सुहाना बचपन
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सुहाना बचपन
वो बचपन भी कितना सुहाना था
जहाँ रोज़ नया-नया एक फ़साना था,
कभी चॉकलेट की ज़िद्द
कभी खिलौनों की चाहत,
दुनिया के फरेबों से ये दिल अंजाना था
वो बचपन भी कितना सुहाना था।
पापा के कन्धों पर चढ़कर
दुनिया देखते थे हम,
बिजली कड़कने की आवाज़ से डरकर
माँ की आँचल में लिपट जाते थे हम,
अपनी ही दुनिया में खोया ये दिल मनमाना था
वो बचपन भी कितना सुहाना था।
मिट्टी के खिलौनों से खेलते थे हम,
दोस्तों के साथ लड़ते – झगड़ते थे हम
वो दोस्तों का साथ भी बड़ा मस्ताना था,
वो बचपन भी कितना सुहाना था।
खुली छत पर दौड़ कर पतंग उड़ाना
कभी कटी पतंग न पकड़ पाने पर पछताना
वाकई वो क्या दौर था , क्या ज़माना था
वो बचपन भी कितना सुहाना था।
नम्रता गुप्ता