लंका में माँ जानकी की पूजा
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समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत..
||श्री सद्गुरवे नमः||
लंका में माँ जानकी की पूजा
विजयदशमी के पूरे दिन लोगों की भीड़-भाड़ बनी रही। सेवक-शिष्य गणों से बातें होती रहीं। मैं उपवास में था। मेरा मन कहता था, क्या अयोध्या चलूँ? सर्वत्र विजयादशमी धूम-धाम से मनाई जा रही थी। रावण का पुतला हजारों जगह रखा गया था। उसे जलाने की तैयारी चल रही थी। क्या रावण प्रतिवर्ष अपने पुतले को जलाते देखकर दुःखी नहीं होता है! क्यों लोग रावण को जला रहे हैं?
प्रति मन कहा- वह अत्याचार, अनाचार का प्रतीक है। जो पुतला जलाता है, वह कौन राम-सा आदर्शवादी है? आज की जनता, उसका प्रतिनिधि तो स्वयं महा-रावण बन गया है। वहाँ एक ही सीता का अपहरण हुआ था। यहाँ तो प्रतिदिन-प्रतिक्षण सीता का अपहरण हो रहा है। दानवता अट्टाहास करती है। इतने बड़े-बड़े घोटाले हो रहे हैं। ये रावण उससे आगे बढ़ गए हैं। उसने सीता का अपहरण किया परन्तु उनसे अनैतिक सम्बन्ध नहीं स्थापित किया, न ही उनकी हत्या की। आज तो हजारों सीताओं के साथ बलात्कार होता है। सामूहिक बलात्कार एवं उसकी हत्या कर साक्ष्य भी मिटा दिए जाते हैं। रावण भी इस दृश्य को देखकर शर्मिंदा हो जाएगा।
मन-प्रतिमन में द्वंद्व उठ रहा था। संध्या, पूजा-पाठ हुआ। कुछ सत्संग हुआ। सभी अपने घर लौट गए। मैं कुछ फल-फूल-मिष्ठान्न-गंगा जल लेकर अपने कक्ष में चला गया। अतिथि के स्वागत में आसन लगाकर सभी सामान रखकर अगरबत्ती जला दी। ध्यान में-प्रतीक्षा में बैठ गया। ध्यान द्वारा यही संदेश भेज रहा था कि नारदजी कहीं आप अयोध्या के स्वागत-सत्कार में न फँस जाएँ। या आप किसी अन्य लोक में न चले जाएँ।
ठीक दस बजे मेरी दृष्टि घड़ी पर टिक गई। ‘ओऽम्’ की ध्वनि गूंजने लगी। प्रकाश की किरणें खिड़की से प्रवेश कर उसी आसन पर केन्द्रित होने लगीं। वही प्रकाश पुंज नारद के रूप में बदल गए। मैंने खड़े होकर स्वागत किया।
‘गुरुदेव! पहले आप मेरा प्रसाद ग्रहण करो। भगवान राम से मैंने आपके सम्बन्ध में कहा। उनकी आँखों में आँसू आ गए। आपके लिए यह माला अर्पित किए हैं। इसे स्वीकार करें|’ माला पहना दिए। फिर आप यह मिष्ठान्न एवं फल स्वीकार करें।
मैंने कहा, ‘आप मेरा आतिथ्य स्वीकार करें- मैं आपका।’
घड़ी में दस-तीस होने लगे। मैंने घड़ी पर दृष्टि डाली। नारद जी बहुत खुश थे। बोले- ‘मैंने रावण से बोल दिया है। वे दोनों भाई मेरे साथ आपके दर्शन हेतु आने के लिए जिद्द कर रहे थे। मैंने मना कर दिया। हो सकता है आज की सभा का मुख्य अतिथि आपको ही रखें।’
मैंने कहा, ‘यह क्या देवर्षि नारद जी?’
उन्होंने कहा- ‘समय का उपयोग जिसने करना सीख लिया, वही देवता है। जो समय का अनादर करता है, वही दैत्य है। आप समय के सद्गुरु हैं। समय का आदर करना हमारा कर्त्तव्य है-प्रभु अच्छा आप तैयार हो जाएँ। वहाँ हमारी उपस्थिति अनिवार्य हो गई। देखिए हमारा गिटार ध्वनित हो रहा है। यह संदेश पकड़ता है। हमारी व्यस्तता के क्षण में मूल कार्य के प्रति सजग करता है। यह हमारा सलाहकार, संदेश ग्राहक, संदेश वाहक भी है। इसीलिए इसे सदैव साथ रखता हूँ।’
मैंने कहा, ‘कैसे हमको साथ ले चलेंगे?’
नारद जी ने कहा-‘यह भी हमें ही बताना पडे़गा?’
मैंने पद्मासन पर बैठकर ध्यान को ऊपर किया। ब्रह्मरंध्र से बाहर आ गया। नारद जी कक्ष से बाहर निकल गए। मैं उनके पीछे-पीछे चल दिया। नील गगन में हम दोनों प्रसन्नतापूर्वक गमन कर रहे थे। नीचे समुद्र नीला ऊपर गगन नीला। यह दृश्य अति मनमोहक था। समुद्र के मध्य के जगमग जगमगा रहा था। नारद जी ने कहा, ‘यही है लंका। आज इसे दुल्हन की तरह सजाया गया है। विभीषण वैष्णव है। यहाँ राम राज का संविधान लागू है।’
हम लोग नीचे उतरे। विभिन्न प्रकार के वृक्षों से घिरा, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े सुन्दर तालाब, सड़क के किनारे मणि-माणिक्य सा दृश्य था।
मैंने कहा- ‘नारद जी! यह लंका है या स्वर्ग?’
नारद जी कहे-‘यह लंका ही है। स्वर्ग से भी ज्यादा सुन्दर है। राम राज की व्यवस्था है।’
यहाँ छवि अति न्यारी थी। वाटिका के द्वार पर हम लोग उतरे। गगन भेदी नारे सुनाई दिए। जय गुरुदेव जय-जय गुरुदेव। श्री राम जय राम जय जय राम। जय गुरुदेव जय जय गुरुदेव। विशाल शरीर का मालिक बड़ी-बड़ी मूछें। सिर मुकुट, माथे पर त्रिपुण्ड लगाए; गले में रुद्राक्ष के साथ तुलसी की माला धारण किए हुए आए, झुक कर प्रणाम किया एवं माला पहनाए। बोले- ‘मैं लंका का पूर्व राजा रावण लंका में आपका स्वागत करते हुए अपार हर्षित हो रहा हूँ।’ दूसरा आदमी भी उसी तरह मुकुटादि से विभूषित चेहरा सुन्दर गौर वर्ण झुककर प्रणाम किया। माला मेरे गर्दन में पहनाई एवं बोला-‘मैं महाराज का अनुज राम भक्त लंका का वर्तमान अधिपति विभीषण आपका स्वागत करता हूँ। मैं परम सौभाग्यशाली हूँ कि आपकी चरण रज लंका की धरती को पवित्र कर रही है।’
विशाल अशोक वन था। दूर-दूर तक फैला था। विभिन्न प्रकार के फल-फूल से वृक्ष लदे थे। कुछ पहचान सका, कुछ वृक्षों को मात्र देखते हुए आगे बढ़ा। मंद-मंद शीतल हवा चल रही थी। सभी पुरुष, औरतें, प्रौढ़ एवं युवा ही दिखाई दे रहे थे। अति सम्मुन्नत वहाँ का विज्ञान, सभ्यता-संस्कृति प्रतीत हो रही थी। जगह-जगह चन्द्रमा की तरह बिना किसी आधार के लटके प्रकाश पिण्ड थे।
मंच पर पहुँचा- अरे यह मंच है या स्वर्ग का दृश्य है? महाराज रावण आगे बढ़कर एक उच्चासन पर हमें बैठाए। वह आसन स्वर्ण रचित विभिन्न प्रकार के रत्नों से जगमगा रहा था। साथ ही बिना किसी आधार के धरती से लगभग दस फीट ऊपर खड़ा था। मेरे आसन के नजदीक जाते ही स्वतः नीचे आ गया। बैठते ही वह स्वतः ऊपर उठ गया। आसन के ऊपर छत्र लगा था। दोनों तरफ दो अति सुन्दर युवतियाँ दोनों तरफ से चँवर हिला रही थीं। वह भी बिना किसी आधार के प्रसन्न मुद्रा में खड़ी थीं।
मैंने नारद जी की तरफ इशारा किया। वे मग्न हो कर नाचने लगे। बोले- ‘नहीं-नहीं, मैं तो दासों का दास हूँ। आज मैं प्रसन्न हूँ। भगवान राम, माँ जानकी तो इस लंका में पैर रखे थे। आप इस जन्म में रख दिए। लंका सद्विप्र समाज का गढ़ है।’
बहुत बड़े थाल में एक औरत जल लाई। फिर अति सुन्दर दो औरतें पद्प्रक्षालन करने लगीं। मैं उनके हाव-भाव से समझ गया, यह महारानी मंदोदरी हैं। यह विभीषण की रानी हैं। फिर आरती की गई। विद्वान ब्राह्मण गण वेदों की ऋचा बोलने लगे। मैं कभी आँख खोलता कभी बंद करता। इतना सुन्दर, मधुर भाषा में संस्कृत का उच्चारण तो सुना ही नहीं था। मानों उनके मुँह से साक्षात् सरस्वती बोल रही थी। सभी ब्राह्मणों का चेहरा उनके त्याग, तप से चमक रहा था। आँखों से सूर्य-चन्द्रमा सा तेज निकल रहा था। मानों वेद स्वयं उनके मुँह से बिना प्रयास निकल रहे थे। मैं मंत्र मुग्ध सुनता रहा। फिर माँ जानकी का पूजन प्रारम्भ हुआ। मानों माँ जानकी साक्षात् बोल रही हैं। झुक-झुककर सभी को आशीर्वाद दे रही हैं। यह सात्विक पूजा रात्रि के चार बजे तक चलती रही। लगभग एक सौ आठ ब्राह्मण एक साथ मंत्र बोल रहे थे। सभी का मुख मण्डल एक जैसा था। मानो ब्रह्मा जी ने स्वयं एक ही सांचे में ढाल दिया था। ये ब्राह्मण एक तरफ खड़े थे। सभी की उम्र लगभग बीस से पच्चीस होगी। वे सभी मंत्र का उच्चारण कर रहे थे। दो सौ सोलह के मुँह से वेद वाणी निकल रही थी; ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो एक ही व्यक्ति बोल रहा हो। क्या सभी के मुँह से माँ शारदा ही तो नहीं बोल रही है। ऐसा ही सम्भव है। अन्यथा आगे-पीछे होना सम्भव था।
रावण मंदोदरी के साथ बैठे थे, विभीषण अपनी पत्नी सरमा के साथ बैठे थे। दोनों भाई पूजा कर रहे थे। पूरी रात्रि पूजा चली। मैंने ऐसी विधिवत पूजा आज तक नहीं देखी थी। पूजा की समाप्ति पर देवेन्द्र ने पुष्प वर्षा की। फिर माँ जानकी की आरती सम्पन्न हुई। अन्त में प्रसाद वितरण प्रारम्भ हुआ। रावण एवं विभीषण दोनों भाई पति-पत्नी स्वयं सभी को प्रसाद दे रहे थे। अति श्रद्धा-प्रेम था उनके चेहरे पर। मानों बिना किसी भेदभाव के सभी आमंत्रित-गैर आमंत्रित अतिथि को अपने हृदय में बैठाकर प्रसाद खिलाना चाहते हैं। सभी को पानी से लेकर प्रसाद तक स्वयं दे रहे हैं। उनकी सुन्दरता, शोभा अवर्णनीय थी। जो सुना था कि स्वर्ग की औरतें एवं पुरुष और सामग्री सभी सुन्दर युवा हैं। वह लंका में देखने को मिला। कोई नौकर नहीं, कोई गुलाम नहीं, कोई शूद्र अछूत नहीं। सभी अवसर पाते ही जिधर आवश्यकता समझते उधर ही लग जाते थे। उस भीड़ में कोई कोलाहल नहीं। पाँच बजे तक प्रसाद वितरण एवं पारण समाप्त हो गया। स्थल साफ हो गया। फिर बिना शोरगुल के सभी यथा स्थान पर बैठ गए। मुझे भी उसी उच्चासन पर बैठाया गया।
सभा का संचालन विभीषण जी ने प्रारम्भ किया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि देव-सभा से भी बढ़कर है। सभी बिल्कुल शान्त चित्त पृथ्वी से ऊपर बैठे हैं। सभी का वस्त्र धोती-कुर्ता, माथे पर चंदन, गर्दन में तुलसी की माला। सभी मन ही मन गुरु मंत्र का स्मरण कर रहे थे। कोई तनाव नहीं, कोई चिंता नहीं।
विभीषण जी ने ऋग्वेद के मंत्रों से सभा की कार्यवाही प्रारम्भ की। फिर उन्होंने कहा- ‘आज अति प्रसन्नता का विषय है कि हमारे बीच सदियों बाद आर्यावर्त से गुरुदेव का आगमन हुआ है। ये सप्तऋषियों में से एक हैं। ये ही ‘सद्विप्र समाज’ की स्थापना किए थे। जिस पर हमारी लंका की सभ्यता संस्कृति एवं विकास की गति निर्भर है। आज सच में हमारे लिए विजयोदिवस है। माँ जगत जननी सीता को इन्होंने मानस पुत्री के रूप में आदर दिया। इनका पालन-पोषण, शादी-विवाह से लव-कुश तक इनके करुणा में पले-बढ़े। राजा जनक का विदेहराज इनका ही अनुगामी था। इसके लिए हम विशेष आभारी हैं देवर्षि नारद का। जिन्होंने हमें ऐसा अवसर प्रदान किया। देवर्षि से नम्र निवेदन है कि आज अपनी वीणा के भक्ति रस से हमारी अन्तश्चेतना को तृप्त करने की कृपा करेंगे।’
देवर्षि नारद प्रसन्न चित्त खड़े हुए। आँखें बंद कर ध्यान में अपनी करतल एवं वीणा को छेडे़। उनके मुँह से निकला जिसका सारांश था; चूंकि उनका संगीत सरल-सुबोध संस्कृत में था। लंका की प्रजा भी संस्कृत भाषा का प्रयोग करती है।
हे प्रभु! मेरे तो तुम ही हो जीवनाधार।
न मैं जानूं पूजा-पाठ, मेरे तुम हो करन धार।
इस सृष्टि के कण-कण में तुझे ही देखूं।
तुम्हारे सिवाय न कोई, जिसे मैं पेखू।
तुम्हीं मेरे इष्ट राम, तुम्हीं गिरिधर गोपाल।
तुम्हारा ही भरोसा अन्य न कोई मुझे रखन वाल।
मेरी एक ही तमन्ना हे प्रभु, सदैव रहूं सहज समाधि।
तेरे भजन में सदैव रहूं, न चाहिए मुझे कोई उपाधि।
आज आपने निहाल किया; सद्गुरु का दर्शन कर तन-मन निर्मल किया।
इस भजन में इतने मस्त हो गए कि वे सभी कुछ भूल गए। उनका सम्पूर्ण शरीर नृत्य करने लगा। उनके शरीर से प्रकाश की आभा फूट पड़ी मानो आकाश से साक्षात् चंद्रमा उतर कर इस शरीर से नृत्य कर रहा हो। मैंने देखा सभा के सारे सदस्य आत्मविभोर हो गए हैं नृत्य में हैं। पेड़-पौधे भी झूम रहे हैं। मोर-पक्षी, हाथी,शेर, वृषभ, सभी अपना भान भूलकर नाच रहे हैं। ऊपर देखा तो देवतागण भी नृत्य कर रहे हैं। पुष्प वर्षा कर रहे हैं। सप्तऋषि भी सशरीर नृत्य कर रहे हैं। मैं भी अपने को नहीं रोक सका। सोचता था क्या हम लोगों का श्रीराम नाम कीर्तन का नृत्य यहाँ पहुँच गया है या इनका संकीर्तन ध्वनित होकर हम तक पहुँचा है। फिर सोचने का भाव समाप्त हो गया। मानो हम सभी एक में मिल गए। सभी का अस्तित्व समाप्त हो गया। सभी एक विराट में प्रवेश कर गए। फिर वही विराट पुरुष नृत्य कर रहा है। शरीर का भान समाप्त हो गया।
‘आप सभी बैठ जाएँ अपने-अपने स्थान पर।’ जय गुरुदेव-जय गुरुदेव सुनाई पड़ रहा था। साथ ही उद्घोषणा थी विभीषण जी की। ‘अब निवेदन करूंगा अपने अग्रज महाराज रावण जी से जो मेरे पिता तुल्य हैं, स्वामी श्री की सेवा में अपने दो शब्द कहेंगे।’ इतना कहकर विभीषण जी अपने भाई के गले में स्वर्णाभूषण डालकर उनका पैर स्पर्श कर एक तरफ बैठ गए। महाराज रावण उठ खड़े हुए। सभी ने तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया।
महाराज मंद-मंद मुस्कुराते हुए आगे आए। उनके चेहरे से अपूर्व तेज निकल रहा था। हाथ जोड़ संस्कृत में वेद मंत्रों का उच्चारण किए। फिर बोले- ‘सबसे पहले देवर्षि नारद को मैं प्रणाम करूँगा। उनकी सदैव कृपा हम लोगों पर बनी रहती है जिससे हम अपनी साधना एवं नैतिकता के प्रति सचेत रहते हैं। इनके लिए समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड एक समान बना रहता है। आप देव, दानव, नाग, गंधर्व सभी के मध्य आदर एवं प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं। आप अजातशत्रु हैं। आप भक्त शिरोमणि हैं। आपकी महती कृपा का ही परिणाम है कि पृथ्वी से दिव्य विभूति को हमारे मध्य लाए हैं। जिसकी एकमात्र आकांक्षा रहती है कि समस्त पृथ्वी कैसे एक परिवार सी दृष्टिगोचर होगी। उसके लिए आप सद्विप्र समाज की स्थापना करते हैं। लोगों को उस नैतिक पथ पर चलने को बाध्य करते हैं। जिससे कमल एवं गुलाब, खरगोश एवं शेर, गाय एवं हाथी का समान विकास हो। सभी इस पृथ्वी पर वैर भाव का परित्याग कर समान रूप से विचरण करें। अतएव आपको भी मेरा बार-बार प्रणाम है।’
‘हम लोगों की यह अवस्था अनन्त जन्मों का परिणाम है। सभी में एक ही आत्मा विद्यमान है। फिर भी शरीर विभिन्न हैं। चूँकि शरीर का निर्माण मन के द्वारा होता है। आर्यावर्त में चार वर्ण जन्मना न होकर कर्मना हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिचायक है। जो केवल शरीर को ही महत्त्व देता है। उसका सारा व्यक्तित्व का केन्द्र शरीर है। शरीर सुख-दुख का भोक्ता है। इसका सम्पूर्ण चित्त मूलाधार-स्वाधिष्ठान चक्र के आस-पास घूमता है। वासना एवं इंद्रिय सुख ही जिसके लिए सर्वोपरि हैं। वही है-शूद्र।’
‘दूसरा चित्त वैश्य है। जिसका मन वासना में तो रहता है लेकिन सम्पूर्ण व्यक्तित्व धन, वैभव, मान, प्रतिष्ठा, यश, कीर्ति आदि के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। जहाँ शूद्र शरीर से स्वस्थ रहता है। मन से रुग्ण रहता है। वहीं वैश्य शरीर से रुग्ण मन से प्रसन्न रहता है। शूद्र का ईश्वर शरीर वहीं वैश्य का ईश्वर धन होता है। लेकिन वैश्य धन को पूजा-पाठ में खर्च करने के प्रति उन्मुख रहता है।’
‘तीसरा क्षत्रिय है। यह शरीर और मन दोनों से ऊपर उठकर आत्मा में जीता है। क्षत्रिय शरीर, धन, पद, प्रतिष्ठा सभी कुछ दांव पर लगा देता है-आत्मा के लिए। यही कारण है कि क्षत्रिय राजा सभी कुछ त्याग कर आत्मा के लिए जंगल का रास्ता नापते हैं। भगवान महावीर आत्मा को सर्वोपरि माने। जैन के चौबीस तीर्थंकर एवं बौद्ध के चौबीस तीर्थंकर सभी क्षत्रिय थे। सभी आत्मा हेतु सभी कुछ त्याग दिए। हालांकि भगवान राम-कृष्ण भी क्षत्रिय थे। लेकिन आत्मा से आगे ब्रह्म पद पर प्रतिष्ठित हुए। भारत का सर्वोच्च लक्ष्य ब्रह्म ही है।’
‘चौथा- ब्राह्मण है। जो शरीर, मन, धन और आत्मा सभी को दांव पर लगा दे- ब्रह्म के लिए। जिसका आचरण ब्रह्म जैसा हो। वह सभी के लिए बाबा बन गया। बाबा को ही भारत में बाबाजी कहते हैं। कितना उदार है-बाबाजी। अर्थात् बाबा के लिए सभी पौत्र समान हैं। पुत्र पर ममता एवं मोह का आकर्षण होता है। पौत्र पर प्रेम की सद्भावना होती है। जो सभी को अपनी प्रेममयी दृष्टि से सींचता था। समाज का कोई भी व्यक्ति हार कर, थक कर, असहाय होकर बाबाजी के पास जाता है। वे बिना किसी भेद-भाव के नवजात शिशु की तरह अपने अंक में भर लेते। प्रेम से, स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते जिससे उस आगत दुखी व्यक्ति को शांति मिलती, विश्राम मिलता। समाज की गाड़ी चल निकलती। ब्राह्मण का वह विशाल हृदय ही है कि अपने कमर में लंगोटी मात्र है। अपने भूखे हैं। लेकिन समाज में हर वर्ण को अपने पौत्र की तरह सुखी, सम्पन्न, आत्मोन्नति से युक्त करता है। समाज का सर्वांगीण विकास ही ब्रह्म तेज है। वह सम्पूर्ण शक्ति से युक्त है फिर भी राज सत्ता से दूर रहता है। उस राजसत्ता को अपने दृष्टिपात मात्र से संचालन-संतुलन करता है। यह प्रयोग भारतीय मनीषियों की अन्यतम खोज है। अफसोस है। यह चिंतनीय एवं निंदनीय है कि यह भाव धारा हमसे छिन्न-भिन्न हो गई है।’
‘मैं अविद्या तंत्र का उपासक बन गया। कभी अपने शरीर एवं वासना के चारों तरफ घूमता रहा तो कभी पद-प्रतिष्ठा, धन-वैभव की आकांक्षा लेकर जीया। ब्राह्मण जैसे ही पद-प्रतिष्ठा एवं धन लोलुपता को ग्रहण करता है वह तत्काल शूद्र गति को प्राप्त करता है। यही कारण है कि ब्राह्मण को पुरोहित कर्म से मना किया गया। मेरे साथ उल्टा हुआ। पुरोहित्य कार्य तो नहीं किया। चार वेद-छह शास्त्रों का ज्ञान ग्रहण कर धन-पद-प्रतिष्ठा के चक्कर में मेरा अधोपतन हुआ। राक्षस अर्थात् चंडाल की स्थिति को प्राप्त किया।ब्राह्मण गिरता है तो शूद्र बनता है। क्षत्रिय का पतन होता है तो वैश्य बनता है।’
To be continued
||हरि ॐ||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत…
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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