रावण की आत्मा से भेंट
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दशहरा के अवसर पर विशेष..
||श्री सद्गुरवे नमः||
रावण की आत्मा से भेंट
आत्मा का अस्तित्व सदैव बना रहता है। आत्मा, परमात्मा, प्रकृति पर बहस करना कोरा पांडित्य है। मैं इस तर्क में नहीं पड़ना चाहता हूँ। तीनों सनातन हैं। सभी एक वर्तुल में घूमते हैं। लाखों में कोई एक आत्मा जो अपने अस्तित्व को समाप्त करना चाहती है। वह पूर्णत्व को प्राप्त कर ली है। उसका संकल्प-विकल्प से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। वह सागर में बूंद की तरह गिर जाती है। फिर उसे अलग करना बहुत कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी है। जो आत्माएं अति कारुणिक है, विश्व कल्याण चाहती हैं, वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गईं। फिर भी उसका अस्तित्व बना रहता है। वह गुरु लोक में निवास करती हैं। स्वेच्छा से सतलोक में भी निवास करती हैं। परमपिता की इच्छा मात्र से या अपने भक्तों के क्रंदन मात्र से तत्क्षण अनन्त दूरी तय कर पहुँच जाती हैं। वे आत्माएं अलग-अलग होते हुए भी एक हैं। उस चिन्मय परमपिता के प्रेम में सदैव मगन रहती हैं। लाखों वर्ष अपना अलग अस्तित्व बनाए रखती हैं। जैसे ही उनकी इच्छा उत्पन्न होती है कि अब अलग नहीं। वह उस परम प्रभु में मिल जाती हैं।
जो आत्माएं अविद्या तंत्र से तपस्या करती हैं, उनकी मुक्ति लगभग असम्भव सी प्रतीत होती है। यदि होती भी है तो अन्तिम बिन्दु में अविद्या तंत्र उनका छूट जाता है। वे विद्या तंत्र को ग्रहण कर अपने को समर्पित कर देती हैं। ऐसी आत्माओं की आत्मा लाखों वर्षों तक या तो भटकती रहती हैं या अपने सूक्ष्म शरीर से ध्यान में रहती है। इनके अन्तर्तम से अहंकार के बीज का नाश नहीं होता है। ऐसी ही आत्मा रावण की है।
मैंने रामेश्वरम् की यात्रा में इसकी आत्मा से मिलने की चेष्टा की। एक बार जोर से गर्जन-तर्जन की आवाज आई। मेरे शिष्यगण डर गए। वे ऐसा करने से मना कर दिए। एक बार अकेले में समुद्र तट पर बैठकर आह्नान किया। लगभग रात्रि के बारह बज रहे थे। एकाएक भयंकर गर्जन के साथ एक विशाल व्यक्तित्व प्रगट हुआ। चेहरे पर ओज था। आँखें चमक रही थीं। शरीर श्याम वर्ण था। मूछें लम्बी थीं। प्रौढ़ व्यक्तित्व था। सामने विनीत मुद्रा में प्रणाम कर बोला-स्वामी जी! हमें क्यों बुलाया गया। मैंने पूछा- श्रीमान का परिचय जानना चाहता हूँ। वह बोला- मुझे रावण कहते हैं। आप रावण नहीं हो। मैंने रावण का ही आह्नान किया था। आप झूठ बोल रहे हो। उसका चेहरा सहसा उतर गया। शरीर भय से काँपने लगा। जमीन पर गिरकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहने लगा। गुरुवर! आप सभी कुछ जानते हैं। मैं उनका सेवक हूँ। वे अभी तप में हैं। तप से कभी-कभी उठते हैं। जब उठेंगे तो आपका संदेश दे दूँगा। मैंने पूछा-आपको कैसे विदित हुआ कि मैं रावण का आह्नान करता हूँ।
हे प्रभु! जैसे आप ध्यान में जाकर अपने प्राण से उनके नाम से संदेश भेजते हैं, उनके स्वरूप का ध्यान कर संदेश भेजते हैं, तब तत्काल आपका स्वरूप हमारे लोक में प्रगट हो जाता है। आपके द्वारा किया गया संकल्प प्रगट हो गया है। उसमें शब्द की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे ही आप यहाँ संकल्प लेते हैं। आपके त्याग तप-वैराग्य के अनुसार ही आपके संदेश में गति होती है। साथ ही आप अभी क्या हैं? पूर्व जन्म में क्या थे? कब क्या थे? आगे क्या करेंगे? सभी कुछ प्रगट हो जाता है। फिर आपके संकल्प की ध्वनि, कम्पन की प्रगाढ़ता भी उसी वेफ अनुरूप उत्पन्न होती है। हमें या किसी देवी-देवता को उसी के अनुरूप आना पड़ता है। फिर महाराज! महान पंडित, रावण संहिता एवं स्वरोदय का प्रणेता हम से कब मिलेंगे। मैंने एक स्वर में कह दिया।
दूत ने कहा- गुरुदेव! मैं आपका भी दूत ही हूँ। आप जानते हैं वे दृढ़ योगी हैं। वे हर वर्ष लगभग एक माह वेफ लिए उठते हैं। लंका में अशोक वाटिका में आते हैं। माँ जानकी की पूजा-अर्चना करते हैं। भगवान राम के साथ किया गया युद्ध जो लंका वेफ कण-कण में व्याप्त है, उसे देखते हैं। फिर भारत में अपने कुकृत्यों का उपहास देखते हैं। जगह-जगह उनका पुतला फूँका जाता है। जिसे देखकर स्तब्ध हो जाते हैं। फिर वे तप में चले जाते हैं। उन्हें भी भारत भू-भाग का संन्यासी स्मरण करेगा? यह तो कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। आपके सम्बन्ध में हम जानते हैं।
मैंने कहा-क्या आपकी लंका अभी है? अरे भाई यह लंका तो मेरी आँखों के सामने है। वहाँ राक्षस लोग कहाँ हैं? मुझे ठीक से समझाओ।
गुरुदेव! वह लंका इससे आगे है। समुद्र में है। लेकिन समुद्र में डूबी नहीं है। उसका अपना अस्तित्व है। आप अपने भांजे हनुमान जी के साथ जाकर घूम लें। नारद जी तो सदैव सर्वत्र लोकों में परिभ्रमण करते रहते हैं। आप शरद नवरात्र में लंका घूम लीजिए। हमारे सम्राट विभीषण से मिल लीजिए। हो सकता है, उस समय हमारे सम्राट रावण भी आपका दर्शन लाभ कर लें।
मैं अपने कक्ष में लौट आया। घड़ी देखी रात्रि के दो बज रहे थे। विचार तेज गति से घूम रहा था। वह लंका अभी भी है। भगवान राम के द्वारा दी गई राजगद्दी पर विभीषण अभी भी है। वह समुद्र में है। फिर भी पानी में डूबी नहीं है। राम सेतु भी है। इस तरह का सेतु अभी तक सम्पूर्ण विश्व ने निर्मित नहीं किया। उस समय विज्ञान अपने शीर्ष पर पहुँचा था। वह भी पानी में डूबा है। इस लंका के साथ सूक्ष्म लंका भी है। जहाँ अभी भी विभीषण राजा है। यह क्या है? यह तो अवैज्ञानिक एवं भ्रामक है। यह लंका तो बहुत बाद का छोटा सा टापू है। नारद जी अभी भी सभी लोकों में परिभ्रमण करते हैं। यह कैसे सम्भव है? यदि सम्भव है तो वैज्ञानिक इस दिशा में क्यों नहीं खोज रहे हैं। सभी राष्ट्र तो रावण ही बन गए हैं। मंच पर मित्रता का हाथ बढ़ाते हैं। फिर अपने-अपने देश में जाकर एक-दूसरे वेफ देश में उपद्रव, मार-पीट, दंगा, बम विस्पफोट कराते हैं। उन कार्यों में इनका करोड़ों का खर्च होता है। फिर सुबह मीडिया में दुःख का संदेश भेजते हैं। क्या यह मानवता के साथ क्रूर मजाक नहीं है। यदि यही ऊर्जा, अर्थ इस दिशा में खर्च होता तो मानवता नैतिक भी होती। अदृश्य शक्तियाँ हमारी मदद करतीं। हमारा आत्मोत्थान होता। यह सोच ही रहा था कि दिवाल घड़ी से चार बार आवाज आई। समझ गया चार बज गए थे, शौचादि के लिए प्रस्थान कर गया।
शरद नवरात्र का इंतजार था। इंतजार का समय लम्बा होता है। अष्टमी की अपनी पूजा खत्म कर खाली हो गया। नवमी को बारह बजे रात्रि में ध्यान में बैठ गया। अचानक खिड़की से प्रकाश की किरण उतरने लगी। एक अच्छा आसन पहले से लगा रखा था। फूल माला रखी थी। अगरबत्ती जल रही थी। घी का दीपक जल रहा था। वह प्रकाश उसी आसन पर केन्द्रित हो गया। फिर वह प्रकाश धीरे-धीरे तेजोमय दिव्य सुन्दर पुरुष में बदल गया। हाथों में वीणा मुँह से ओंकार ध्वनि निकल रही थी।
मैं हड़बड़ा कर उठते हुए बोल उठा, इतनी शीघ्र आपका आगमन हो जाएगा मैंने तो सोचा तक नहीं था। उनके गले में माला पहनाई। थाल में उनका पैर धोना चाहा कि हाथ पकड़ लिए। प्रेम से बोले-गुरुदेव! आप तो मेरे प्रभु के भी गुरु हैं। कैसे आपने मेरा स्मरण किया? क्या सेवा करूँ?
मैंने कुछ पफल-मिष्ठान्न उनकी तरपफ रखे। उन्होंने त्राटक दृष्टि से उन्हें देखा। ऐसा प्रतीत हुआ कि उससे उसका सारा रस, सत निकल कर उनके मुँह में जा रहा है। उन्होंने नारायण-नारायण कहते हुए जल की तरफ देखा। जल का भी सत निकल कर उनके मुँह में जाने लगा। फिर नारायण-नारायण कहते हुए मुँह पोंछ लिए। फिर बोले-महाराज! आपकी सेवा से मैं संतुष्ट हो गया। बहुत दिनों बाद इस पृथ्वी का फल-फूल मिष्ठान्न-जल का स्वाद ग्रहण किया है। दूसरी तरफ फल-फूल-मिष्ठान्न एवं जल पात्र ज्यों के त्यों पड़े भी हैं। यह नेत्र से प्रसाद ग्रहण करना है। लेकिन नेत्र से त्राटक किए थे। सत उनके मुँह में स्वतः जा रहा था।
परमात्मा को, गुरु को भोग लगाकर प्रसाद पाने की महत्ता इसी से पुराणों में की गयी है। वेद-पुराणों की उक्ति पूर्णतः वैज्ञानिक है। हमारी विज्ञान की दिशा ही उस तरफ नहीं मुड़ रही है।
मैंने उन्हें गौर से देखा-उनके शरीर से ॐ.. ओऽम्… ॐ की ध्वनि स्वतः निकल रही थी। कभी-कभी मुँह से नारायण-नारायण की ध्वनि भी निकलती थी। मेरे मन में शंका उत्पन्न हो गई। ऐसा क्यों?
नारद जी मुस्कुराते हुए बोल उठे- आपकी ऋचाएँ अभी भी ऋग्वेद में भरी पड़ी हैं। क्या शरीर बदलने से आत्मा भी बदल जाती है। हमारा आपका सम्बन्ध भी बदल जाएगा। आपसे मेरा आत्मीय सम्बन्ध है। आपने याद किया विष्णु लोक से दौड़े भागे, यहाँ उपस्थित हो गया। यह सत्य है कि जब मनुष्य शरीर धारण करता है तब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण एवं पृथ्वी के नियमों के अनुसार उसको कार्य करना पड़ता है। वह विज्ञ होते हुए भी साधारण मनुष्य सा कार्य करता है। यही प्रकृति की कार्य कुशलता भी है। जो व्यक्ति प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता है वही श्रेष्ठ मनीषी है। प्रकृति परमपुरुष की ही माया है। यह सदैव उनकी इच्छानुसार ही कार्य का सम्पादन करती है। उसके साथ छेड़छाड़ करना परम पुरुष की उपेक्षा करना है। जिसको हम अच्छा समझते हैं, परमात्मा उससे भी अच्छा समझकर कार्य सम्पादन का निर्णय करता है। सभी सृष्टि उसी की इच्छानुसार चल रही है। प्रत्येक कार्य में उस परमशक्ति को देखना अनुभव करना ही उस मनीषी का परम कर्तव्य है। यह भी सत्य है कि सद्गुरु भी वही करता है, जो परम-पुरुष की इच्छा होती है। यही कारण है कि वेद कहता है कि परमात्मा का ही साकार रूप गुरु है। तभी तो कामदेव जी द्वारा पूर्वजन्म में गुरु की उपेक्षा हुई। महादेव उसे बर्दाश्त नहीं किए। उन्हें दण्ड दिए। उनका दण्ड देना गुरु का अनुग्रह करना भी उनके लिए वरदान बन गया।
नारद जी आगे बोलते हुए कहे- गुरुदेव! ओऽम् ही मूल ध्वनि है। इसी से वेदों की उत्पत्ति हुई है। यह आदि ध्वनि है। यह शब्द नहीं है। ॐ तो चिन्ह है। आप इसे देवास्त्र में प्रयोग करते हैं। यह शब्दातीत है। अर्थातीत है। विद्वान लोग अपने-अपने मन के अनुसार अ, उ, म का अर्थ करते हैं। यह अर्थ उनके पांडित्य का शब्द विस्तार है। जैसे पदार्थ के मूल में विद्युत है, उसी तरह शब्दों में ध्वनि है। जब हम अजपा से ॐ का उच्चारण करते हैं तब प्राण ऊर्जा से अनुप्राणित होकर एक विशेष प्रकार की विद्युत चुम्बकीय धारा जन्म लेती है। जिससे कम्पन होता है। वही कम्पन एक विशेष आकार ग्रहण कर लेता है। इसकी गति साधक की प्राण शक्ति और संकल्प शक्ति पर निर्भर करती है।
ॐ (प्रणव) का तो आप विशेष ध्यान भी कराते हैं। मैं आपके ध्यान शिविर में भी आया हूँ। ‘अ’ श्वेत वर्ण, ‘उ’ पीत वर्ण और ‘म’ हरित वर्ण का है। इसका सम्बन्ध मूलाधार से सहस्रार तक है। यह सहस्रार से उत्पन्न होता है। लेकिन मालूम होता है आज्ञा चक्र पर। आज्ञा चक्र से ऊपर ॐ इंगित करता है। अनाहद चक्र मध्य में है। ॐ ही एक झटके में साधक को पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को भेद कर ऊपर की यात्रा में लाने में समर्थ है। मूलाधार का चिन्ह है ‘’ (स्वास्तिक)। यह गति का प्रतीक है। हर समय गतिमान रहता है। ॐ स्थिरता, परम चैतन्यता का प्रतीक है। प्रत्येक शब्द की सीमा चौथे शरीर तक ही है। पाँचवें शरीर तक मात्रा स्वर है। अतएव शब्द ज्ञानी चौथे शरीर से ऊपर नहीं उठते हैं। पाँचवाँ विशुद्धि चक्र के ऊपर निःशब्द है। आज्ञा चक्र तो शब्दातीत है। यही कारण है कि योगी लोग आज्ञा चक्र को महाशून्य और सहस्रार को परमशून्य कहते हैं। जबकि संकल्प शक्ति, अतीन्द्रिय ज्ञान, अतीन्द्रिय दर्शन परा जगत से सम्बन्धित है। इसके मूल में है भौतिक। ये अध्यात्म के मार्ग पर ले जा सकते हैं। सहायक हो सकते हैं। ज्यादा साधकों को ये अध्यात्म से भटका भी देते हैं। सद्गुरु की उपस्थिति में ही ये ऊपर गति प्रदान करते हैं।
हमारा शरीर पिण्ड है। इसमें सात चक्र हैं। ब्रह्माण्ड के सात लोक हैं। जो आपने चित्र द्वारा पृथ्वी के मानवों को बता ही दिया है। मनोमय शरीर, आत्म शरीर, ब्रह्म शरीर और निर्वाण से सम्बन्धित चार जगत हैं। प्रथम दो जगत में ‘ओ’ की ध्वनि होती है। अन्तिम दो जगत में ‘म’ की ध्वनि का कम्पन होता है। सातवां लोक परम शून्य लोक है। सभी लोकों को ॐ से ही जोड़ा है परम पुरुष ने। इसी से हमारे शरीर से ओम ध्वनि सदैव निःसरित होती रहती है। मैं नारायण लोक से आ रहा हूँ। मैं परम वैष्णव हूँ। वैष्णव धर्म का दास हूँ। इससे मुँह से नारायण शब्द का उच्चारण स्वतः होते रहता है। प्रत्येक दास अपने स्वामी का ही गुणगान करता है। जो स्वामी का गुणगान नहीं करता स्वार्थपूर्ण सम्बन्ध रखता है, वही अवसरवादी है। जिसे पृथ्वी पर राक्षस कहते हैं। मैं तो गुरुदेव ‘नारायण’ के दासों का दास हूँ। अब आज्ञा दीजिए इस दास को -क्या सेवा करनी है।
मैंने कहा हे नारद जी! मैं रावण से मिलना चाहता हूँ। हालाँकि मैं आत्मिक स्तर पर कई बार मिला हूँ। आप लोगों ने मुझे इस शरीर में जिस कार्य हेतु भेजा है उसे सम्पादन तो कर ही रहा हूँ। आप ऐसा सोच रहे हैं कि पृथ्वी का मैं प्रथम व्यक्ति हूँ जो रावण से मिलने को इच्छुक हूँ। सभी लोग नारायण से, देवता से मिलना चाहते हैं। मैं रावण से मिलना चाहता हूँ। वह अभी भी तप में है। जबकि सभी जानते हैं कि वह विष्णु स्वरूप ग्रहण कर विष्णु लोक चला गया।
नारद जी ने कहा-स्वामी जी! आज प्रातः के चार बजने वाले हैं। कल दशमी है। विजय दशमी। विजय दशमी को दिन में मैं अयोध्या में रहता हूँ। बहुत देव गण भी आते हैं। हमारे आराध्य की जन्म भूमि, लीला भूमि है। वहाँ वह विजयोत्सव में भाग लेते हैं। रात्रि में लंका चलेंगे। कल दिन में विभीषण, रावण, अन्य सप्त-ऋषिगण भी पावन भूमि अयोध्या में ही रहेंगे। हमारी पावन भूमि अभी भी है। विभीषण के साथ महाराज रावण संध्या होते ही लंका चले जाएंगे। चूंकि साकार रूप में भवानी जगदम्बा सीता का पूजन दिन में अयोध्या में करते हैं। प्रभु राम का पूजन कर, प्रसाद ग्रहण कर लंका में जाते हैं। लंका में विभीषण जी पूजन रावण का करते हैं। फिर सम्पूर्ण लंका के नागरिक भक्त गण रावण के साथ अशोक वाटिका में जाते हैं। वहाँ माँ जानकी का विधिवत पूजन होता है। रावण अविद्या तंत्र के साधक हैं। जो उनके चतुर्थ शरीर में बैठा है। वे चतुर्थ शरीर से ऊपर नहीं आना चाहते हैं। भवानी की पूजा सात्विक ढंग से करते हैं। मैं उन्हें बता दूँगा। आप हमारे साथ अयोध्या चल सकते हैं। आप अयोध्या जाने से बचते हैं। आप ऐसा सोचते हैं कि शिष्य के यहाँ सदैव जाना गुरु की गरिमा के खिलाफ है। पुरोहित, कुलगुरु का काम गुरु का नहीं है। वह उचित भी है। भगवान राम सृष्टि के अपूर्व गुरु भक्त हैं। सृष्टि उनकी पूजा करती है। वे गुरु की पूजा करते हैं। वे विश्व ब्रह्माण्ड के आदर्श के प्रतीक हैं। अच्छा आप आदेश दें, मैं कल दस बजे रात्रि में ही आ जाऊँगा। लंका में पूजा रात्रि ग्यारह बजे से प्रातः चार बजे तक होगी। मैंने उठकर हाथ जोड़े। नारद आगे बढ़कर हमें अंक में भर लिए। फिर नारायण-नारायण कहते हुए प्रकाश में विलीन हो गए। मैं अवाक् स्वप्नवत देखता रहा।
||हरि ॐ||
समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिव नेत्र’ से उद्धृत…
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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