पेंट वाली वो चाय
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पेंट वाली वो चाय
शादी के बाद मै सह पत्नी पहली बार ससुराल जा रहा था। हम पवन एक्सप्रेस से जा रहे थे। सेकंड स्लीपर में आरक्षित कोच होने के बावजूद, अनारक्षित लोग चढ़े चले आते और बस अगले स्टेशन पर उतरना है, कहकर थोड़ी जगह बनाकर बैठ जाते है। हाँ यह बात और है की वो अगला स्टेशन या तो २ घंटे बाद आए या फिर २-३ स्टेशन के बाद आये। भारतीय रेल है। हर एक को सफर करने का अधिकार है, भले वह आपको आरक्षण से मिला है की नहीं क्या फर्क पड़ता है ! अगर आप मना करे तो लोग लड़ पड़ेंगे या फिर आपको भला बुरा कहेंगे। सफर का मजा ऐसे या वैसे किरकिरा तो होना ही है।
सुबह जब आँख खुली तो हमने देखा की २-३ बिन बुलाये मेहमान, पहले से ही हमारी सीट पर “एडजस्ट” करके बैठे है। हमने भी सकुचाते हुए अपने पैर मोडकर बैठ गए। खिड़की से बाहर देखा तो ट्रैन किसी स्टेशन पर खड़ी थी। झांककर मैंने स्टेशन का नाम पढ़ना चाहा पर कुछ नज़र नहीं आया। तब तक आवाज़ आई “मानिकपुर” . एक हट्टे कट्टे मध्यम आयु के सज्जन जो की सामने वाली सीट पर विराजमान थे, यह उन्होंने कहा। नज़र मिलते ही उन्होंने फिर से दुहराया “मानिकपुर। गाडी दो घंटे लेट है। ” आकाशवाणी हुई 🙂 मै सीट जाने से कुंठित था, इसलिए मुझे ना चाहते हुए भी धन्यवाद कहना पड़ा।
इतने में “चाय चाय” की आवाज़ आई। अच्छा लगा। पत्नी से पूछा और मैंने एक कप चाय उनके लिए ले लिया। चाय की कीमत दो रुपये सुनकर मै चौक गया। चाय सस्ती होती है, पर इतनी सस्ती, यह मेरे लिए शॉक था। मैंने सोचा बेचारा इससे कितना कमाता होगा। ब्रश से फारिग होकर पत्नी ने जैसे ही पहली घूँट पी, उसने खिड़की से बाहर थूक दिया। बोली की अजीब टेस्ट है। उसने चाय मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। चूँकि मै काफी सफर करता हूँ, और चाय का शौकीन हूँ तो हर जगह की चाय पिता हूँ। मुझे यह बात का अनुभव था की हर एक को हर तरह की चाय पसंद नहीं होती। मैंने चाय का प्याला ले लिया।
चाय की एक घूँट पीते ही एक अजीब सा स्वाद पुरे शरीर में फ़ैल गया। मुझे लगा की शायद यह पहला घूँट ऐसा था, इसलिए एक और घूँट लिया। पर लगा की ये दो रूपए वाली चाय जम नहीं रही है। मेरी पत्नी मेरा चेहरा देख रही थी। मैंने कहा “हां अच्छी नहीं है, फेक दो” . उसने कप खिड़की से बाहर फेक दिया।
उसके चाय को फेकते ही, वह सज्जन फिर बोले, “अच्छा हुआ आप ने चाय फेक दिया ” . एक तो सुबह सुबह अच्छी चाय ना मिलने से मै परेशान था उसपर से जबरदस्ती का यह वार्तालाप मुझे परेशान कर रहा था। मैंने विस्मय से पूछा क्यूँ? बोले “यह चाय दूध नहीं बल्कि पेण्ट से बनी है। ” मै और पत्नी एक साथ चिल्ला पड़े “क्या ?” उन्होंने कहा हां। मै रेलवे पुलिस में। अक्सर इस रूट पर यात्रा करता हूँ और इन फेरीवालों के कारनामों से अवगत हूँ। इनको रोकना संभव नहीं, इसलिए सतर्क रहना ही जरूरी है। आप लोग संभ्रांत परिवार से दिखते है इसलिए आपको बचाना उचित समझा। अच्छा हुआ आप ने चाय फेक दिया” .
मै और मेरी पत्नी एक दूसरे का मुंह तकते रह गए। अच्छा हुआ हमने दो रुपये का वैल्यू के लिए न तो वो चाय पी और नहीं एक दूसरे को फ़ोर्स किया। मैंने उस सज्जन को शुक्रिया कहा और अपने गंतव्य की तैयारी में जुड़ गए। अब एक-दो घंटो में वो आने वाला था।
पर पेंट वाली वो चाय की याद आज भी मुंह फीका करने के लिए काफी है।
दिनेश कुमार सिंह