सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ (Part 9)
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सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ
कुछ कहानियों में अनेकों कहानियां छिपी होती। शायद मेरी कहानी भी इन्हीं में से एक है।
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अध्याय 9- सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ
रात और दिन एक-दूसरे के साथ नहीं चल सकते। जब रात आती है तो दिन चली जाती है और जब दिन का आगमन होता है तो रात विदा हो जाती। इसका मतलब ये नहीं है कि वो दोनों एक-दूसरे के कोई दुश्मन है। उनकी प्रकृति ही ऐसी है कि वो दोनों एक-दूसरे के हाथ थामें संग नहीं चल सकते। अंशुमन और वंशिका की जिंदगी भी शायद कुछ ऐसी ही प्रतित होती है। अब पढ़ते है आगे..
सुबह के 6 बज चूके थे। सूर्य की किरणें प्रकाशमयी रथ के समान धुंध को चीरते हुए शनै:शनैः पूरे जग को प्रकाशित करने के लिए दौड़ पड़ी थी। पक्षियां चह चाहने लगे थे। शीतल हवा अपनी शीतलता बिखेरने लगी थी। किरणें अब ट्रैन की खिड़की से छनते हुए अंशुमन के चेहरे में पड़ने लगी थी। शुरू में तो अंशुमन के नींद में इन किरणों से कोई बाधा नहीं पहुँची। लेकिन किरणें तीख़ी होती जा रही थी, मानो वो अंशुमन को झकझोर कर उठाने को उत्सुक हो। अंततः अंशुमन की आँखें न चाहते हुए भी खुलने को विवश हो चुकी थी। अंशुमन ने धुँधली आँखों से ही बॉगी को सरसरी निगाह से देखा। कुछ लोग अब भी नींद में डूबे हुए थे और कुछ लोग अर्धनिद्रा में थे। उसने अपने हाथों से अपने बगल में बैठी वंशिका को टटोला। जब हाथ में कुछ न लगा, तो वो भौंचक्का अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ। वंशिका वहां नहीं थी।
अंशुमन का मन व्याकुल हो उठा और वो वंशिका को बॉगी में ईधर-उधर ढूंढने लगा। उसने प्रत्येक बाथरूम के दरवाजे को भी खोल कर देखा। पर वंशिका कहीं नहीं थी। अंशुमन का मन कुछ बहुत बुरा होने का संकेत दे रहा था, लेकिन उसका दिल अब भी यहीं कह रहा था कि वो यहीं-कहीं होगी।
अंशुमन यात्रियों से भी पूछताछ करने लगा। पर किसी को उसका कोई अता-पता न था। उसके हृदय की धड़कने बढ़ती जा रही थी, मानो शरीर का खून जम गया हो और उसका हृदय अपनी स्पंदन क्षमता बढ़ा कर उस जमे रक्त को गति प्रदान करने में लगा हो।
अंशुमन का सर अब भारी हो रहा था। वह बॉगी के बीचोंबीच घुटने के बल गिर पड़ा। उसे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। उसका दिमाग काम करना बंद कर दिया था। उसका हृदय और तीव्रता के साथ धकड़ने लगा। उसने अपने हृदय को जोर से जकड़ लिया। तभी उसे अपने शर्ट के पॉकेट में किसी चीज़ के होने का एहसास हुआ।
यह एक कागज का टुकड़ा था, जिसमें कुछ लिखा हुआ था। अंशुमन ने उस कागज़ के टुकड़े को अपने हाथ में लेकर अश्रु से लबालब अपने नम धुँधली आँखों से पढ़ना शुरू किया…
‘प्रिये अंशुमन,
कहने को तो बहुत कुछ है, पर कहना मुश्किल है। आज पहली बार ये एहसास हुआ है कि अपने अंदर चल रही भावनाओं को कुछ चंद लब्जों में बयाँ करना इतना आसान नहीं है।
ख़ैर! जो मैं कहने जा रही हूँ, उसे समझने की कोशिश करना। तुमसे मिलने से पहले तक सब कुछ ठीक था। जैसे भी मैं अपनी ज़िंदगी गुजार रही थी, मैं खुश थी उसमें। पर तुमसे मिलकर और तुम्हारे छुअन ने मेरे अंदर की भावनाएं जिसे मैंने किसी गहरे गर्त में दबा रखा था, उसे तुमने उघार दिया। मानो मेरी दबी कुण्ठित भावनाएं सबके सामने नग्न हो गई हो। मैं तुमसे अपने जीवन के तमाम दर्द, मुश्किलें बयाँ कर देना चाहती थी, पर डर था कि तुम फिर उससे उभर पाओगे भी या नहीं। इसलिए मैंने इस पत्र का सहारा लिया।
अंशुमन, मैं एक विधवा हूँ। बचपन में जब मेरी खेलने कूदने की उम्र थी, मेरी शादी करवा दी गई और वो भी मेरे से 20-25 साल अधिक उम्र वाले व्यक्ति से। शुरू में मुझे तो ये गुड्डे-गुड्डी का खेल जैसा लग रहा था, जैसे मैं और मेरे दोस्त बचपन से खेलते आये थे। लेकिन बाद में मुझे समझ आया कि ये गुड्डे-गुड्डी का खेल असल जिंदगी में कितना कठिन है।
11-12 साल की उम्र रही होगी मेरी। मेरे दुधमुँहे दाँत भी अब तक सारे के सारे टूटे नहीं थे। तब ही से मुझे ससुराल का बोझ दे दिया गया। जब अपने कोमल हाथों से बर्तन माँजते समय मेरी हथेलियां छिल जाती थी तो उसमें मरहम लगाने को कोई न होता था।
ख़ैर! सब कुछ बयाँ कर देना इस कोड़े कागज़ में संभव नहीं है। शादी के 6 साल बाद मेरे पति की मृत्यु एक दुर्घटना में हो गयी और 18 साल की उम्र में जब लोग बालिग होते है, मैं विधवा हो चुकी थी।
पति के जाने का दुःख कमा नहीं था कि लोगों ने मुझे ताने देने शुरू कर दिये कि मैंने अपने पति को खा लिया। कुछ लोगों ने मुझे डायन तक कह डाला। मेरी सास जिसे मैं अपनी माँ का दर्जा देती थी, उसने भी मुझे कम न सुनाया। यहां तक तो ठीक था, लेकिन बात मेरे आत्म सम्मान तक पहुंच गई थी। मेरी चूड़ी तुड़वा दी गई। सफेद वस्त्र रूपी चादर ही अब मेरा गहना था। मुझे एक गंदे से छोटे कमरे में बंद कर दिया गया और कहा गया कि यही मेरी नियति है, मेरे पाप का दुष्परिणाम।
मेरे माँ-बाप ने भी मेरा साथ नहीं दिया। उन्होंने कहा कि अब वो विधवा है और उसका ससुराल का वो बंद कमरा ही मुझे मेरे पाप का प्राश्चित दिलवाएगा। पर मुझे पता न चला कि आखिर मैंने किया क्या था। एक दिन किसी ने मेरे ससुराल वालों को मेरा सर मुड़वा देने का परामर्श दिया। मुझे इसकी भनक लग चुकी थी।
जैसे ही मेरे उस खँडहर से कमरे का दरवाजा खोला गया, मैं वहाँ से जैसे-तैसे भाग गई। न मैं घर जा सकती थी और न मेरा कोई ठिकाना था। पर लोगों की बातों ने मुझे इतना तो जरूर समझा दिया था कि शायद मेरे पति के मृत्यु के पीछे मेरा ही कुछ कुसूर था। मैंने उसी दिन से अपना चेहरा किसी को न दिखाने की प्रतिज्ञा कर ली। मैं नहीं चाहती थी कि मैं ओर किसी की जिंदगी पर अपनी काली छाया पड़ने दूं।
इस बात के 2-3 साल हो चुके है और मैंने उसके बाद से किसी को चेहरा कभी नहीं दिखाया। जैसे-तैसे करके मैंने ये साल बिताए है। कितने कष्ट सहे मैंने, अगर लिखने बैठ जाऊ, तब तक तो तुम जग जाओगे।
मैं जहाँ-जहाँ गई, लोगों ने मुझे ग़लत नजरों से ही देखा और तंग आकर मैंने इस ट्रैन को पकड़ लिया। बिना सोचे-समझे की ये ट्रैन मुझे कहाँ ले जाएगी या इसी से कूद कर मेरी मृत्यु हो जाएगी। पर अंशु, इतने में मुझे तुम यहाँ मिल गए। तुमसे मिलने से अब तक ऐसा लगा ही नहीं कि हम पहली बार मिले है। अंदर की दबी भावनाएं फिर जागृत होने लगी। ऐसा लगा कि शायद मेरी मंज़िल तुम्हीं हो। पर फिर मुझे लगा कि कहीं मेरी मनहूसियत तुम्हारे ऊपर भी न पड़ जाएं और न चाहते हुए भी मुझे तुम्हें ऐसे मझधार में ही छोड़ कर जाना पड़ रहा है। अंशु, मुझे भूल जाना और मुझे खोजने की कोशिश न करना। वैसे तो ये ट्रैन ही मेरी अंतिम मंजिल थी, पर तुमसे मिलने के बाद मुझे लगता है कि शायद मेरी मंजिल कुछ और है।
अलविदा अंशु और हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।
तुम्हारी वंशिका”
इतना पढ़ कर अंशुमन के हाथ से कागज का टुकड़ा गिर पड़ा और उस टुकड़े के साथ अंशुमन भी जमीं पर गिर चुका था। सुन्न की आवाज़ उसके कानों में गूँजने लगी थी और धीरे-धीरे उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया। यात्री उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो चुके थे, पर शायद वो कहीं शून्य में जा चुका था।
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सागर गुप्ता