सोच
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सोच
मुझे तैरना नहीं आता।
अपेक्षाओं की फिसलन में गिर पड़ी,
उन गहरे प्यारे रिश्तों के मोह में जा फंसी,
बहुत हाथ-पैर चलाएं, बहुत कोशिशें की,
निराशा ने मुझे थका दिया था,
उम्मीद से मैंने हाथ बढ़ाया,
मगर वहां कोई नहीं था।
मैं खुद को डूबते देख रही थीं,
मुझे तैरना नहीं आता,
खुद से ये कह रहे थी।
तभी आई एक आवाज़,
तुम किसे ढूंढ रही हो ?
किसकी ओर है हाथ बढ़ाया?
बाहर तो कोई हैं ही नहीं ,
तुमको तुम्हारी सोच ने हैं डुबोया।
अब तुमको डूब कर हैं उबरना,
हिम्मत कर और खुद से लड़,
मैं खुद को डूबते देख रही थीं,
मुझे तैरना नहीं आता।
मगर खुद को संभलते देख रहीं थीं।
रचयिता, स्वेता गुप्ता
Very nice . Keep writing
Thank you bhaiya 😇
बहुत सुंदर
Thank you 🦋