चार दीपक
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चार दीपक
चार दीपक आपस में बात कर रहे थे।
पहला दीपक बोला, “मैं हमेशा बड़ा बनना चाहता था सुंदर और आकर्षक घड़ा बनना चाहता था पर क्या करूं ? जरा सा दीपक बन गया।”
दूसरा दीपक बोला “मैं भी अच्छी भव्य मूर्ति बनकर किसी अमीर आदमी के घर की शोभा बढ़ाना चाहता था। पर क्या करूं कुम्हार ने मुझे एक छोटा सा दीपक बना दिया।”
तीसरा दीपक बोला, “मुझे बचपन से ही पैसों से प्यार है। काश मैं गुल्लक बनता तो हमेशां पैसों से भरा रहता। पर मेरी किस्मत में ही दीपक बनना लिखा होगा।“
चौथा दीपक खामोश रहकर उनकी बातें सुन रहा था। अपनी अपनी प्रतिक्रिया देने के बाद तीनों दीपों ने चौथे दीपक से भी अपनी जिंदगी के बारे में कुछ कहने को कहा।
चौथे दीपक ने कहा- “भाइयों, कुम्हार जब मुझे बना रहा था तो मैं बहुत खुश हो रहा था क्योंकि वह मुझे बनाते वक़्त प्रसन्न था। उसने जब मुझे बनाया तो मैं अपने जीवन के प्रति कृतज्ञ हो गया कि मैं एक बिखरी हुई मिट्टी से एक सुंदर दीपक बना गया जो अंधेरे को दूर करने का साहस रखता है।
मैं वो साहसी दीपक हूँ जिसके जलते ही अँधेरा छू मंतर हो जाता है। मैं आभारी हूँ उस कुम्हार का जिसने मुझे ऐसा रूप दिया कि मुझे भगवान के सामने मंदिरों में प्रज्ज्वलित किया जाता है। मेरी रोशनी में पढ़कर ना जाने कितने होनहार बच्चे आज बड़े–बड़े ऑफिसर बन गए हैं और देश की सेवा कर रहे हैं। मेरा प्रकाश सिर्फ अँधेरे को ही दूर नहीं करता बल्कि एक नई उम्मीद और नई ऊर्जा का संचार भी करता है।”
चौथे दीपक की बातें सुनकर अन्य तीनों दीपों को भी अपने जीवन का महत्व समझ में आ गया।
दोस्तों, अक्सर हम इंसान जो मिलता है या जो हम हैं उससे संतुष्ट नहीं होते और उन तीन दीपकों की तरह अपने कुम्हार यानी ईश्वर से शिकायत करते रहते हैं। लेकिन अगर हम ध्यान से देखें तो हमारा जीवन अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है और हम जो हैं उसी रूप में इस जीवन को सार्थक बना सकते हैं।
इसलिए, चौथे दीपक की तरह हमें भी जो है उसमे संतुष्ट हो कर अपना सर्वश्रेष्ठ जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए।
धनेश रा. परमार