आम ले लो…
आम ले लो…
एक आम की लॉरी वाला बाहर चिल्लाता है, आम ले लो… आम… मीठे-मीठे आम…
मुझे पता है कि यह निराशाजनक होने वाला है। फिर भी मैं अपने आपको नहीं रोक सकता। मैं एक पका हुआ आम उठाता हूं और उसे सूंघता हूं। युवा सेल्समैन के गालों में खंजन पड़ता है। वह कहता है – ‘सर सूंघने के दिन गए। अब तो बस रंग देखो और ले लो। मैं गारंटी देता हूं कि यह खट्टा नहीं होगा।’
मुझे उस युवक की व्यावसायिक सूझबूझ पसंद आई। उसने सच कहा कि वो दिन चले गए, वो सुगंधित समय! लेकिन यह मन था कि मानता नहीं था।
मैं बचपन की यादों में खो गया। ओझ, मेरा गाँव जहाँ दादाजी और दादी माँ रहते थे। वेकेशन में वहाँ गया था। हमारे पडोश में रहता जगदीश और मोहल्ले के कुछ बच्चों के साथ हम सब खेतों की ओर आमली-पिपली खेल खेलने चल दिए। खेतों में आम के पेड़ लगे हुए थे।
आम के पेड़ के नीचे से गीरे हुए आम देख कर जगदीश ने अपनी जेब से एक छोटा सा चप्पू निकाला। उसने आम को काटा और नमक छिड़का। जब मैंने एक आम काटा, तो ऐसा लगा जैसे सारा ब्रह्मांड भीतर समा गया हो। मैं खलिहान के सफेद नुकीले हिस्से को अंदर आकार लेते हुए देखता रहा। किसी तरह मैं खाना नहीं चाहता था। जगदीश ने जबरदस्ती से खिलाया। खट्टे आम से मुँह में पानी भर गया।
बैसाख के महीने में बाजार में यहां वहां आपको आम नजर आते हैं। अगर आप खरीदना नहीं चाहते हैं तो भी खुशबू आपको उस तरफ खींचती है। गेहूं की पीली भूसी पर व्यापारी आम को यहाँ-वहाँ करता रहता है, सुगंध के झरने बहते हैं। बॉक्स में भरकर सुगंध गाँव-गाँव और शहर पहुंचती है। जैसे-जैसे महीना आगे बढ़ता है, छुट्टियां खत्म होती जाती हैं।
कोई आम के ऊपर लगे काले बिंदु को उंगली के नाखून से हटाता है और हल्का सा दबा कर कुछ रस जीभ पर डालता है। गाँव के रसीले आम की माँग अब ज्यादा नहीं हैं। जो बचे हैं वे केसर, हाफूस और अन्य किस्मों के मुकाबले कमजोर दिख रहे हैं, क्योंकि देशी आम में पाए जाने वाले रेशे लोगों को पसंद नहीं होते, इसलिए आज लोग चाहते हैं कि सब कुछ चिकना हो… बेरंग ही क्यों न हो!
जगदीश और अन्य बच्चों के साथ मैं भी खेत में आमली-पिपली का खेल खेलने पहुँच जाता था। वहाँ पर एक खेत में आम तोड़ी जा रही थी। हम भी वहाँ पहुँच गए और आम तोड़ने में मदद करने लगे। मेरी नजर नजदीक में रहे आम के पेड़ पर पड़ी। पेड़ पर मुंह में पानी लाने वाले लाल रंग के पके हुए आम थे। लेकिन किसान ने कहा, ‘उस पेड़ का आम मत खाओ।’ जब मैंने जोर दिया तो उसने मुझे एक पका हुआ आम दिया। मुझे देते हुए उन्होंने कहा, ‘ले खा। खुश हो जा।’ मेरे चेहरे पर किसान की आंखें लगी थी। इतना खट्टा था मानो सारे गाँव के आमों का खट्टापन फलों में समा गया हो। किसान मेरी हालत देखकर मुस्कुराया। मैं समझ गया, किसान उस पेड़ को क्यों छोड़ देते थे। वह पेड़ खट्टा था। किसान कहते हैं, ‘अगर आप मीठे आम में थोड़ा सा खट्टा मिला दें तो वह बीक जाएगा। लेकिन लोगों का पैसा मुफ्त नहीं आता है, किसान की बात आज भी याद आती है। आज जब हम कमजोरों को लूटने वाले व्यापारियों की चाल जानते हैं, तो हम नेकदिल किसान को याद करते हैं। क्या किसी पाठशाला ने उस पीढ़ी को ईमानदारी सिखाई ?’
पछतावे का ढेर बढ़ता जाता है। ख़रीदने को कुछ था नहीं जब खुश्बू थी, रंग था, अरमान थे। अब जब जेब भर गई है तो सब कुछ रंगहीन, गंधहीन हो गया है। समय समाप्त हो रहा है। क्या करें ?
बड़े आम के पेड़ पुराने हैं। लगाने वाले, पालने वाले चले गए। नई पीढ़ियों को नई किस्में मिलीं। अब बागों में बचे हुए देशी आम के पेड़ चुपचाप नई किस्मों की तलाश में हैं। अब स्कूल बैठा कोई बच्चा आम नहीं चूसता है, वो मैंगो ब्रांड के कोल्ड ड्रिंक पीने नीचे चले जाते हैं। इसमें न तो कपड़े खराब होते हैं और न ही हाथ।
आम ले लो….. आम….. मीठे-मीठे आम….. लॉरी वाला बाहर चिल्लाता हैं। भीतर का बच्चा चिल्ला नहीं सकता।
धनेश परमार “परम”
Photo by NAZIB Khan: https://www.pexels.com/photo/child-carrying-his-younger-brother-under-a-mango-tree-8467880/
बहुत ही सुंदर रचना।