राष्ट्र का निर्माण
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समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत…
||श्री सद्गुरवे नमः||
अत्रि ऋषि द्वारा राष्ट्र का निर्माण एवं संवर्धन
वैदिक ऋषि आजीवन राष्ट्र निर्माण के काम में ही लगे रहे। उनके लिए राष्ट्र शब्द व्यापक था। सारे विश्व के लिए था।
हमारी सोच जैसे-जैसे छोटी होती जाती है इस शब्द की व्यापकता भी सिमटती जाती है। पहले ऋषियों की 120 वर्ष की आयु मानी जाती थी, जिसका विभाजन निम्नवत था। बाल्यपन 9 वर्ष, ब्रह्मचर्य-25 वर्ष, गृहस्थाश्रम-36 वर्ष, वानप्रस्थ-50 वर्ष। ब्रह्मचर्य की अवस्था ही सबसे कीमती अवस्था है। आने वाले जीवन का बीज इसी अवस्था में पड़ता है। जो विद्यार्थी इस अवस्था में से ठीक से निकल जाते थे, पास कर जाते थे, गुरु उन्हें ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की अनुमति दिया करते थे। अकर्मण्य, कमजोर अपने घर का भी निर्माण नहीं कर सकते, फिर राष्ट्र का निर्माण क्या करेंगे! त्याग करने वाले शूर-वीर तपस्वियों का पुत्र ही उस योग्य हो सकता है जो राष्ट्र निर्माण में सहायक हो। जितने समय ब्रह्मचर्य रहकर विद्यार्थी आश्रम में शिक्षा ग्रहण करता था, उसके दोगुने समय तक उसको वानप्रस्थ में देना पड़ता था। शिक्षा देना यानि गुरु का एक प्रकार का कर्ज हो जाता था शिष्य पर। इसको वह सूद समेत इसके दूने समय तक वानप्रस्थ में रखकर वसूलता था।
शिष्य पचास वर्ष तक ब्रह्मचारियों को शिक्षा देकर या समाज की सेवा कर, गुरु के कर्ज से उऋण होता था। वानप्रस्थ का पच्चीस वर्ष समाज की सेवा में लगता था तथा शेष पच्चीस वर्ष संन्यास में बीतता था। वे पहले पच्चीस वर्ष तो आश्रम में रहकर ब्रह्मचारियों को शिक्षा देते थे, ब्रह्मचारियों के होकर रहते थे। परन्तु शेष पच्चीस वर्ष वे किसी के नहीं रहते बल्कि सबके हो जाते थे। इनके सभी हो जाते। पूरा भू-मण्डल ही इनका गृह हो जाता है। ये विश्व कल्याण में जुट जाते हैं।
कुल उम्र एक सौ बीस वर्ष की होती थी। जो ठीक-ठीक पच्चीस वर्ष का ब्रह्मचारी जीवन जी लेगा वह निश्चय ही एक सौ बीस वर्ष जीयेगा। कलियुग में संत कबीर साहब ही इसके मात्र उदाहरण हैं। इस तरह से 9+25+36+50=120 वर्ष तक राष्ट्र की सेवा ही करते रहे। गृहस्थाश्रम यानि पति-पत्नी दोनों साथ-साथ अपने गृह रूपी आश्रम में ही रहते थे। यहाँ का श्रम राष्ट्र निर्माण के लिए ही होता। कहीं भी स्वार्थपरता, संकीर्णता, क्षुद्रता नहीं होती।
अथर्ववेद के 19/4/1 में ऐसे ऋषियों के बारे में एक मंत्र मिलता है-
भद्रं इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपो दीक्षां उपसेदुः अग्रे।
ततो राष्ट्रं वलं आजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंपमन्तु।।
अर्थात् ‘आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रारम्भ में दीक्षा लेकर जो तप किया, उसी से राष्ट्र का निर्माण हुआ। राष्ट्र को ओज तथा बल मिला। इसलिए सभी विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें|’
ऋषिजन कल्याण हेतु ही अपना कर्म करते थे- ‘भद्रं इच्छन्त ऋषयः’| संसार को त्याग कर जंगल में बैठकर मानवता को भूलने वाले उसके अभ्युदय की परवाह न करने वाले लोग नहीं थे ये ऋषि। ये लोग विश्व को ब्रह्म का ही स्वरूप मानते थे। इसलिए विश्व रूपी साकार परमात्मा की सेवा के लिए वे अपना जीवन अर्पित कर देते थे। इन्हीं के प्रयत्नों से राष्ट्र निर्माण का मार्ग खुलता था।
विषम परिस्थितियों में भी ये विचलित नहीं होते थे। अदम्य साहस एवं उत्साह से भरे होते थे। परिस्थितियों से लड़ना संघर्षरत रहना इनकी आदत-सी हो गयी थी। जब-जब राष्ट्र अमंगलमय स्थिति में फंसता था, ये संघर्ष का बिगुल फूंक देते थे। पूरे समाज में हलचल पैदा कर देते थे। जैसे कि तालाब की सीढ़ियों या उगी हुई काई आदि कुछ क्षण के लिए हट जाए तभी उसे पता चलेगा कि कोई आततायी, कोई मलेक्ष मुझे अपने घेरे में लिया है। इसे हटाना जरूरी है। यही हाल राष्ट्र का भी होता है।
ऋग्वेद के 1/11/73 में एक मंत्र है जिससे मिलता है कि अत्रि हलचल पैदा करते थे-
‘ऋषि नरावहंसः पांचजन्यं ऋवीसादत्रि मुम्यचौ गणेन|
मिन्नता पश्योराशिवस्य माया अनुपूर्व वृषणा चोदप्तन्ता||’
राष्ट्र पर असुर राज करने लगा। राज्य में दुराचार का बोलबाला हो गया। अत्रि ने उस शासन को ध्वस्त कर स्वराज लाने के लिए हलचल पैदा किया। जिससे ऋषि को बन्दी बना दिया गया। उनके सहयोगी बन्धु भी उनके साथ बन्दी बना दिये गये। जनता ने इसका जबरदस्त विरोध किया। कारागार का फाटक तोड़ दिया। अत्रि अपने साथियों के साथ बाहर आ गये। जैसा कि आगे मिलता है-
‘अत्रि गणेन ऋवीसात मुन्चथः|’
अत्रि ऋषि पंचजनों का हित के लिए असुर राजा के विरोध की हलचल पैदा करते थे। इनके दोषपूर्ण आचरण से पांचों तरह के लोगों को कष्ट हो रहा था। ये पंचजन कौन हैं?
आइये कर्मानुसार विश्लेषण देखें।
1. ब्राह्मण- ये विद्याध्ययन करते कराते थे। समाज को दिशा-निर्देश देते थे। ब्रह्म की तरह आचरण तो करते ही थे समाज को भी प्रेरित करते थे इसके लिए। इनके इन्हीं कर्मों के आधार पर इन्हें आचार्य भी कहा जाता था। आचार्य वह है जिसका आचरण ग्रहण करने लायक हो। जिसका कृत्य अनुकरणीय हो।
2. क्षत्रिय- जिसमें क्षात्र हो, तेज हो, ताकत हो। वैसे ही विस्तीर्ण हो जैसे छाता बरसात होने पर फैलकर पूरे शरीर की रक्षा करता है, निष्काम भाव से। बिना किसी प्रयोजन के, प्रलोभन के। रक्षा करना उसका दायित्व है। किसी स्वार्थ की कामना नहीं। राष्ट्र रूपी शरीर पर किसी विषम परिस्थिति के प्रतिरोध में खडे़ हो जाना ही क्षात्रत्व है। उसकी सेवा में अपने अपको न्यौछावर कर देना वह अपना अहोभाग्य समझता है। उसकी कामना समाज को निर्बाध गति प्रदान करने की होती है। उसके इस काम में जो कोई भी अवरोध पैदा करता है वह दमन का पात्र बनता है।
3. वैश्य- समाज को गति देने के लिए धन की अहं भूमिका होती है। अतः ये लोग समाज के हित के लिए कल्याण के लिए कमाते थे। जैसे पेट में भोजन जाते ही पाचन तंत्र तुरन्त सक्रिय हो जाता है, पूर्ण ईमानदारी से अपने काम में जुट जाता है, खाद्य के साथ-साथ अखाद्य पदार्थों को भी पचाने की पूरी कोशिश करता है। कई बार ऐसा करने में वह अपने आप को भी समाप्त कर लेता है, परन्तु अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। जैसे अत्यधिक शराब पीने से या अफीम खाने से लिवर खराब हो जाता है, परन्तु वह उसे पचा डालने की भरसक कोशिश करता है। यद्यपि इस कार्य में उसका अपना अस्तित्व भी दांव पर लगा होता है। यदि पाचन-तंत्र को सफलता मिल गयी अपने काम में तो उससे उत्पन्न उत्पाद (खून) को वह सिर्फ अपने पास नहीं रख लेता बल्कि उसे गुर्दे की सहायता से छानकर हृदय के पास भेज देता है, समुचित रूप से वितरित करने के लिए। राष्ट्र भी एक शरीर की तरह है। इसका भरण-पोषण करना ही वैश्य का काम है। यह मां की तरह पुनीत है, पवित्र है। जैसे मां कष्ट सहकर भी पुत्र को छाती में छुपाकर स्तनपान कराती है, बदले में कुछ पाने की उसमें कोई कामना नहीं। यदि कुछ है भी तो यही कि मेरा पुत्र बड़ा होकर मेरे बुढ़ापे का सहारा बन जाए। यद्यपि सच्ची मांएं यह भी कामना नहीं करतीं। वह पुत्र का सिर्फ मंगल चाहती हैं। उसका मंगलमय भविष्य चाहती हैं। उसकी खुशी तथा स्वास्थ्य चाहती हैं। वैश्य भी राष्ट्र की सेवा इसी मंगलमय भावना से करता था। तभी इसे महाजन कहा गया। ये जन समाज के लिए श्रेष्ठ हैं। आदरणीय हैं।
4. शूद्र- ये अपनी सेवा द्वारा समाज के उद्धार में जुटे रहते थे। वैसे ही जैसे एक मां स्वयं गंदगी में रहकर भी, अपने शिशु को उससे अलग रखती है। उसे साफ-सुथरा रखने में अपनी परवाह नहीं करती। यह काफी सम्भव है कि दूसरों को स्वच्छ रखने वाले अपने काम में इतने मशगूल हों कि अपनी गन्दगी को धोना ही भूल गये हों। अपने उदार स्वभाव के चलते ही गन्दे रह गए हों। परन्तु उस गंदे मां-बाप को भी शिशु अपने अंक में वैसे ही भर लेता है जैसे राम ने शबरी को।
इनमें ऊँच-नीच का बोध नहीं होता। मां बच्चे के कहने पर ही उसे भोजन नहीं कराती और न ही उसे नहलाती-धुलाती व कपडे़ बदलती है। उसके आसपास को साफ-स्वच्छ रखना मां का स्वभाव है। जब जिस समय जिस किसी भी वस्तु की आवश्यकता समझती है अपने आप करती रहती है। कर्तव्य समझकर, धर्म समझकर; इसमें कोई अधिकार बोध नहीं। वह तो कर्तव्य की मूर्ति होकर रह जाती है। तभी तो वह प्रथम पूज्या है।
यही कार्य है शूद्र का भी राष्ट्र के प्रति। वह मां की तरह राष्ट्र सेवा में ही समर्पित सेवक है। पिता की तरह प्यार देता है| अंगुली पकड़कर चलना सिखाता है| अतः यह पिता की तरह प्यारा है। समाज को गति देने के लिए राष्ट्र रूपी रथ के ये चार पहिए हैं। चारों ही समान रूप से आदर-सम्मान व प्रतिष्ठा के योग्य हैं। इनमें से किसी एक को अच्छा या बुरा कहना, ऊँच या नीच कहना, मानवता के प्रति अपराध है। अपराध भाव से ग्रसित व्यक्ति ही किसी को ऊंच-नीच छूत-अछूत कह सकता है। इसीलिए, वैदिक ऋषियों ने कहीं ऊँच-नीच की व्यवस्था नहीं की।
5. निषाद- ये पांचवीं श्रेणी के लोग थे। सेवा के काम में ये लोग शूद्र वर्ण से निकलकर ही लग गये। अपनी स्वतंत्र कार्य प्रणाली बना ली, अपने काम को अंजाम देने के लिए। जब नदियों पर पुल आदि साधन नहीं थे तो उसे पार करने के लिए नावों की जरूरत होती थी। सब लोग नदी में उतरकर पार करने की हिम्मत नहीं करते थे। अतः कुछ साहसी लोग इस काम में आगे आये। उन्होंने धीरे-धीरे नाव का विकास किया। इस कार्य से लोगों को बहुत राहत मिली। अब नावों का उपयोग व्यापक तौर पर इस पार से उस पार जाने, व्यापार करने तथा खेती करने में भी होने लगा। युद्धकाल में भी नावों ने अभूतपूर्व योगदान देना शुरू किया। कालान्तर में समुद्र में बेड़ा बनाकर आने-जाने का कार्य होने लगा। समाज के विकास में इनकी भूमिका अहम् हो गयी। जलयात्रा में इन्होंने अदम्य साहस एवम् अपूर्व बहादुरी का परिचय दिया। पानी में तैरने, नदियों और समुद्रों में गोता लगाकर बहुमूल्य रत्नों को बाहर निकालने इत्यादि में इन्होंने महारत हासिल कर ली। अन्य लोगों ने भी साथ में यह कला साधना शुरु कर दिया। परिणामस्वरूप सामाजिक उत्थान में पंख लग गए। अब नदियों और समुद्रों ने सोने-चांदी, हीरे-मोती उगलना शुरू कर दिया। नदियां अब आवागमन का सुलभ साधन बन गयीं। ये बहादुर लोग नदियों या समुद्रों के किनारे ही बसने लगे। जब कभी किसी कारण नाव डूबने को होती या डूबने लगती तो ये अपनी जान की परवाह किए बगैर सवारियों की रक्षा करते थे। गजब के त्याग, तपस्या की गाथा है इनकी। तभी तो राम ने निषादराज को ‘भरत सम भाई’ कहा।
निषादों के उद्भव के साथ ही सामाजिक विकास की क्रान्ति आसमान छूने लगी। पूरा समाज ही आतुर हो गया इनकी सेवा से। ये अपनी सेवा में अहर्निश जुट गए। इनके चेहरे पर जरा भी विषाद नहीं। ‘अहर्निश सेवा महे’ इनका कर्तव्य हो गया। समाज में इनकी बड़ी पूछ हो गयी। राष्ट्र विकास वेफ अपरिहार्य अंग बन गए।
जब कभी समाज की बागडोर किसी दुष्ट जन (राजा) के हाथ में चली जाती है तो ये पांचों श्रेष्ठ जन चिन्तित हो जाते हैं। इनके चिन्तित होने से समाज के पुरोधा ऋषियों का चिन्तित होना भी स्वाभाविक ही है। अत्रि ऐसे ही ऋषि थे जिन्हें समाज में हलचल पैदा करना पड़ा। जिसके आगे राज शासन को भी झुकना पड़ा। क्योंकि ये ऋषि लोग तो समाज की बात ही करते हैं चाहे उन्हें कुछ भी कष्ट सहना पडे़। ऐसा व्यक्ति जिस पर समाज की निगाहें टिकी हैं, मार्गदर्शन के लिए वह ‘स्व’ का भान भूल जाता है। त्याग की मूर्ति बनकर राजा को अपनी सोच बदलने को बाध्य कर देता है। यदि राजा अपने भ्रष्ट आचरण से बाज नहीं आता है तो उस राजा को बदलने के लिए राष्ट्र को ही बाध्य कर देता है। ऐसी मंगल भावना से भरे होते हैं ये ऋषि। अत्रि भी यही कर रहे हैं।
अत्रि को भी अत्यन्त कष्ट सहना पड़ा। ‘अंहसः ऋवीसात’ यानि उन्हें उस कारागार में रखा गया जो पापियों एवं दुष्टों के लिए बनाया गया था। अत्यन्त गर्मी थी। चारों तरफ अग्नि जल रही थी। उसका सारा धुआं भी इन्हीं के कमरे में ही जाता, परन्तु वे वहां भी अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से पडे़ रहे। इनके इस निष्काम भाव युक्त कर्म के चलते वह दुष्ट व चोर राजा बदला गया, जिससे स्वराज की प्राप्ति हुई।
आ यद् वामीपचक्षसा मित्रा वयं च सूरयः।
व्यचिष्ट बहुपाप्ये यते महि स्वराजे।।
(ऋ.516616)
अर्थात् हम विद्वान तथा व्यापक दृष्टि के, जनता के साथ मित्रवत् व्यवहार करने वाले लोग आपस में मिलकर, बहुमत की सम्मति से जिस राज्य का पालन होता हो, उसी अनुसार कार्य कर इस विस्तृत राज्य को ऐसे स्वराज्य में चलाने का प्रयत्न करेंगे जिसमें जनता का अभ्युदय हो।
आश्रम में ही संविधान निर्माण
ऋग्वेद की ऋचाओं का मनन करने से ज्ञात होता है कि ऋषि ही संविधान के निर्माता थे। पालन करवाने का दायित्व राजा उठाते थे। राजा द्वारा संविधान के विरुद्ध आचरण करने पर उसे पदच्युत भी कर दिया जाता था। परन्तु आज की भांति उम्र को आधार बनाकर (18 वर्ष से 21 वर्ष) राष्ट्रीय संसद का निर्माण नहीं होता था। आज तो अनपढ़, गंवार, राष्ट्र की या क्षेत्र की समस्याओं के प्रति अज्ञानी भी अपने बाहुबल के द्वारा सांसद बन जाता है। चोर, चाण्डाल तथा अपने कुकृत्यों के लिए कुख्यात भी जनता का वोट छीन-झपट कर विजयी हो जाते हैं। अपने इसी कुकृत्यों के बल पर वे मंत्री भी बन जाते हैं। अब देश का शासक बन गये। कानून का निर्माता बन गए। उससे राष्ट्र को क्या मिल सकता है? इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
तमाम दलों में (पार्टियों में) आज ऐसे लोगों की ही भरमार है जो अपने स्वार्थ के अनुसार पार्टी बदल लेते हैं या नई पार्टी बना लेते हैं। इनका स्वार्थ ही सबसे बड़ा एजेण्डा है। कोई जाग्रत व्यक्ति कभी विरोध करना भी चाहता है तो ये बौखलाकर उसी पर इल्जाम लगा देते हैं। आवाज उठ जाती है- धर्म को राजनीति से अलग करने की।
क्या अधर्म को ही राजनीति के साथ रहने का अधिकार प्राप्त है! यदि राजनीति अधर्मयुक्त है तो राजा निश्चित रूप से चोर है, अशुभ है, अमंगल है, असुर है। वह जनता का रक्षक नहीं बल्कि भक्षक है। इन राजनेताओं की बातों का यदि गहराई से मनन किया जाये तो यह ऐसा लगता है जैसे कोई कह रहा हो कि मां और बाप अलग-अलग रहें। पति-पत्नी का सम्बन्ध ही इन्होंने अनुचित बना दिया। पत्नी का पति से सम्बन्ध आपत्तिजनक हो गया। अनुचित हो गया। अपमानजनक हो गया। कुछ इसी प्रकार का सम्बन्ध धर्म एवम् राजनीति का है। राजनीति पत्नी है तो धर्म पति। दोनों का अस्तित्व अलग-अलग हो सकता है, परन्तु वे एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। सीता रूपी राजनीति धर्म रूपी राम के साथ ही शोभा पाती है। राम रूपी धर्म के साथ ही इसकी शादी होती है। जैसे ही अधर्म रूपी असुर राजा रावण द्वारा राजनीति रूपी सीता का अपहरण होता है, धर्म विरुद्ध शासन चलाने का दुःसाहस होता है, धर्म रूपी राम इसवेफ खिलाफ सिंहनाद कर उठता है। धर्म विरुद्ध राजा (रावण) से लड़ाई करने को उन्मत्त हो जाता है। रावण के राज्य में स्वर्ण रेखा, ताड़िका रूपी राजनीति का ही वर्चस्व है, जिनके पति (धर्म) नहीं हैं। राम इस राजनीति (अधर्म) को चुनौती देना बक्सर से ही शुरू करते हैं और वह भी ऋषि विश्वमित्र के सान्निध्य में। ऋषि अपने समक्ष ही ताड़िका का वध करवाते हैं। बिहार, उ. प्र., मध्य प्रदेश और नेपाल के भूभाग में स्वराज का उद्घोष करते हैं।
विश्वमित्र के सान्निध्य में राष्ट्रीय परिषद की मंत्रणा हुई। रावण को मार डालने एवम् उसके शासन को समाप्त कर देने का प्रस्ताव पारित हुआ।
ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः।
ताः समेत्य यथा न्यायं तस्मिन् सदसि देवताः।।
अब्रुवन् लोक कर्तारं ब्रह्मणं वचनम् ततः।
भगवंस्त्वत्प्रसादेन रावणो नाम राक्षसः।।
सर्वान् नो कधते वीर्यात् शासितुं तं न शक्नुमः।
उद्वेजपति लोकांस्त्रीन् उच्छ्रितान् द्वेष्टि दुर्मतिः।।
शत्रुं त्रिदशराजानं प्रधर्षपितुमिच्छति।
ऋषीन् यक्षान् सगन्धर्वान् ब्राह्मणान् सुरांस्तथा।।
तन्महनो भयं तस्मात् राक्षसाद्धोरदर्शनात्।
वधार्थं तस्य भगवन्नुपायां कर्तुमर्हसि।।
(वा. रा.)
अर्थात् उस राष्ट्रीय परिषद में देव, ऋषि, महर्षि, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध सभी एकत्र हुए। रावण को वध करने का प्रश्न उठा। वहां उपस्थित लोगों के भाषण हुए। जिनमें कहा गया कि रावण अपनी शक्ति के मद में ऋषि, मुनि, यक्ष, गन्धर्व, ब्राह्मण, असुर इत्यादि सभी को दुःख दे रहा है। अतः इसके वध का उपाय करना चाहिए।
इस प्रस्ताव के सर्वसम्मति से पारित होने के पश्चात् सबको तत्काल ही विभिन्न कार्यों का बंटवारा भी कर दिया गया। ऋषि लोग जगह-जगह आश्रम बनाकर लोगों को शिक्षित करने लगे। योद्धा बनाने लगे। युद्ध कला, राजनीति व धर्म नीति की जगह-जगह शिक्षा दी जाने लगी। बाल्मीकि रामायण में ही मिलता है-
‘दशग्रीव वधोयताः अप्रमेण वला बीराः|’
अर्थात् दस शीश वाले रावण का वध करने के लिए अत्यन्त बलशाली वीर तैयार करने के लिए ऋषि लोग लग गये।
इसी क्रम में ही विश्वमित्र राम को अपने आश्रम ले आये, यज्ञ के बहाने। यहाँ लाकर उनको राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति, अर्थनीति, कूटनीति इत्यादि में सिद्धस्थ किये। तत्पश्चात धर्म (राम) का गठबंधन राजनीति (सीता) से अपने सामने कराये, क्योंकि इस गठजोड़ में भी अधर्मयुक्त राजनीति की प्रबल सम्भावना थी। जो कुछ ही समय में रावण, वाणासुर और परशुराम के रूप में उपस्थित भी हो गयी थी। राम ने उनका सम्मान गुरु कृपा से कर दिया। रावण के विरुद्ध ऋषि लोग तकरीबन 40-42 (चालीस से बयालीस) आन्दोलन चलाये। वे निर्भीक होकर, चट्टान की तरह अडिग रहे, अपनी धर्मनीति में स्थिर रहे। कोई भी लोभ या लालच इन्हें अपने रास्ते से जरा भी नहीं डिगा सका।
ऋषियों के आश्रम में ही धनुष वाण (अस्त्र-शस्त्र) का निर्माण होता था। ऋषि पत्नियाँ भी इस कार्य में सहयोग करती थीं। कृशाश्व की पत्नियाँ जया एवम् सुप्रभा ने, जो दक्ष की कन्याएं थीं, नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बनाये। इन अस्त्रों को कृशाश्व पुत्र भी कहा गया। योद्धा-वीर व अस्त्र-शस्त्र ऋषियों के आश्रम में बढ़ता देखकर रावण का चिन्तित होना स्वाभाविक था। अतः उसने वानर जाति (जो चन्द्रवंशीय क्षत्रिय भी थे तथा विश्वमित्र के खानदान के थे) से संधि कर लिया। दक्षिण दिशा (नासिक) के भूभाग के राजा (वानर जाति के) बाली से संधि कर अपने चौदह हजार सैनिक नासिक में रख दिए। वहां का सेनापति खर व दूषण को बनाया गया। देव जाति त्रिविष्टप (तिब्बत) में तथा आर्य जाति उत्तर भारत में थी। देवता लोग भी रावण से भयभीत होने के कारण खुलकर आर्य राजाओं या ऋषियों का समर्थन नहीं कर पा रहे थे। राम का ननिहाल कौशलपुर में ही था अतः हनुमान से इनका सम्बन्ध खून का हो गया। साथ ही विश्वमित्र के वंश का होने के कारण दृढ़ता आ गयी थी। ऋषि वर्ग राम (धर्म) के पहुंचते ही अपनी सैन्य शक्ति तथा अस्त्रों-शस्त्रों के बल पर खर-दूषण को मार गिराये तथा स्वर्ण रेखा रूपी पतिहीन (धर्म हीन) राजनीति का नाक-कान कट गया। दूसरी तरफ ये लोग वानरों तथा राक्षसों की मैत्री भी तोड़ने में सफल हो गये। संधि तोड़ दिये एवम् आर्यों तथा वानरों के बीच अग्नि की साक्षी में मैत्री करवा दिये। राम बारह वर्ष तक नासिक में रहे।
सीता रूपी राजनीति के हरण करने पर ही राम संकल्प लिये रावण के वध का। यद्यपि ऋषिगण तो अपने कार्य में इनके जन्म के पहले से ही लगे हुए थे। वे ‘दशग्रीव वधोद्यताः’ होने के कारण अपने संकल्प पर अडिग थे। राम-रावण युद्ध करीब अस्सी (80) दिन चला। इस बीच कोई भी देवता उनकी मदद के लिए नहीं आया। ये लोग स्वयं ही विभिन्न रूपों में राम (धर्म) के साथ युद्ध किये। रावण की पराजय हुई। राम लंका को ही अपना उपनिवेश बनाकर विभीषण को धर्मयुक्त राज्य करने का आदेश दिए।
रामराज्य का संविधान भी बाल्मीकि आश्रम में ही लिखा गया। इसका अनुपालन या क्रियान्वयन भरत रूपी नव सद् विप्र द्वारा ऋषि परामर्श से ही शुरू किया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि रावण (अधर्म) के द्वारा जब सीता (राजनीति) का अपहरण किया गया तब ऋषिगण भी राम (धर्म) के साथ युद्ध करने के लिए कूद पडे़।
जब-जब देवराज इन्द्र मदान्ध हुए तब-तब ऋषियों ने उन्हें दण्डित किया। कश्यप ऋषि ने अपने शिष्य ‘बालखिल्य’ को आदेश दिया कि दुष्ट इन्द्र को सत्ताच्युत करो। बालखिल्य ने इन्द्र को सत्ता से हटने के लिए बाध्य कर दिया। अन्ततः इन्द्र को कश्यप की शरण में आना पड़ा। अपनी भूल का एहसास होने तथा क्षमा मांगने पर कश्यप ने बालखिल्य को रोक दिया।
राजा बलि की राजनीति भी गलत होने लगी। कश्यप ने अपने आश्रम के हजारों नवयुवक संन्यासियों और विद्यार्थियों के साथ अपने पुत्र ‘वामन’ को भेज दिया, उन्हें उचित मार्ग पर लाने के लिए। वामन ने भी उन्हें दिशा निर्देश देकर उचित जगह पर राज्य करने को बाध्य कर दिया। कश्यप का ही पुत्र ‘महोत्कट विनायक’ काशी राज्य में यज्ञ करने जाता है। इसी बीच सेना का भी निरीक्षण करता है तथा उसकी कमी को भी पूरा करवाता है। उसने औरतों को भी सेना में भर्ती करने का परामर्श ही नहीं दिया बल्कि उसे सेनानायक भी बनवाया।
समय-समय पर ऋषियों ने राजनीति को धर्म से जोड़ने का काम किया है। जब कभी भी राजनीति धर्म से विमुख रही है तब-तब अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा है। इसी प्रकार दुर्योधन ने भी अपने भाई धर्मराज (युधिष्ठिर) का परित्याग कर दिया। द्रोपदी (राजनीति) का चीर हरण करने लगा। भगवान कृष्ण स्वयं आने को बाध्य हो गये। अब धर्मराज भी युद्ध करने का संकल्प ले लिए। दुर्योधन रूपी अधर्म का नाश धर्म रूपी धर्मराज (युधिष्ठिर) को अपनी राजनीति रूपी पत्नी द्रोपदी के कारण करना पड़ा। ऋषि रूपी कृष्ण हर समय धर्म के साथ ही रहते हैं।
धर्म एवम् राजनीति पति-पत्नी की तरह हैं। इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। चन्द्रगुप्त राजा थे तो चाणक्य धर्म थे। क्षत्रपति शिवाजी राजा थे तो समर्थ गुरु रामदास (ऋषि) धर्म थे। पत्नी समर्पित होती है पति (धर्म) को। पति का कर्त्तव्य होता है पत्नी की रक्षा करना। इसी तरह शिष्य समर्पित रहता है तो गुरु (धर्म) उसकी रक्षा करता है। राजनीति को धर्म से अलग करने पर वही हाल हो जाता है जो हुआ-स्वर्ण रेखा (सूर्पणखा) का, ताड़िका का, त्रिजटा का। बिना धर्म की राजनीति (स्त्री) वैसी ही है जैसी-कुलटा नारी या बिना गुरु का शिष्य जैसे भस्मासुर, जो धर्म विहीन होकर अपने गुरु शंकर को ही भस्म कर डालना चाहता है। गुरु पत्नी राजनीति का ही अपहरण करना चाहता है।
ऋषि पुत्रों या शिष्यों का संस्कार
वैदिक ऋषि सर्व सम्पन्नता में विश्वास रखते थे। कभी भी दीन-हीन, अकिंचन होकर जीवन-यापन नहीं करते थे। उनकी नस-नस में, रोम-रोम में ओज, जोश व अदम्य उत्साह भरा रहता था। अपूर्व विद्वत्ता, योद्धा धर्म, ज्योतिषज्ञ एवम् कृतत्वादि गुण से भरे रहते थे। तभी तो वोल्सतोश ने कहा है कि ‘पहले तो स्वर्णिम आभायुक्त संन्यासी, परन्तु कमण्डल लकड़ी के हुआ करते थे, लेकिन आज कमण्डल तो सोने के हो गये हैं, किन्तु संन्यासी लकड़ी के हो गये हैं|’ कहने का तात्पर्य यह कि पहले के संन्यासी त्यागी हुआ करते थे। अपना काम कम-से-कम साधनों में चला लिया करते थे। संसाधनों का अधिकांश भाग जन सामान्य में बांटते रहते थे। परन्तु आज परिस्थितियां उल्टी हो गयी हैं। ये कर्महीन हो गये है। कर्महीन व्यक्ति ही लकड़ी की तरह होता है| क्या वह अपने पौरुष से सोने (धन) की वर्षा कर देगा। विपुल उत्पादन कर देगा। अकर्मण्य व्यक्ति धूर्त्त तो होता ही है, परन्तु वह जितना ही कर्महीन होता जाता है उसकी आकांक्षा और कामना उतनी ही बढ़ती जाती है। भोगवृत्ति की बहुलता हो जाती है। यही कारण है कि आज के संन्यासियों को सोना प्रिय हो गया है। यह सोना अपने साथ-साथ आलस्य, मद, अहंकार व व्यभिचार भी लाता है। यह आज आम-सी बात है जो कहीं भी देखी जा सकती है।
गोल्डस्मिथ ने कहा है-‘वह सुन्दर है जो सुन्दर कर्म करे|’ सारी सुन्दरता अपने कर्मों में ही छिपी है। भोगवादी व्यक्ति का कर्म निश्चय ही बदसूरत लगने लगता है। हमारे ऋषिगण अपनी वाणी से ही अपने बच्चों और शिष्यों को पौरुष की शिक्षा देते थे। ऋषि कश्यप अपने पुत्र ‘महोत्कट विनायक’ का उपनयन संस्कार कर रहे हैं। उसमें विनायक भिक्षाटन करता है तो उसे भिक्षा में ही अस्त्र-शस्त्र मिलते हैं, जो पुरुषार्थ एवम् उत्साह के प्रतीक हैं। आज कल भी भिक्षाटन का नाटक होता है, परन्तु उसमें रूपया-पैसा लड्डू इत्यादि भोगवादी सामान दिया जाता है, जिससे वह बालक कोई प्रेरणा नहीं प्राप्त कर सकता। गणेश पुराण 2/90/30 में आता है- ‘दुष्टनाशं कुरुशीघ्रं विनायकः’ अर्थात ‘हे विनायक! तुम इन अस्त्रों-शस्त्रों का उपयोग कर अतिशीघ्र ही शत्रुओं का नाश करो|’ इसका तात्पर्य यह है कि उस बच्चे को बुराई के खिलाफ लड़ने का संकल्प दिया गया। संकल्पवान व्यक्ति के लिए कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाता है। योगवशिष्ठ में कहा गया है-‘कोई भी कार्य या वस्तु संकल्प द्वारा ही छोटी या बड़ी बन जाता है|’
गुरुकुल में पढ़ने वाले प्रत्येक बालक को कमर में पट्टा बांधना और दण्ड धारण करना अनिवार्य होता था।
इयं दुरुत्कात् परिबाधमाना, वर्णं पवित्रां पुनतीम् आगात्।
प्राणापानाभ्यां बलमाद्धानां स्वसा देवी सुभगां मेखलेयं।।
‘यह मेखला (करघनी) शत्रु के दुरुक्त बुरे भाषण को दूर करती है। मेरे वर्ण को पवित्र बनाती है, प्राण व अपान को बल प्रदान करती है। ऐसी यह भाग्य देने वाली मेखला दिव्यगुण वाली है, जिसको मैं धारण करता हूँ|’
यानि कमरपट्टा बांधने से प्राणापन का बल बढ़ता है। अपने वर्ण की पवित्रता बढ़ती है। इसका यही लाभ है। कमर ढीली रखने से बल कम होता है और कमर पट्टा बांधने से बल बढ़ता है। मेखला का बंधन बल को बढ़ाने वाला है।
यो मे दण्डः परापतत् वैहायस्यसोऽधि भूम्याम्।
तमहं पुनराददे आपुणे ब्रह्मणे ब्रह्म र्क्चसाय।।
जो यह दण्ड आकाश से (पर्वत शिखर से) भूमि पर आया था, उसको मैं इसलिए धारण करता हूँ ताकि मुझे दीर्घायु, ज्ञान व ज्ञान का तेज प्राप्त हो। यानि ‘वैहायसः दण्डः’ पर्वत शिखर का बांस बलवान होता है। यह दण्ड धारण करने से तथा इसका उपयुक्त समय पर उपभोग करने से शत्रु दूर होते हैं। क्योंकि इस दण्ड का भय सबको होता है|’
ऋषि भी वीर पुत्र तथा वीरांगना पुत्री का आशीर्वाद देते थे। क्योंकि वीरों से ही समाज एवं राष्ट्र का कल्याण संभव है। यजुर्वेद 22/22 में है-
जिष्णू रथेष्टा समेयो युवाऽस्य यजमानस्य वीरो जापताम्|’
‘विजस रथी, सभा में सम्मान प्राप्त करने वाला तरुण वीर पुत्र इस यजमान को प्राप्त हो|’
ऋषि दीक्षा देकर शिष्यों से तप करवाते थे, जिससे वे राष्ट्र की सेवा कर सकें-
‘भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपोदीक्षामुपसे दुरग्रे।
ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं देवा उपसंनमन्तु||’
अथर्ववेद 19/8/1
‘अर्थात् जनता का कल्याण करने की इच्छा से वैदिक समय के आदि-ऋषियों ने दीक्षा लेकर जो तप किया उससे राष्ट्र का निर्माण हुआ। बल व तेज भी बढ़ गया। इसलिए राष्ट्र के लिए सभी विबुध नम्रता से सेवा करने के लिए तैयार रहें|’
हमारे सभी वैदिक देवी-देवता भी सशस्त्र हैं। कोई ऐसा नहीं जिसके पास शस्त्र न हो। उनके पास गदा, चक्र, त्रिशूल, खड्ग, धनुष, वाण, वज्र, पाशुपात, शक्ति आदि अनेक अस्त्र-शस्त्र रहते थे। दत्तात्रोय ऋषि थे, परन्तु उनके पास गदा, चक्र, त्रिशूल आदि शस्त्रों के साथ-साथ भयानक कुत्ते भी थे। शत्रु के आने पर दूर से ही कुत्तों का आक्रमण करवाने की योजना भी दत्तात्रोय के पास थी।
इसी प्रकार देवियों के पास देवों की तुलना में दोगुने या तीन गुने अस्त्र हैं। देवियाँ षडभुजा, अष्टभुजा, अष्टादश भुजा, अष्टाविंशति भुजाओं की हैं, ऐसा वर्णन पुराणों में मिलता है। उनके प्रत्येक हाथ में एक-एक अस्त्र या शस्त्र है। इसका मतलब हुआ कि स्त्रियाँ भी शक्तिहीन नहीं थीं। इन्हें दोगुने प्रशिक्षण की, शक्ति की आवश्यकता थी। एक से तो अपनी तथा समाज की रक्षा करनी थी, वहीं दूसरे से अपने बच्चों का लालन-पालन, गृहकार्य एवम् घर में रहते हुए ही शिक्षा देना शामिल था। बच्चों को बहादुर बनने के लिए भी उत्प्रेरित करती थीं।
बुद्ध काल से ही देव-देवियाँ शस्त्रविहीन होने लगे। भिक्षुक तथा भिक्षुणियाँ बनने लगे। बुद्ध के पूर्व वैदिक काल में राष्ट्र रक्षा या आत्म रक्षा के लिए तरुणों तथा तरुणियों में वीरता के शुभ गुण जैसे होने चाहिए वैसी ही शिक्षा पद्धति गुरुकुल में ऋषि लोग रखा करते थे। परन्तु बुद्धोत्तर काल में यह शिक्षा व्यवस्था समाप्त हो गयी। आर्य पराभूत होने लगे। धीरे-धीरे हम गुलामी की तरफ कदम बढ़ाने लगे। जिन हाथों में शस्त्रा होन चाहिए था उन्हीं हाथों में बुद्ध ने भिक्षापात्र पकड़ा दिया।
औरतें भी शूरवीर होती थीं
ऋग्वेद की एक कथा है। एक राजा था जिसका नाम खेल था। वह अपनी जिन्दगी खेल के समान खेलता था। अत्यन्त साहसी वीर एवम् पराक्रमी था। उसकी एक लड़की थी जिसका नाम था। ‘विश्पला।’ उसे भी अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी गई। वह अपने पिता के तुल्य ही युद्ध कला में पारंगत हुई। इसके युद्ध कला के श्रेष्ठ वीरोचित गुणों को देखकर उसे सेनापति बना दिया गया। उसने इसे सहर्ष स्वीकार कर उसके अनुरूप कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। कुछ काल उपरान्त उसे युद्ध का अवसर भी प्राप्त हो गया। सेनापति के रूप में घोर संग्राम कर उसने दुश्मनों के छक्वे छुड़ा दिए। युद्ध के अन्तिम दौर में लड़ाई के दौरान शत्रु के शस्त्रों से उसकी जांघ टूट गई। परन्तु इस वीरांगना ने बिना विचलित हुए अपनी टूटी टांगों की जगह लोहे की टांग लगा लीं और पुनः समर में उतर पड़ी।
घोर संग्राम हुआ और शत्रा भाग चले। यह बहादुर तरुणी विजय प्राप्त कर घर आ गई-‘आसीं जांघां विश्पलायै अधत्तम्|’ऋ. वे. 1/116/15
‘अर्थात् विश्पला को लोहे की जांघ लगाई गई|’
इसी प्रकार के वीरों तथा वीरांगनाओं को भारतीय ऋषि अपने आश्रम में प्रशिक्षित कर बनाते रहे। अवसर पाते ही वे राष्ट्र की सेवा में अर्पित हो जाते थे। कोई भी एकाकी शिक्षा चाहे वह व्यावसायिक हो, कर्मकाण्डी हो या कोरी ज्ञानदायी हो, बेमानी है। सभी को सम्यक ज्ञान दिया जाना चाहिए जिससे छात्र उचित समय पर अपने जीवन में ही धन अर्जित कर सके तथा अपने ज्ञान से बच्चों को भी आलोकित कर सके। कर्मकाण्ड के ज्ञान से अपनों का क्रिया कर्म भी स्वयं कर सके। समय आने पर राष्ट्रहित में अपने को उत्सर्ग करने को उद्यत रहे।
सद्गुरु कबीर की दृष्टि में वीर
सद्गुरु कबीर कर्म करते हुए संत सम्राट हुए। यदि काशी से इनके नाम को निकाल दिया जाए तो यह अधूरी लगने लगेगी। इनका गर्जन काशी के वामाचारियों, कोरे कर्मकाण्डियों, पाखण्डियों तथा तथाकथित ज्ञानियों के विरुद्ध ऐसे ही था जैसे सिंह जंगल में अपने शिकार को डराने के लिए करता है। भांति-भांति के कष्टदायी षड्यन्त्रों के बावजूद ये जरा भी विचलित नहीं हुए। कल्हण ने कहा है-‘थोड़े से कष्ट से अपने मार्ग से विचलित हो जाना कायरों की पद्धति है वीरों की नहीं|’ तभी तो सद्गुरु कबीर कहते हैं-
सूरा तभी परखिये, लडे़ धनी के हेत।
पुरजा-पुरजा विकि रहे तउफ न छाडे़ खेत||
शूरवीर तो वही है जो वास्तविक धन के लिए लड़ाई लडे़, भले ही उसमें शरीर का पुर्जा-पुर्जा (अंग-अंग) कट जाए। फिर भी वह युद्ध भूमि से हटे नहीं। संतत्व भी कायरों या हिजड़ों के लिए नहीं है। सिंह मेघों की गर्जन को सुनकर तो दहाड़ने लगते हैं, परन्तु सियारों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी इसी परम्परा में थी। अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में स्वयं ही भिड़ गई थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। अंग्रेजों ने झांसी शहर को घेर लिया। किले में रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में मुख्य तोपची खुदाबख्श ने तोपें सम्भाल लीं। अंग्रेजों की हार अवश्यम्भावी हो गई। मजबूरन उन्होंने धूर्त्तता का सहारा लिया। वहीं एक राम मंदिर तथा एक मस्जिद थी। अतः उसकी आड़ में छिपकर गोलीबारी शुरू कर दी। खुदाबख्श के सामने समस्या खड़ी हो गयी। जब रानी की नजर खुदाबख्श पर पड़ी तो वह अवाक् रह गयीं। उन्होंने पूछा- यह आप क्या कर रहे हैं? मंदिर की ओर से भयानक गोलीबारी हो रही है और आप मस्जिद की ओर लगे हैं! अपनी तोप का मुंह आप मंदिर की तरप क्यों नहीं करते?’
खुदाबख्श ने उत्तर दिया-महारानी मुस्लिम होने के नाते मेरा अधिकार सिर्फ मस्जिद पर ही है। यदि मेरे हाथों मंदिर को क्षति पहुंची तो लोग यही समझेंगे कि मुसलमान होने के काण मैंने मंदिर बचाने की कोशिश नहीं की। यह कहकर खुदाबख्श ने सिर झुका लिया।
रानी बोली- खुदाबख्श! युद्ध में कोई हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता। मातृभूमि की रक्षा करना ही धर्म है|’ धर्म का स्वरूप समय और स्थान के अनुसार बदल जाता है। यह कहकर दहाड़ते हुए रानी दुश्मनों पर शेरनी की तरह टूट पड़ीं। शत्रु वहाँ पराजित होकर भाग खडे़ हुए। मदद मांगने के लिए रानी ग्वालियर आ गयीं। किन्तु वहाँ के राजा द्वारा मदद नहीं दिये जाने के कारण मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना बलिदान देने को विवश हो गयीं। फिर भी अंग्रेजों के हाथ उनका शव नहीं लग सका। यह है पुरुषार्थ।
||हरि ॐ||
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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