गुरुवाणी
गुरुवाणी
||श्री सद्गुरवे नमः||
गुरुनानक जयंती (कार्तिक पूर्णिमा, दिनांक 18.11.2021) पर विशेष |
प्रश्नोत्तर
प्रश्न : नानक देव घर-गृहस्थी में रहते हुए, नौकरी करते हुए ब्रह्मानंद की खोज में अनवरत लगे रहे| कुछ लोगों का कहना है नानकदेव संन्यास नहीं लिए, विरक्त नहीं हुए, घर-गृहस्थी से मुक्त नहीं हुए इत्यादि प्रश्न उठाये जाते हैं| हे गुरुदेव! आपकी दृष्टि में सत्य क्या है? बिना संन्यास लिए, एक गृहस्थ की भाँति जीवन-निर्वाह करते हुए परमात्मा को किस प्रकार उपलब्द्ध हुआ जा सकता है, मार्गदर्शन करें प्रभु!
सद्गुरुदेव उवाच : ये सारे प्रश्न हमारे मस्तिष्क की उपज हैं| हृदयहीनता का परिचायक हैं| हम किसी भी महामानव को समग्रता से नहीं देखते| खण्ड-खण्ड कर देखते हैं| यह सब हमारे खण्डित होने का परिचायक है|
हम जिसे त्याग करना चाहते हैं, अन्तःमन उसे पकड़ लेता है| जंगल में होते हैं तो मन घर पकड़कर बैठा होता है| ध्यान से ब्रह्मचर्य को पाना चाहते हैं तो मन वासना में लिप्त हो जाता है| जिससे मुक्त होना चाहते हैं, सूक्ष्म रूप में उसी से आबद्ध हो जाते हैं| चूँकि तथाकथित संन्यासी मुक्ति को नकारात्मक मान लिए हैं| यह छोड़ो, वह छोड़ो, पुत्र छोड़ो, परिवार छोड़ो- मुक्त हो जाओगे| मुक्ति न किसी को छोड़ने से होती है और न किसी को पकड़ने से होती है| मुक्ति न निषेध है और न विधेय है| मुक्ति तो मुक्ति है- निषेध और विधेय दोनों का अतिक्रमण| द्वैत का अतिक्रमण है| मुक्ति अर्थात् अद्वैत- न वहाँ क्रिया है, न प्रक्रिया| न पक्ष है, न विपक्ष| पक्ष-विपक्ष लड़ने की क्रिया है| जीत-हार का खेल है| मुक्ति जीत-हार से परे है| हम लड़कर उसे नहीं प्राप्त कर सकते| कोई भी आजतक लड़कर नहीं पाया है| लड़कर तो दुःख मिलता है| पराजय मिलती है| विद्रोह भी कैसा? किससे? भागने का नाम ही संसार है| जहाँ से भागेंगे– जहाँ भागेंगे, वह संसार ही तो है| जहाँ हो वहीं जागो| जागने का नाम ही संन्यास है| क्योंकि भागने का कोई अंत नहीं| भागना अंतहीन यात्रा है| जागना ही बुद्धत्व है| जागना ही रुक जाना है| जागना ही संतत्व है| जब हम भयभीत नहीं हैं तो क्यों भागें! भय रहित, क्रोध रहित, वैमनस्य रहित होना ही समत्व है| भ्रातृत्व है|
जागना ही ज्ञान है| ज्ञान ही मुक्ति है| ज्ञान ही संन्यास है|
नानक देव सजग रहे| बोध में रहे| हम भागते हैं भीड़ से, ग्राम से, शहर से| सजग व्यक्ति देखता है– सारी भीड़ मेरे अन्दर ही है| बाहर की भीड़ तो एक बहाना है| हमारा शरीर जीवाणुओं से बना है| सात करोड़ जीवाणुओं का समूह है मानव शरीर| हम समझते हैं– हमारा शरीर है| जीवाणु समझते हैं- हमारा आश्रय है| इतने सारे व्यक्तियों का कोई ग्राम या शहर, इस पृथ्वी पर नहीं है| इस पृथ्वी का सबसे सघनतम शहर मनुष्य शरीर ही है| बहुत सारे देश (मालदीव) ऐसे हैं जिनकी आबादी लाखों में ही है| बहुत सारे देश हैं जिनकी आबादी मात्र एक करोड़ ही है|
हमारा शरीर अत्यंत छोटा है परन्तु है उतना ही जटिल| यह पूरे ब्रह्माण्ड का नमूना है| यही कारण है इसकी जटिलता का| निरंतर मानव मस्तिष्क अत्यंत जटिल होता जा रहा है| इस छोटे से मस्तिष्क में तीन अरब स्नायु तंतु हैं जिन्हें इन आँखों से देखा भी नहीं जा सकता| इन सभी जीवाणुओं, सभी तंतुओं में एक लयबद्धता स्थापित करना ही योग है| सभी का विभिन्न दिशाओं में परिभ्रमण करना ही भोग है, विक्षिप्तता है| जब हम इन्हें लयबद्ध कर, एक हार्मोनी में करते हैं तब अन्दर प्रवेश करने का अवसर उपलबद्ध होता है| एक समस्वर संगीत उत्पन्न होता है| तब प्रत्येक जीवाणु से समान ऊर्जा का नि:सरण होता है, जिस आलोक में हम आलोकित होते हैं| ऐसा ज्ञात होता है, ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन हो रहा है| यही अवस्था है सजगता की, सुरति की|
हमारा शरीर ही पुर है| जिस पुर में सात करोड़ जीवाणु रहते हैं| सभी सजीव हैं| सभी ऊर्जान्वित हैं| इनके मध्य में जो रहता है– वही कहलाता है पुरुष| उस पुरुष तक पहुँचने के लिए बहुत ही तारतम्यता, लयबद्धता, शांतता, मौनता, प्रफुल्लता होनी चाहिए| अन्यथा कोई छोटी सी घटना भी रुकावट बन सकती है| उसी रुकावट को साधक बाधा कहते हैं|
जब किसी देश में कोई आतंकवादी कहीं बम विस्फोट कर देता है तो देश की सारी चेतना उस तरफ दौड़ जाती है| कहीं कोई आक्रमण कर दिया तो समग्र देशवासियों की चेतना उधर ही चली जाती है| आपात्-कालीन व्यवस्थाएँ शुरू हो जाती हैं| देश का सारा धन, जन दौड़ पड़ता है| तत्काल ध्यान केंद्र से हटकर| सीमा पर चला जाता है| इमरजेंसी वर्क चालू हो जाते हैं| पुनः आक्रमण रुक जाने पर जनजीवन सामान्य हो जाता है| हम फिर केंद्र की तरफ लौटते हैं| वही स्थिति है इस शरीर की| कहीं भी चोट लग गयी, पीड़ा होने लगी, खून रिसने लगा, सारा ध्यान उसी ओर दौड़ जाता है| सारी चेतना वहीं पहुँच जाती है| सारे जीवाणु उधर ही बहने लगते हैं| यह शारीरिक अराजकता है जिससे लय टूट जाती है| ध्यान अटक जाता है| सजगता तभी आ सकती है जब हम पूर्ण स्वस्थ हों| स्वस्थ अवस्था में हमारी चेतना कहीं नहीं अटकती| जब आँख में दर्द हो गया, आँख का पता चल गया| बार-बार चेतना आँख की तरफ दौड़ेगी| हाथ बार-बार आँख की तरफ बढ़ेगा| पैर डॉक्टर की तरफ चल पड़ेंगे| मस्तिष्क आदेश देगा- किसी अच्छे डॉक्टर को बुलाओ| यह रोगी का चिन्ह है| पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति को शरीर का भान नहीं रहता है| जब हम शरीरगत भान भूल जाते हैं तब पुरुष की तरफ ध्यान करते हैं|
नानक पूर्ण स्वस्थ हैं| उनका ध्यान शरीर या परिवार तक जाता ही नहीं| उनकी चेतना दौड़ती है – उस पुरुष की तरफ| वही परम पुरुष है| चेतना तो शाश्वत है| न उसकी मृत्यु होती है न जन्म|
संन्यासी की चेतना में समरसता होती है| संन्यास कोई दिखावटी बाना नहीं है| यह तो शरीर का आवरण है| यद्यपि रहन-सहन, उठना-बैठना, सोना-जागना, सम्यक हो जाना भी संन्यास की ही घटना है, परन्तु अति पर रहना संन्यास नहीं कहा जाता है| संन्यास में चार गुणों की समरसता होती है| पहला जागृत होना, दूसरा समस्वरित होना, तीसरा आनंद, उत्सव में जीना और चौथा गुण है कारुणिक होना| करुणा से लबालब होना| संन्यास से सजगता आती है| ध्यान से जागृतता आती है| सजगता और समस्वरिता (संगीत, लयबद्धता, तारतम्यता से समस्वरिता का आगमन होता है) होने से आनंद का स्रोत खुलता है| जो परमानन्द तक ले जाता है| परमानन्द के शिखर पर करुणा का जन्म होता है| अब आनंद ही आनंद, उत्सव ही उत्सव है जिसे वह खुलकर बाँटता रहता है सभी को| नानक का रास्ता यही है| वे जहाँ हैं, वहीं संन्यासी हैं| परन्तु उनकी नक़ल नहीं की जा सकती है| नक़ल करने पर व्यक्ति को बहुत जोर लगाना पड़ता है और तब वह फोटो कॉपी बन जाता है| सत्यापित प्रतिलिपि बनता है| वास्तविक नहीं| वास्तविकता इससे कोसों दूर रहती है| नक़ल करने में वास्तविकता की हत्या कर डालता है|
सदियों से नक़ल को या शरीर को सताने को ही संन्यास कहा जाता रहा है| शरीर को सताना भी तपस्या माना गया| जैसे जैन मुनि सताते हैं| शरीर से प्रेम करना नहीं सीखते हैं| इसे पीड़ा देना, कष्ट देना ही पुण्य मानते हैं| यह शरीर उस पुरुष का आवास है, पुर है| यह निरंतर सेवा करता है| जब हम सो जाते हैं तब भी यह अपने काम में लगा रहता है, सोने में यह श्वास लेता है, खाना पचाता है, खून बनाता है, अवांछनीय पदार्थों को विलग करता है| वांछनीय पदार्थों को खून में बदल देता है| वैज्ञानिक आजतक खून बनाने में असमर्थ रहे हैं | जब हम गहरी नींद में होते हैं, मच्छर-मक्खी काटते हैं तो हाथ अनायास उन्हें भगा देता है| नींद में खलल उत्पन्न नहीं होने देता|
शरीर अपनी आवश्यकतानुसार प्राथमिकता देता है| जैसे शरीर के पास ऑक्सीजन की कमी हो गई तो वह तुरंत शरीर के अन्य भाग में उसकी आपूर्ति बंद कर देगा| प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले मस्तिष्क को ऑक्सीजन की आपूर्ति करनी है| क्योंकि यदि छः मिनट तक उसके तंतुओं ऑक्सीजन नहीं मिलेगी तो वे मर जायेंगे| इसके बाद ह्रदय को आपूर्ति करता है|
शरीर में कहीं भी चोट लगती है, घाव हो जाता है तो वह सफ़ेद रक्त कोशिकाओं को उस घाव के पास भेजकर उसे ढँक देता है| अब उस घाव को ठीक करने के लिए युद्ध स्तर पर काम करने लगता है|
हम शरीर को स्वस्थ तो नहीं करते, परन्तु उसे अस्वस्थ करने में भी नहीं चूकते| ज्यादा भोजन करना, शराब पीना, धूम्रपान करना, यह सब उसे अस्वस्थ करना ही है| अत्यधिक जागना, सोना, खड़े रहना, बोलना इत्यादि उसे रुग्ण करने का ही उपक्रम है| शरीर स्वयं अपने को स्वस्थ करता है| हम मात्र उसकी मदद कर सकते हैं बाह्य आक्रमण को रोककर| औषधियाँ इस काम में मदद करती हैं| वह स्वस्थ कैसे होता है- यह अभी तक शोध का विषय है|
नानक विभिन्न परिस्थितियों में पूर्ण सजग हैं, जागृत हैं| किसी से इन्हें निषेध नहीं है|
परमात्मा ही सृष्टिकर्ता है, स्वयं सृष्टि में निहित है| वह नानक रूपी ऐनक से मुखर हो रहा है| ये संसार के विरोधी नहीं हैं, इसलिए इनके संन्यासी और विरोधी अलग-अलग नहीं हैं| वे कहते हैं कि सृष्टि और उसको बनाने वाला तो वही है| वह इन्हीं में छिपा है| यहीं मिल जायेगा| नानक देव जीवन भर इसी संसार में रहे| ये यात्रा पर उदासी बनकर जाते रहे| ये तो पाए अनाज तौलने में, तेरा कहने में; ये तो पाए नदी में डुबकी लगाते हुए|
नानकदेव एक साधारण आदमी की तरह नदी में खो गए थे, परन्तु वापस लौटे सम्राट होकर| जो भी परमात्मा में डुबकी लगाकर लौटता है, वह सम्राट होकर ही लौटता है| तीन दिन बाद जब नानक प्रगट हुए तो उनके मुँह से जो निकला– वही है जपुजी – जपु जी साहब| चूँकि उनके मुँह से उद्घोषणा हो रही है– साहिब के द्वारा| साहिब अर्थात् सर्वसमर्थ परमात्मा|
साधक की कुण्डलिनी जागती है तब ऊर्जा शरीर में भर जाती है| ठण्ड के महीने में भी पसीना छूटने लगता है| सहस्र दल कमल बरसने लगते हैं| परमात्मा बरसने लगता है| गुरु अनुकम्पा की बाढ़ आ जाती है| सत्- रज- तम् का वस्त्र उतार फेंकता है| उस परमात्मा की वर्षा और गुरु अनुकम्पा की बाढ़ में स्वयं को विसर्जित कर देता है| ‘मैं’ गिर गया| समाप्त हो गया| अब परमात्मा बाहर आ गया|
परमात्मा के आने में तीन दिन लगे हैं| ‘मैं’ तीन दिन में मरा है| आदमी के मरने के तीन दिन बाद तीसरा मनाया जाता है| मरने की घटना तीन दिन में पूरी होती है| इनका अहंकार नदी में बह गया| जब बाहर निकले तो वह था नहीं| संसार तो अहंकार ही देखता है| तभी तो जब कोई व्यक्ति संन्यासी बनता है, संन्यासी का वस्त्र पहनता है, परिवार के लोग मायूस हो जाते हैं| रोने लगते हैं| सोचने लगते हैं– अब यह हमारे काम का नहीं है| अब हमारे लिए मर चुका है|
तीन दिन में नानक मिट गए| जो वापस लौटा है– वह परमात्मा है| अभी तक प्यासा था| अब लोगों की प्यास बुझाने वाला आ गया| अब नानकदेव नहीं हैं| अब तो परमात्मा ही बोलेगा| परमात्मा ही गुरु होता है| इसी से इन्हें अब गुरु कहा गया| परन्तु यह इंगित करता है कि कल का नानक वेदी ही अब गुरु नानक बन गया है| बन गया कहना भी गलत है| गुरु उतर आया, परमात्मा स्वयं उतर आया| नानक विदा हो गया|
सच कहा जाये तो यह जपुजी महामंत्र है| वेद की ऋचा को मन्त्र कहा जाता है| चूँकि वह अपौरुषेय है| वह कोई पुरुष अर्थात् व्यक्ति नहीं बोलता है| व्यक्ति माध्यम हो सकता है| बोलता तो वही है– अपौरुष, निरंकारी| यहाँ गुरुजी के मुँह से भी प्रथम वाणी जो निकलती है, वह मन्त्र है –
ॐ सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु|
अकाल मूरति अजुनी सैभं गुर प्रसादि||
वह एक ओंकार स्वरूप है| वही सतनाम है, कर्ता पुरुष है, भय से, वैर से रहित है| कालातीत (समयातीत) मूर्ति है, अयोनि है| वह स्वयंभू है| वह गुरु की कृपा से प्राप्त है|
यह महामन्त्र है| इस मन्त्र से धर्म के सारे रहस्य खोले जा सकते हैं| जैसे गणित के सूत्र से गणित को बनाया जा सकता है| मेरी समझ से एक ओंकार सतिनाम ही काफी है| यही गुरु नानक के मुँह से निकला पहला शब्द है| यही सार है| इसी पर सिक्ख धर्म खड़ा है| सिक्ख अर्थात् किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं कह रहा हूँ| जो भी अपने को शिष्य समझ रहा है| जिसमें भी सीखने की कला है|
अकसर आदमी सीखना ही नहीं चाहता है| अहंकार में समझ बैठा है कि मैंने सब कुछ सीख लिया| अब कुछ भी शेष नहीं| इससे आगे जो कुछ कहा गया है, वह उसका ही विस्तार है| जैसे ‘घी’ ही वास्तविक रहस्य है दही का| दही रहस्य है दूध का| दूध रहस्य है गाय का| गाय चारा, खली और भूसी का| इस तरह संसार निर्मित होता जाता है| संख्या का विस्तार होता जाता है|
गुरु नानक देव इसे जाने– तीन दिन समाधि में रहने के बाद| वह समाधि भी नदी में जहाँ अपना बह गया उस धार में| जो रहा गया वही एक| आज के पहले वे गुनगुना रहे थे| अब वही ध्वनि करने लगे| ध्वनि ही शब्द है| शब्द ही ब्रह्म है| शाश्वत है| सभी संतों का यही मत है| संतों में अंतर नहीं है| स्थान विशेष, व्यक्ति विशेष, भाषा विशेष से कहने का ढंग अलग-अलग हो सकता है|
वह जो एक है उसका नाम कहना कठिन है| उसे भाषा शब्द में बाँधा नहीं जा सकता है| वह शब्दातीत है| फिर भी जो कुछ देखा है, समझा है, वह है- ओंकार| ॐ कोई शब्द नहीं है| न ही भाषा है| इसकी अनुभूति आत्मशरीर से शुरू होती है| ब्रह्म शरीर से घनीभूत होती है| सहस्रार से एक ओंकार ही रह जाता है|
सब बातें आत्म शरीर तक होती हैं| इसके बाद इशारे से काम लिया जाता है| भगवान् महावीर आत्म शरीर तक बात किये| बुद्ध भी ऊपर इशारा किये| परन्तु वह भी ब्रह्म शरीर तक किया जा सकता है | ब्रह्म शरीर के बाद इशारा नहीं किया जा सकता है| वहाँ ॐ से ही काम चलाया जा सकता है|
जब मैं गुरु सान्निध्य में आया, ओंकार में प्रवेश किया तब भेद खुल गया| यही उलटा जाप है| मैंने इस साधना को सामूहिक रूप से कराया भी| वही कृष्ण का प्रणव है| वही नानक का इक ओंकार है| कबीर का एक अण्ड ओंकार है| वही वाल्मीकि का उलटा जाप है|
समय के सद्गुरु समय, स्थान एवं व्यक्ति के अनुसार साधना में परिवर्तन करते रहते हैं| भाषा में परिवर्तन करते हैं| सतयुग की साधना त्रेता में संभव नहीं है| अतएव त्रेता के ऋषियों ने उस काल के अनुसार भाषा का प्रयोग किया एवं उसी के अनुरूप साधना दिया| त्रेता की भाषा एवं साधना द्वापर में उपयोगी साबित नहीं हुई| अतएव कृष्ण को इसे समयनुसार बदलना पड़ा| त्रेता के बाद कलियुग में और जटिलता आ गई| अतएव बुद्ध महावीर को भाषा एवं साधना-विधि को फिर बदलना पड़ा| रुढ़िवाद पर प्रहार किये| समय के साथ जो गति कर सके उसी भाषा का प्रयोग किये| जिस विधि से व्यक्ति का विकास हो उस विधि का अविष्कार किये| लोगों को बताये|
बुद्ध के आगमन के तक़रीबन दो हज़ार साल बाद नानक और कबीर आये| दोनों ने नई भाषा को ईजाद किया| अपनी अविष्कृत साधना से लोगों को अवगत कराया| जिससे समकालीन लोग अत्यंत लाभान्वित हुए| उनको गए भी पाँच-छः सौ वर्ष हो गया| अतः वह विधि एवं भाषा अब उतनी उपयोगी नहीं रह गई| जिससे विश्व जनमानस को आंदोलित किया जा यही जा सके| यही कारण है कि समय समय पर सदगुरुओं को परमात्मा भेजते रहते हैं|
नानक भारतीय परंपरा के संन्यासी थे| जैसे अत्रि, याज्ञवल्क्य, भरद्वाज, कृष्ण, सदाशिव| गृहस्थ होना आसान है| परन्तु संन्यासी और गृहस्थ एक साथ होना अत्यंत कठिन है| जिसे बुद्ध ने अलग किया, शंकराचार्य ने आगे बढ़ाया| या यों कहा जाये कि दोनों साथ-साथ ही चलते हैं| जैसे वेदव्यास और शुकदेव हुए, नारद और कार्तिकेय भी हुए| केवल गृहस्थ या केवल संन्यासी होना आसान है| माया अपनी तरफ आकर्षित करती है| वैराग्य अपनी तरफ आकर्षित करता है| दोनों की अपनी अहमियत है| नानक देव भी इसी की नींव रखे| केवल पगड़ी बाँध लेना, जपुजी याद कर लेना ही सिक्ख नहीं है| व्यक्ति बाह्य रूप नहीं रखते हुए भी सिक्ख हो सकता है और इस रूप में रहते हुए भी सिक्ख नहीं हो सकता है| जैसे संन्यासी के रूप में होते हुए भी बहुत से लोग संन्यासी नहीं होते हैं| तभी तो कबीर साहब कहते हैं–
दढ़िया बढाये, योगी बन गया बकरा|
मन न रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा||
गुरु नानक देव एक विलक्षण गुरु हैं| गुरुनानक ने किसी की नक़ल नहीं की| इन्होंने जो कुछ देखा है, सुना है, समझा है, वही मुख से निःसरित हुआ है| इसीलिए वाणी को इनके लिए एक नया शब्द देना पड़ा| यही है गुरुवाणी| यह शब्द अत्यंत प्रीतिकर है| अनूठा है, प्यारा है, मनोहर है, आकर्षक है|
गुरु नानक देव जी ने जो कहा वह गुरुवाणी कहलाया| वाणी के पीछे नहीं दौड़े| भाषागत विद्वता ग्रहण करने के चक्कर में नहीं पड़े| कभी पुराणों के पन्नों को नहीं पलटा या वेद की रचनाओं को कंठस्थ नहीं किया| वे अपने अंतरतम में प्रवेश कर गए| अन्दर ब्रह्माण्ड को देख लिया| सारा रहस्य एक-एक कर खुल गया| पर्दा हट गया| अनायास ही उनके मुँह से निकल पड़ा| सुनने वाले दंग रह गए| अवाक् रह गए| इनकी अपनी भाषा, अपने शब्द, निर्झर की तरह अनायास झरने लगे| बहता गया शीतल मधुर जल जो धारा बन गया| देखते ही देखते इसने नदी का स्वरूप ग्रहण कर लिया| आसपास के लोग इसमें स्नान करके तृप्त होने लगे| अभी तक माँ तृप्ता ही तृप्त थी, किन्तु अब इससे विश्व-ब्रह्माण्ड तृप्त होने लगा| यही भाषा गुरुमुखी कहलाई| जो नदी बन गई| वह जल गुरु वाणी कहलाया| जिसमें जनसमूह ऊँच-नीच का भाव भूलकर गोते लगाने लगा| यह नदी बढ़ती ही गयी, बिना किसी रुकावट के निरंतर अबाध कल-कल करके| आज भी बह रही है| चल रही है| कल भी बहती रहेगी| क्योंकि इस सरिता के पीछे विपुल जल स्रोत है, जो कभी सूखने वाला नहीं है| यह स्रोत है अनंत का|
सद्गुरु टाइम्स पत्रिका से साभार….
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||हरि ॐ||
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –