खुली खिड़कियां
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खुली खिड़कियां
हर उम्र में
हर दौर में
एक औरत एक औरत होती है
जो खूबसूरत है
रखती है संवेदनाएं
और सादगी
उसके भी मन को भाती है
जिंदगी की रंगीनियां
उसके कदमों की भी चाहत है
राहें बनाना चाहती है
चंद अरमानों से
अपने घर को सजाना चाहती है
अपने हर एक एब को
गर्व से बतलाती है
सीमाओं में अपनी वो
हद से गुजर जाती है।
आंखो के काले घेरे में
गाथाएं लिख जाती है
चेहरे की लकीरों में
हर दर्द बयां कर जाती है
अनमनी सी रहकर भी वो
जब लटों को सुलझाती है
जीवन की अपनी उलझनों को
मुस्कुराकर बहलाती है।
नाम अपना लिखकर वो
पानी पर रह जाती है
जिंदगी की कहानियां
सीने में दफन कर जाती है।
है पीड़ा का श्रृंगार वो
है सागर का मंझधार वो
चुन चुन के मोती सजाती है
तब जाकर वो कहीं
औरत कहलाती है।।
रेणु