँ| अर्थात् जिस महल में मैं रहता हूँ, वही शिवालय कहलाता है| उस निर्गुण-निराकार पर ब्रहम- जो उस परम ब्रह्म का प्रतिनिधि है- का ध्यान देता हूँ| वह काशी में रहकर ऊर्ध्वगमन कर सकता है| जो मुझे ही अंतिम मानकर, काशी में रहकर, सुख-सुविधा का उपभोग कर अपने पुण्य को क्षय कर लेता है वह पुनः नीचे के लोकों में लौटा दिया जाता है| ऊपर का लोक आदिशक्ति, हम त्रिदेवों की माँ परमा- प्रकृति का लोक है| उसके ऊपर आत्मलोक है| तथा सबसे ऊपर सतलोक है; जहाँ सत्पुरुष रहते हैं| सद्गुरु सीधे उन्हीं की आराधना करता है| उन्हीं का रास्ता बताता है| हम लोग भी उसी सद्गुरु की कृपा के आकाँक्षी हैं|
मानवी प्राणी वासना के दलदल में इतना बुरी तरह आबद्ध है कि अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु छोटे-छोटे देवी-देवताओं की आराधना में मरकट की नाईं भटकते रहता है| जो काल का ग्रास बनता है| काल निरंजन का आदेश है कि ये मानव हमारे ग्रास हैं| अतएव जैसे बकरे को नयी नहीं घाँस खाने के लिए दी जाती हैं; जिसको उसके दाता समय पर अपना ग्रास बना सकें| और यदि बकरा यह समझ ले कि मेरा मालिक कारुणिक है, तब यह उसका भ्रम है| भ्रम स्वरूप ही वह सब कुछ भूल कर मैं-मैं करता रहता है| उसी तरह जगत् के मानव हैं| जो अपने इन्द्रिय- सुख के लिए विभिन्न देवी-देवताओं का नित्य अनुष्ठान करते रहते हैं| ये देवता भी उन्हें सांसारिक माया उपलब्द्ध कराते रहते हैं| समय पर ये उनका ग्रास बनते हैं| हमारे प्रतिनिधि भी संसार में शास्त्रों का शस्त्र लेकर फैले हैं| वे गाँव-गाँव पंडा, पुरोहित, मौलाना, पादरी, ग्रंथी के रूपमें फैले हैं| जो यजमान की सांसारिक वासना-पूर्ति हेतु प्रतिदिन नयी-नयी कथा सुनाते हैं| उन्हें देवी-देवता का अनुष्ठान बताते हैं, कराते हैं| जिससे उसका एवं हम सभी का व्यापार चलता रहता है|
इस पृथ्वी पर प्रथम बार सत्य का उद्घाटन कबीर साहब किये हैं| इसके बाद तो संतों ने वास्तविक रहस्य को पकड़ ही लिया| तब नानक, दादू, दरिया, पलटू, रविदास इत्यादि ने उसी सत्य पुरुष की अर्चना पर ज़ोर दिया| इससे काल निरंजन चिंतित हो गए|
एक समय में हमलोगों के साथ गुप्त सभा किये कि क्या होगा? सभी बंधनमुक्त हो जायेंगे| सभी लोग हमारे लोकों से भाग कर सत्यलोक चले जायेंगे| फिर हमीं लोगों पर शासन करेंगे| तब? कुछ करना चाहिए| बहुत विचार कर यह निर्णय किया गया कि जैसे ही दो-चार संत सत्यलोक चले जाएँ, फिर हमारे पुरोहित, मुल्ला, पंडे उस धर्म में प्रवेश कर जाएँ| फिर उन्हीं के नाम पर झूठा नाम, झूठा तंत्र, झूठा कर्मकाण्ड, झूठी उपासना दी जाये| तथा कबीर के ही प्रतिरूप देवी-देवता, विभिन्न साधु-संतों को दीक्षा दी जाये| इतना ही नहीं, कबीर साहब का अवतार, बुद्ध-महान व्यक्ति विशेष में बार बार आने को प्रचारित कर उन्हें भी वणिक् बना दिया जाये| जिससे जीव सहज ही भटक जायेगा| हमारी खेती चलती रहेगी| यही हुआ| जब जब सद्गुरु इस पृथ्वी पर आये हैं, उन्हें शिष्य हमलोग नहीं मिलने दिए| उनके जाने के बाद हमारे ही प्रचारक उन्हें आत्मसात कर जाते हैं| अब आप ही देखें- बुद्ध का नित्य जन्म हो रहा है| कृष्ण सोलह कला ही नहीं, चौंसठ कला में आ रहे हैं| नित्य नए-नए सद्गुरु आ रहे हैं| जो देवताओं का ही कार्य करते हैं| देवता लोग उनके धर्म को प्रचारित करते हैं| ऋद्धि-सिद्धि से भरते हैं|
कुछ कहते हैं कि मेरा ही शरीर ब्रह्मा का है| इसमें ही शिव आ गए हैं| मैं ही गीता कहा हूँ| आप ही समझें कि जब किसी पातकी के शरीर में प्रेत प्रवेश करता है, तब वह प्रेत उसकी आत्मा पर हावी होकर अपना कार्य करता है| क्या शिव भी प्रेत हैं? कोई देवी-देवता खेलता है| यदि खेलता भी है, तब स्वामीजी उस व्यक्ति की आत्मा तो शिव नहीं बनी? उस पातकी की तरह ही झूठा बवंडर फैलाकर, लोगों को भ्रमजाल में डालकर स्वयं भ्रमित होकर चली गयी| उसके उपासक अब उसे ही सत्य मानकर आगे चल पड़े| उनका काफिला ज्यादा होता है| इस तरह काल भगवान् की खेती में लोग करते रहते हैं| काल भगवान् भी बकरे की तरह इन्हें उपहार देते रहते हैं| इसी तरह पृथ्वी पर कोई ईसा, तो कोई शंकर- विभिन्न रूपों में अवतार लेता रहता है| कोई भी साधक अपने जीवात्मा को पूर्ण परिछिन्न कर शिव, परम ब्रह्म के रूप में नहीं देखना चाहता है| यही माया है| ये सभी अवतारी माया के बंधन में बुरी तरह आबद्ध हैं|
स्वामीजी! आपसे मैंने सत्य उद्घाटित कर दिया| आप स्वयं देखें कि इस कलियुग में आप जैसा त्यागी-विरक्त पुरुष इस पृथ्वी पर कोई नहीं है| आप इसे अपना बड़प्पन न समझें| आप स्वयं जगत् में देखें कि सभी माया के चक्कर में पड़े हैं| आपको हमलोगों ने भरपूर माया दी| जो आप सोचते थे, उसे तुरन्त प्रदान किया गया| परन्तु आप पर गुरु कृपा बरस रही थी| तभी आप एकाएक उस माया पर लात मारकर विश्व कल्याण हेतु सद्विप्र समाज की स्थापना कर, आपने ऐसी माया को उसमें झोंक दिया| हम देवतागण भी अति अचाम्भित हुए| फिर आपको पारिवारिक कष्ट दिया गया| आपके बड़े पुत्र को जो बड़ा मेधावी था, आपके बाद आपके घर-परिवार को संभाल सकता था- उसे तुरन्त बुला लिया गया| आपके शिष्यों ने मंत्रणा की| फिर आपको गृह लौटने का सलाह दिया गया| उसमें हमलोगों की ही मंत्रणा थी| फिर भी आप चट्टान की तरह अडिग रहे| फिर आपके स्वार्थी सांसारिक शिष्यों को देवेन्द्र के माध्यम से आपके विरुद्ध किया गया| आप पर झूठा आरोप लगाकर आपको उद्देश्य से विचलित करने का भरपूर प्रयास किये| आप जरा भी नहीं हिले| हाँ आपकी निंदा का फलाफल उन शिष्यों को भी मिलेगा| चूँकि जो सूर्य के ऊपर थूकेगा, वह थूक तो उसपर भी पड़ेगा| हम देवताओं का नेतृत्व निरंजन करते हैं| हम उन्हीं के निर्देश पर कार्य करते हैं| आप गुरुभक्त हैं| आपकी विजय निश्चित है| इस सृष्टि में आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई भी देवी-देवता कुछ नहीं कर सकता है| परन्तु आप संकल्पों-विकल्पों से ऊपर उठ गए हैं| तब, देवतागण तो ज़रूर आपके खिलाफ प्रचार कर आपके अभियान को कमज़ोर करेंगे ही| जैसे ही आप अपने अभियान को गति दे देंगे, सभी देवता आपसे भयभीत होकर आपसे संबोधन करेंगे| आपकी स्तुति करेंगे| यही सदा से सृष्टि का नियम है|
स्वामीजी प्रतिभा-संपन्न हैं| आपसे दिव्य विद्या स्वतः अवतरित हुई है| हो सकता है, आपके स्वजनों से सरस्वती रूठ जाये| उन्हें विद्या से हाथ धोना पड़े| यह देवताओं का अंतिम अस्त्र है| यह भी हम जानते हैं कि यदि आप चाहें तो उनके सिर पर हाथ रखकर क्षणभर में उन्हें प्रतिभा- संपन्न बना सकते हैं|
अच्छा स्वामीजी! मैंने देवजनित व्यवहार को आपके सामने उद्घाटित कर दिया| हमारे यहाँ हर क्षण सृष्टि का कार्यकलाप आते रहता है| उचितानुचित दिशा निर्देश भी जाता रहता है| कृपया आप मेरे साथ आने का कष्ट करेंगे|”
मैंने मौनता पूर्वक उनका अनुगमन किया| शंकर जी बोले कि आप कुछ आतिथ्य स्वीकार कर लें| क्या इस आतिथ्य में भी छल हो सकता है? मैंने अपने गुरुदेव से सुना था कि यह देवता बड़े बड़े स्वार्थी होते है| उन्हें भी रोगग्रस्त करने एवं शिष्यों में विद्रोह कराने में इनका हाथ था| कहा- “नहीं, स्वामीजी नहीं| अभी मैं शिवालय में हूँ| उसी निर्गुण निराकार की आराधना में हूँ| यहाँ किसी तरह का छल नहीं है| हाँ, यहाँ से हटकर जैसे ही अपने स्थान पर बैठूँगा, तब देवता की नीति से बात करूँगा| आपका कोई देवता किसी तरह से अहित नहीं कर सकता| आप अपने अभियान पर निकले हैं| सभी देवता कुछ ही दिन में नतमस्तक हो जायेंगे|”
मैंने खीर जैसा खाद्य पदार्थ एक दो चम्मच खाया| जिससे पूर्ण संतुष्टि हो गयी| शीतल पेय एक गिलास पीया| जैसे अमृत पी लिया| थकावट दूर हो गयी| शरीर ऊर्जा से भर गया| दूसरी तरफ देवजनित चरित्र से दुखी भी था| मानव के दुःख का कारण ये देवजनित पूजा एवं ढोंग ही तो है| मैंने कहा- अच्छा भगवान् शंकर! अब आप अपने यहाँ के ऋषि-कहार्शियों से मुझे मिलने का मौका प्रदान करें| कहा- “स्वामीजी! आपको भैरवजी वहाँ ले जायेंगे| जो ऋषि जिस देवता के आधीन रहता है वह उसी का गुणगान करता है| उसकी आत्मा उस देव के लिए बिक चुकी होती है| हो सकता है किअपके द्वारा व्यक्त आत्मदर्शन वे अनसुना कर दें| अच्छा! आपका आत्मदर्शन मैं सुनूँगा|”
आप सुनेंगे? किस रूप में सुनेंगे? स्वामीजी! मेरा विभिन्न कार्य करने के लिए विभिन्न रूप हैं| मैं हनुमान के रूप में भक्ति करता हूँ| कपिल के रूप में सांख्य का दर्शन देता एवं सुनता हूँ| परन्तु आज मैं आपके समक्ष इसी रूप में रहूँगा| अभी तक तो मैं ही आपसे कहा हूँ| आज सुन तो लूँ|”
बाहर निकला| कुछ ही देर में एक चन्द्र आभा से पूर्ण भवन के सामने हम लोग खड़े थे| भगवान् शंकर को देखते ही उस भवन का द्वार स्वयं खुल गया| देखते हैं कि यह भवन है या पूरा नगर! इसका आदि अंत दिखाई नहीं पड़ रहा था| कुछ दूर चलने के बाद एक सभागार में प्रवेश किया| यह सभागार श्वेत मखमल सा निर्मित था| जिसकी दीवार से मनोहर प्रकाश निकल रहा था| प्रवेश करते ही हजारों ऋषि थे जो जटा-जूट से, दिव्य वस्त्र, आभूषणों से परिपूर्ण थे| भगवान् शंकर के साथ हमें भी उच्चासन पर बैठाया| भगवान् शंकर ने हमारा परिचय देते हुए कहा- “मेरे प्रिय ऋषिगण! ये हैं स्वामी कृष्णायन जी| जो परमपुरुष के अधिकारी हैं| सद्गुरु हैं| पृथ्वी पर सद्विप्र समाज की रचना कर रहे हैं| ये कृपा कर आपके पास आप से मिलने आए हैं|”
स्वामीजी! सामने बैठे हुए ऋषि लोमश हैं| तेजोमय चेहरे वाले| उनके बगल में हैं- मार्कण्डेय| देखिए सबसे दाहिने बैठे हैं, जो आपसे पहले मिल चुके हैं- भगवान् परशुराम| बाएँ बैठे हैं- हमारे रुद्रगण| पीछे बैठे हैं- अश्विनी कुमार| मध्य में हैं- ऋषि च्यवन|
बहुत देर तक इन ऋषियों से परिचय होता रहा| फिर मैंने पूछा- हे लोमशजी! आप अमर हैं| आपका शरीर भी दिव्य है| कुछ ऋषि उदास हैं| जबकि अन्य का चेहरा खिला है| प्रसन्न है| ऐसा क्यों है?
लोमशजी ने कहा- “हे स्वामीजी! ये काशी है| भगवान् भूतनाथ की नगरी है| यहाँ पृथ्वी का सैकड़ों वर्ष का आमोद-प्रमोद एवं सुख-सुविधा क्षण भर में समाप्त हो जाता है| यहाँ सदैव प्रकाश एवं युवा अवस्था बनी रहती है| जो ऋषि अपना सुख अर्थात् पुण्य पूरा कर लिए, उन्हें नीचे के लोक में जाना है| जिसकी सुचना इन्हें मिल गयी है| ये उसी दुःख से दुखी हैं| जो कुछ दिन पहले ही यहाँ आए हैं, वे अति प्रसन्न हैं| जो अपने पुण्य की मध्यावधि में हैं, वे शांत हैं| लेकिन जैसे कोई व्यक्ति बैंक के जमा रुपये को निकल कर खाता है, जैसे ही प्रबंधक उसे बताता है कि अब आपका शेष रकम इतना ही है, वैसे ही उस व्यक्ति को सभी सुख-सुविधा में रहते हुए भी दुःख हो जाता है| यही स्थिति है देवलोक की| आप से निवेदन है कि ऐसी युक्ति बताएं कि हम लोग सदैव प्रसन्न रहें| कभी पुण्य क्षय होने का भय न सताए|”
स्वामीजी- हे मेरे आत्मवत भगवान् भूतनाथ तथा ऋषिगण! आपसे मिलकर मुझे प्रसन्नता हुई एवं दुःख भी हुआ| प्रसन्नता इसलिए हुई कि आप वैदिक-पौराणिक ऋषि हैं| भारत के बच्चे-बच्चे आपको श्रद्धा से देखते हैं| आप शारीरिक रूप से हमारे पूर्वज हैं| पूज्य हैं| आप सभी को कोटिशः नमन है| मेरा नमन स्वीकार करें| आप भगवान् भूतनाथ के लोक में हजारों वर्षों से सुखपूर्वक रह रहे हैं| दुःख इसलिए हुए जा रहा है कि आप अपनी तपस्या के मद में अहंकार से भर गए हैं| उस परम चेतन पूर्ण परमात्मा को याद नहीं किये| इतना समय बीत गया| इतिहास पुरुष बन गए| पितर बन गए| किसी गुरु का अनुगमन नहीं किया| यह भूमि मध्य लोक है| इसके ऊपर भी तीन लोक हैं| जैसे कोई व्यक्ति साधारण घर छोड़कर सुन्दर घर पकड़ लेता है; लेकिन पकड़ तो बनी रही है| मन में सुख की कामना- सदैव वर्तमान है| सुख का अंतिम सिरा दुःख है| ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| एक और है- सुख-दुःख से परे परम-पद| उस परम पद की तरफ भी हम लोगों को बढ़ना चाहिए|
एक विशाल वृक्ष है| उस वृक्ष की जड़ ही सत्पुरुष है| इसे ही परम पुरुष, परम पिता कहते हैं| इनका तप ही परब्रह्म या अक्षर पुरुष है| इसी से ब्रह्म पुरुष या काल भगवान् निकले हैं| ये ही अवतार लेते हैं| इनकी शाखा हैं- ब्रह्मा, विष्णु, महेश| अन्य छोटी-छोटी डालियाँ ही विभिन्न देवी-देवता हैं| पत्ता ही संसार है| जैसे कोई एक एक पत्ता या डाली की पूजा और उसपर खाद-पानी दे| तब या तो वह पत्ता या डाली प्रसन्न हो एवं झुककर उसे आशीर्वाद दे- परन्तु वह स्थायी नहीं है| चतुर व्यक्ति उस वृक्ष की जड़ में पानी देता है| जिससे पूरा वृक्ष ही हरा-भरा रहता है| वृक्ष समय पर स्वतः फल-फूल भी देता है|
हमारा योग, जाप, कर्मकाण्ड, मन्त्र-तन्त्र मन का विषय है| यह मन हर समय वासनाओं में फँसा रहता है| चाहे वह विषय किसी तरह का हो| हथकड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की हो| वह तो बंधन ही है| जेल का द्वार चाहे स्वर्णमय हो या लौह का हो| वह जेल-द्वार ही है| मुक्ति द्वार तो नहीं है|
इन्द्रियजनित सुख बंधन का कारण है| इन्द्रियों से सूक्ष्म मन है| मन से सूक्ष्म बुद्धि है| बुद्धि से भी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ है- माया या प्रकृति| इससे सूक्ष्म है- आत्मा| आत्मा से सूक्ष्म है- परमपिता परमात्मा| यही सबसे परे है| यही परम पुरुष सभी देवों, सम्पूर्ण चराचर भूतों में रहता हुआ भी माया के परदे में छिपा रहता है| शरीराभिमानियों, तपस्वियों, कर्मकाण्डियों को दृश्य नहीं होता है| वे अपने अहम् के अहंकार से घिरे तथा अपने देवता द्वारा प्रदत्त सुख में भूले रहते हैं| उनका भटकाव अनंत जन्मों तक रहता है| प्राणी मात्र आत्मा के दर्शन के अधिकारी नहीं हैं| चूँकि ये अपने पाप कर्मों में आसक्त हैं| इनका मन अशांत है| चित्त विक्षेपों से व्याकुल है| अतएव साधारण मनुष्य सहित सभी देवी-देवता उस काल भगवान् की चटनी हैं|
ये सभी ब्रह्म (काल) की खेती हैं| ये प्रतिदिन एक लक्ष जीवों का आहार करते हैं| पुराण वेत्ता, वेद वेत्ता, विद्वान् आत्मवेत्ता हो सकता है, यह कतई ज़रूरी नहीं है| ग्रंथों के रटने से, योग-तप करने से वह आत्मा को प्राप्त नहीं हो सकता| आत्मा द्वारा ही आत्मा को जाना जा सकता है| जैसे एक जलते हुए दीपक से ही दूसरा दीपक जलाया जा सकता है| शरीराभिमान त्याग कर ही आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है| तथाकथित संप्रदाय, मजहब आत्मा के विरुद्ध है|”
मार्कण्डेय जी- “स्वामीजी! उस आत्मा को कैसे जाना जा सकता है?”
स्वामीजी- हे मेरे हृदेश ऋषिवर! ध्यान से सुनें- आसन, यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा- ये छः स्वकीय हैं| हठ योग से, क्रिया योग से- इसके बलपर प्रकृति प्रदत्त कुछ भी किया जा सकता है| परन्तु सातवाँ ध्यान, आत्मा का दर्शन- गुरु अनुकम्पा का परिणाम है| आठवाँ- उसमें रमण करना- समाधि तो फल है|
प्राणायाम से प्रत्याहार एवं धारणा से भी एकाएक येन-केन बनावटी (artificial) ज़बरदस्ती समाधि में जाने का स्वांग होता है| जिसको आप सभी जानते हैं| वह समाधि पूर्ण विराम नहीं है| अमन नहीं है| बल्कि बाह्य यात्रा रुक गयी है| अंतर्यात्रा शुरू हो गई है| यात्रा शेष है| अंदर की यात्रा- जैसे मैं इस यात्रा पर आया हूँ| वहाँ के लोग समझेंगे कि गुरूजी समाधि में हैं| परन्तु मेरा सारा जागतिक व्यवहार यहाँ भी है| चाहे वह व्यवहार संसार के साथ हो, चाहे देवता के साथ हो| क्या अंतर है? इस समाधि में भी जीव के मन का व्यवहार ज्यों का त्यों होता है| मात्र स्थान बदल जाता है| किसी कमल दल के एक लोक की यात्रा कर रहे हैं| मन का समझौता हो गया है| अमुक दिन तक अन्दर की यात्रा- अमुक चक्र के अमुक लोक की यात्रा करा दो| मन वहाँ की यात्रा कराता है| फिर इस तथाकथित समाधि से बाहर आने के बाद मन पूर्ववत विषय रुपी विष्ठा पर ही बैठता है| अतएव ऐसी समाधि की कोई कीमत नहीं है|”
मार्कण्डेय जी- “स्वामीजी! उस गुरु को कैसे पहचानें एवं उनकी सेवा कैसे करें?”
स्वामीजी- हे ऋषिवर! जब साधक का जन्मोंजन्म का पुण्य उदय होता है, तब परमात्मा ही उस गुरु के सान्निध्य में बरबस भेज देता है| जब उसके हजारों जन्मों का पुण्य उदय होता है, तब उसकी सेवा तन, मन, धन से करता है| उनके बताये हुए रास्ते पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करकर चलता है| चरम निर्देश के ग्यारह बिंदु दिए गए हैं| उसे उनका पालन करना होगा|
गुरु ही परम ब्रह्म का प्रतिनिधि होता है| धर्म का दण्ड उन्हीं के हाथ होता है| देवता या देवी का अधिकार क्षेत्र अलग-अलग है| उनको सृष्टि को ठीक से व्यवस्थित करना है| जैसे राष्ट्रपति अपने विभिन्न मंत्री या अधिकारियों में विभिन्न तरह का अधिकार सौंप कर राष्ट्र का संचालन कराता है| धर्म प्रचार किसी अधिकारी को नहीं सौंपता है|
परम ब्रह्म, सत्पुरुष यह कार्य स्वयं करता है| चूँकि जिस देवता या अवतार को भेजता है, वह स्वयं की पूजा एवं कर्मकाण्ड की व्यवस्था करा लेता है| इस तरह पृथ्वी पर नित्य नए-नए धर्म एवं भगवान् पैदा होने लगे| तब वह जगन्नियंता स्वयं सद्गुरु के माध्यम सिस पावन धर्म का प्रचार करता है|
गुरु ॐ के साथ शब्द विशेष का संयोजन कर उस परम ब्रह्म का दर्शन कराता है| उस ओंकार का भी अविनाशी सगुण रूप गुरु है| गुरु अनुकम्पा से ओंकार-रूप अविनाशी परम ब्रह्म निर्गुण ब्रह्म की उपासना हो जाती है| ओंकार के साथ वह खास शब्द अन्दर ध्वनित होता है| गुरु के साकार रूप का ध्यान ही उस निर्गुण परम चेतना की तरफ ले जाता है| यह शब्द अन्तर तक को आलोकित कर देता है| आत्मा के सामने से माया का परदा उसी तरह से हट जाता है जैसे सूर्य के सामने से बादल को हवा हटा देती है| फिर साधक आत्मदर्शी हो जाता है| वही आत्मा गुरु पर्वत से, गुरु द्वार से परम पुरुष को प्राप्त होता है| उस परम ब्रह्म की प्राप्ति सद्गुरु के माध्यम से शीघ्र ही संभव है| हे ऋषिवर! आज तक के जितने भी विधि-उपाय बताये गए हैं, उन सभी प्रकार के आलम्बनों में श्रेष्ठ आलम्बन अर्थात् उपासना का प्रतीक यही है| इससे श्रेष्ठ और कोई भी आलम्बन नहीं है|
यह आत्मा शरीर शरीर रुपी लोक के बुद्धिरूपी गुफा में छिपा है| यह शरीर ही इसका रथ है| गुरु कृपा रुपी बुद्धि सारथि है| मन ही लगाम है| इन्द्रियाँ घोड़े हैं| आत्मा रथी है| जीव भोक्ता है| सारथि गुरु कृपा रहित है, विवेकहीन है, तब उसके इन्द्रिय रुपी घोड़े वश में नहीं रहते हैं| वे उसे कुमार्ग में ले जाकर वासना रुपी गड्ढे में पटक देते हैं| अतएव जो एकाग्र होकर गुरु के समक्ष शरणागति करता है, उसे विवेक रुपी बुद्धि प्राप्त होती है| वह एकाग्र चित्त वाला पवित्र रहता है| वह शिष्य अवश्य उस परम पद को प्राप्त कर लेता है; जहाँ से फिर लौटना नहीं है| वहाँ आनंद ही आनंद है| वहाँ सदा दीवाली है| सदैव उत्सव है| सदैव परमानन्द है| यहाँ पुण्यापुण्य का भाव समाप्त हो जाता है|
देवी देवता की उपासना में लेन-देन चलता है| जैसे मुर्गा जब बाँग देता है, तब उसे समझ होती है कि उसके बाँग देने से ही सूर्योदय होता है| उसके बाँग देने से ही उसका मालिक उसे बैठे-बैठे अच्छा खाना-पीना देता है| परन्तु मालिक का ध्यान उसके माँस पर रहता है| फिर उसके अंडे पर रहता है| यही स्थिति तांत्रिक, मांत्रिक, गुरु, शिष्य या देवी-देवता के उपासकों के साथ होती है| ऋषिगण एवं देवगण! आप ही आज मेरे श्रोता हैं| फिर भी मैं सत्य आपके सामने उद्घाटित कर देना चाहता हूँ|
गुरु की विद्या मात्र मानव संस्कृति की देन है| सद्गुरु शिष्य (साधक) एवं परमात्मा (साध्य) के बीच में एक नाली बना देता है, जिससे दोनों जुड़ जाते हैं| ऊँचे तालाब का पानी स्वतः नीचे तालाब में तब तक आता रहता है जब तक दोनों का स्तर एक न हो जाये| शिष्य अनजाने में उच्चतम बिंदु से जुड़कर अनंत हो जाता है| इसमें मात्र साधक को गुरु के प्रति समर्पण करना होता है| उसे अपनी आकाँक्षा और कार्य पद्धति में अधिकाधिक उत्कृष्टता का समावेश करना होता है| साधक का गुण, कर्म, स्वभाव गुरु के अनुरूप होने लगता है| वह गुरु के सोचने मात्र से उसे कार्य रूप में परिणत करने लगता है| उस भक्त के रास्ते में ऋद्धि-सिद्धि, मुक्ति मिलते हैं| परन्तु साधक तो उसके एकत्व, अद्वैत, विलय, विसर्जन में विश्वास करता है|
जो साधक अपनी-अपनी निकृष्टता को बनाये रखता है, अपनी पात्रता और पुरुषार्थ का व्यतिरेक करके गुरु पर चित्र-विचित्र मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु दबाव डालता है- यही दुराग्रह है| भक्ति भावना के विपरीत है| अपने शब्द जंजाल से फुसलाकर, छुटपुट उपहार देकर बरगलाने और स्वार्थ-सिद्धि के लिए बहेलिये, मछुआरे जैसे छद्म प्रदर्शनों की रचना- न तो गुरु भक्ति है और न ही उसके बदले में किसी बड़े सत्परिणाम की आशा ही की जा सकती है| उसके यहाँ पात्रता की कसौटी पर हर खरे-खोटे को परखा जाता है| प्रामाणिकता ही अधिक अनुग्रह एवं अनुदान का कारण होती है| यह कार्य प्रार्थना, याचना के रूप में पूजा-अर्चना मात्र करते रहने से नहीं होता| यह भक्ति कर्मकाण्ड प्रधान नहीं है| उसमें भावना, विचारधारा, सर्व समर्पण और गतिविधियों को उत्कृष्ट बनाना होता है|
आत्मोत्थान के लिए हर हालत में उपासना, साधना एवं आराधना को अंगीकार करना ही होगा|
उपासना- गुरु की इच्छा का सर्वोच्चता से पालन करना| उसके अनुशासन के प्रति अटूट श्रद्धा, घनिष्ठता के लिए गुरु द्वारा निर्देशित प्रक्रिया में बहव भरी नियमितता का अनुपालन ही उपासना है|
साधना- अपने चिर संचित कुसंस्कारों एवं अवांछनीय आदतों, रुढ़िवादी मान्यताओं का गुरु इच्छानुसार अनुपालन करना ही साधना है|
आराधना- गुरु की इच्छानुसार लोक मंगल की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में पूर्ण उदारता से सहयोग देना ही आराधना है| इसमें से एक को भी छोड़ कर पूर्णता के पथ पर अग्रसरित होना संभव नहीं है| आपकी सज्जनता और साद्ध्विकता का समन्वय ही आत्मिक प्रगति का सच्चा स्वरूप है|
आप सभी ने पूर्ण मनोयोग से सुना| इसलिए मैं आपका आभारी हूँ| आप सभी के ह्रदय देश में स्थित परमात्मा को मेरा नमस्कार| मेरा मनस्कर स्वीकार करें| धन्यवाद|
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति रहस्यमय लोक से उद्धृत…
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