गुरु पूर्णिमा का महात्म्य
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|| श्री सद्गुरवे नमः ||
गुरु पूर्णिमा का महात्म्य
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कहा प्रसंग |
बरसा बादल प्रेम का, भीज गया सब अंग ||
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई |
अंतर भीगी आत्मा, हरी भई बनराई ||
यह पर्व मूलतः भारतीय है। यह आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता है। चूंकि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन भारत का कण-कण हरियाली से भर जाता है। ज्येष्ठ की प्यासी धरती माँ अपनी प्यास बुझा लेती है। सर्वत्र जल से पूरित धरती हरे रंग के वस्त्रों में सुशोभित होती है। कृषि प्रधान देश के कृषकगण अपने खेतों में दिखाई देते हैं। पूरे वर्ष के अन्न के लिए धरती माँ का पूजन-भजन करते हैं। जिसके परिणाम स्वरूप भारतीय किसान पूरा वर्ष आनन्द से बिताते हैं।
साधक गण की सेवा-सत्संग सुमिरण से प्रसन्न होकर सत्गुरु भी रीझता है। जब वह रीझता है तब बरस जाता है। उसके प्रेम रूपी वर्षा से साधक का एक-एक अंग भीज जाता है। नहर के पानी से पौधों का प्रत्येक भाग नहीं भीगता है। केवल जड़ ही भीगती है परन्तु वर्षा के जल से पत्ते से जड़ तक भीग जाता है। पेड़ का पत्ता-पत्ता खुशी में झूम जाता है। मोर नाचने लगते हैं। किसान खुशी से गीत गाने लगता है।
जब सत्गुरु का प्रेम रूपी बादल बरसता है। शिष्य का कण-कण भीग जाता है। वह आनन्द मग्न हो जाता है। वह अहोभाव से भर जाता है। उसकी वाणी मौन हो जाती है।
ध्वनि वर्षा –
साधक चकित हो जाता है जब सत्गुरु पहली बार बरसता है क्योंकि वह देखता है कि मैं तो बोल नहीं रहा; मैं तो कुछ कर नहीं रहा- यह प्रसंग अर्थात् ध्वनि रूपी वर्षा कहाँ से आ रही है। तब अनुभव करता है कि मैं विलीन हो गया। गुरु हममें बरस गया। यह बिना किसी बादल के टक्कर से पैदा हुई ध्वनि है। यह तो अनाहद है।
विज्ञान कहता है कि प्रकृति वेफ सारे पदार्थों को हम तोड़ते जाएँ तो अन्त में हमें विद्युत-ऊर्जा मिलती है। अतः विद्युत की अन्तिम खोज इलेक्ट्रॉन है; विद्युत कण है। सारा अस्तित्व इसी से बना है। विज्ञान कहता है कि ध्वनि विद्युत से बनी है। धर्म कहता है कि विद्युत ध्वनि का रूप है। यह भेद भाषागत है।
गुरु तो बरसता रहता है। जैसे ही शिष्य रूपी घड़ा अपना मुँह ऊपर कर लेता है। वह जल से भर जाता है। उसे गुरु अनुकम्पा समझ में आ जाती है। यदि शिष्य मूढ़ है, अहंकारी है तो वह कभी भी नहीं समझता है। कहते हैं सीधे सोने वाला व्यक्ति अहंकारी होता है। दाहिने करवट लेकर सोने वाला कपटी होता है। हाथ पैर सिकुड़ा कर सोने वाला व्यक्ति कृपण, कंजूस होता है। पेट के बल सोने वाला व्यक्ति लम्पट होता है। बाएं करवट सोने वाला व्यक्ति धार्मिक होता है या यह भी कहा जाए कि अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यक्ति सोता है। भगवान बुद्ध बाएं करवट सोते थे। शिष्य में पात्रता आने भर की देर है। उसे समझते देर नहीं लगती।
गुरु ऋण –
सद्गुरु कबीर कहते हैं कि मैं एक जुलाहा मात्र था। पिता के उत्तराधिकार में मिला बुनाई का कार्य करता था। परन्तु जैसे ही गुरु रामानन्द का सान्निध्य मिला; वे बरस गए। वे ऐसे बरसे कि एक-एक वर्षा का कण हमारे शरीर रूपी घट में प्रवेश कर गया। अन्दर की आत्मा उस प्रेम रूपी वर्षा से भीग गई। जिसके परिणामस्वरूप मेरा रोम-रोम आनन्द से पुलकित हो गया। मैं अहो भाव से भर गया। अनायास उनके मुँह से निकलता है-
‘रास्ता तो था कोटि जन्म का, गुरु क्षण माहि दिया बताय |’
पता नहीं मैं कब से चला हूँ। अभी कब तक चलता परन्तु गुरु की अनुकम्पा हो गई। करोड़ों जन्म क्षण में बदल गए। सारी दूरी पल भर में समाप्त हो गई। इस सृष्टि में सभी ऋण से मुक्त हुआ जा सकता है परन्तु गुरु के ऋण से कैसे मुक्त होंगे?
हम सदैव चिन्तित रहते हैं पिता पुत्र के ऋण से मुक्त होने के लिए। पुत्र-पुत्री को सुखी सम्पन्न बनाने के लिए अपना पूरा जीवन कुली की तरह बिताते-बिताते कुत्ते का रूप ग्रहण कर लेते हैं। फिर भी पुत्र प्रसन्न नहीं होता है।
वृद्धावस्था में किसी कारणवश कोई संन्यास भी लेता है तब वह आश्रम में आकर अपनी सेवा करवाना चाहता है। अक्सर लोग कहते सुने जाते हैं कि यदि काम ही करना होगा तो घर पर ही क्यों न करेंगे। अपने पुत्र-पौत्र की सेवा क्यों न करें? यही है हीन भावना से ग्रस्त मन। पूरा जीवन अर्थ अर्जन कर पुत्र की सेवा में लगा दिया। बदले में पुत्र-पौत्र की गाली एवं थप्पड़ मिलता है फिर भी उन्हीं की सेवा में रहना चाहता है। यह गुलाम मानसिकता का द्योतक है।
श्रम –
संन्यासी के लिए पूरा विश्व ही परिवार है। अब वह आश्रम में रहता है। श्वेत वस्त्र पहनता है। अब वह श्रम से थकता नहीं है। जहाँ श्रम से थकान महसूस न हो वही आश्रम है। आश्रम के कार्य को सेवा कहते हैं। भजन कहते हैं। भज् धातु से भक्ति बनी है। जिसका अर्थ होता है-सेवा करना। अब संन्यासी सेवक हो गया। दास हो गया। सभी में परमात्मा देखता है। परमात्मा की सेवा करता है। हनुमान जी सेवक हैं। ‘राम काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम’ संन्यासी विश्राम नहीं करता है। वह सदैव राम के कार्य में लीन रहता है। गुरु की आज्ञा का तत्परता से पालन करता है। गुरु की सूक्ष्म आँखें हर समय निरीक्षण करती रहती हैं।
गुरु की परीक्षा अहंकारी शिष्य द्वारा –
शिष्य अपने अहंकार- लोभ में गुरु की निरंतर परीक्षा लेता रहता है। वह चंद रुपए देकर उससे करोड़ों, अरबों पाना चाहता है। यदि गुरु उसमें उसकी सहायता नहीं करता तब वह गुरु की आलोचना करता है। निंदा करता है। स्वार्थी एवं लोभी मानता है। यदि गुरु भूलकर भी शिष्य की परीक्षा लेना चाहता है तब फिर मत पूछिए शिष्य उसे लोभी, लम्पट, लालची गुरु कहकर धक्का मारता है। पहले गुरु शिष्य की परीक्षा लेता था। अब शिष्य ही हर क्षण गुरु की परीक्षा लेता है।
सद्गुरु कबीर कहते हैं-
‘ऊँचे कुल का जनमियाँ, जो करनी ऊँच न होई |
स्वर्ण कलश सुरा भरा, साधु निदै सोई ||’
इतना ही नहीं तथाकथित संन्यासियों पर भी कहा है कि उन्होंने केवल साधु का वेश धर लिया है। राम नाम से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखा है। जैसे-
‘मुँड़वत दिन गए; अजहूँ न मिलिया राम |
राम नाम कहु क्या करें; जे मन के औरे काम ||’
बाहर से राम-राम कहते हैं। मन कहीं और जगत प्रपंच में फँसा है। गुरु-गोविन्द एक हैं- सद्गुरु के सम्बन्ध में कहते हैं-
‘गुरु गोविन्द तो एक हैं, दूजा भेद आकार |
आपा मेटे हरि भजै तब पावै दीदार ||’
विवेकानन्द ने कहा है-‘परमात्मा निराकार है। उसे साकार रूप में देखना है तो गुरु के रूप में देख ले |’ सदगुरु कबीर साहब यही कहते हैं- गुरु और गोविन्द दोनों एक हैं। दूसरा तो हम आकार देखते हैं। आपकी श्रद्धा ही द्वैत मिटाकर अद्वैत कर देगी। अद्वैत में प्रवेश करते ही गुरु में गोविन्द दर्शन देंगे। गोविन्द में गुरु दर्शन देंगे।
इस स्थिति को लाने के लिए शिष्य में अपूर्व श्रद्धा-प्रेम की जरूरत है। गुरु समय-समय पर अपनी क्रोध रूपी छेनी से काटेगा, ज्ञान रूपी हथौड़ी से प्रहार करेगा, विवेक रूपी हाथ से सुन्दरता निखारने का प्रयत्न करेगा, वैराग्य रूपी अग्नि में जलाएगा, लोभ-मोह रूपी तृष्णा से किनारे लाएगा। जो शिष्य गुरु के जितना ही सान्निध्य में रहेगा गुरु उतना ही उसके अहंकार, मोह, लोभ पर प्रहार करेगा। वह प्रहार ऊपर से कठोरतम प्रतीत होगा। अन्दर से अत्यन्त करुणावश करता है। जैसे पिता अपने पुत्र को प्रताड़ित करता है परन्तु उसमें पुत्र का अहित नहीं बल्कि हित ही छिपा है।
सद्गुरु का प्रहार –
सद्गुरु ऊपर से नारियल के फल की तरह अत्यन्त कठोर प्रतीत होता है। जिसके परिणाम स्वरूप अधिकांश शिष्य उससे दूर भाग जाते हैं। शिष्य तो अपने ही तरह के गुरु की खोज करता है जिसमें लोभ है लालच है, काम है, तृष्णा है। इन्हीं वृत्तियों का गुरु खोजता है। अतएव इस तरह के गुरुओं के यहाँ अपार भीड़ होती है। चूंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक होते हैं।
गत माह मेरे साथ कुछ शिष्यगण तीर्थ यात्रा पर गए थे। कुछ अच्छे साधक भी हैं। कुछ पूर्व जन्म के साधक सिद्ध भी हैं। किसी में मात्र अहंकार का आवरण पड़ा है। जिससे वह उस परम तत्त्व को नहीं प्राप्त कर रहा है। किसी में लोभ तो किसी में तृष्णा का आवरण पड़ा है। मैंने अवसर पाते ही उन पर प्रहार करना शुरु कर दिया। सोचा इसी यात्रा में इनका यह आवरण नष्ट कर दूँ। वे अत्यन्त तिलमिला रहे थे। जैसे किसी व्यक्ति को घाव हो, फोड़ा हो उसे दबाने पर उसका विष निकल जाता है और वह निरोग हो जाता है। पर दबाने पर जो पीड़ा होती है उसे जो बर्दाश्त नहीं कर पाता वह डॉक्टर को गालियाँ देता है एवं अपने घाव को ढकते हुए दूर भाग जाता है। बार-बार उस डॉक्टर की निन्दा करता है। कुछ लोग मेरे प्रति भी ऐसी ही आलोचना करते हैं। हमसे दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। अपने परिचितों को भी दूर होने का संदेश देते हैं। ऐसा करते हुए यह इनका तीसरा जन्म है। परन्तु मैं इनका पीछा छोड़ने वाला नहीं हूँ। चूंकि ये किनारे आ चुके हैं। मात्र एक धक्वे में ही समुद्र में गिर सकते हैं। इनका मन किसी न किसी का आलम्बन लेकर कुतर्क में फँसा रहा है। उन्हें अपने तर्कों से संतुष्ट कर रहा है।
‘गुरु बेचारा क्या करे, शिष्य माहि चूक |’ गुरु तब बेचारा प्रतीत होता है जब शिष्य उससे चूक जाता है।
भगवान महावीर एवं मक्खाली घोषाल –
भगवान महावीर जैसे सद्गुरु के सान्निध्य में मक्खाली घोषाल वर्षों रहा। परन्तु चूक गया। उसने भगवान महावीर के खिलाफ एक सम्प्रदाय खड़ा कर दिया। चूंकि पढ़ा-लिखा विद्वान था। शास्त्रों को रट लिया था। महावीर का पूजा-पाठ, ध्यान-धारणा देख लिया था। पाया कुछ भी नहीं था। अब इनके ही मत को काटने लगा। इनकी निंदा करने लगा। इन्हें लोभी, क्रोधी, कामी कहने लगा। लोगों को विश्वास दिलाने लगा कि मैंने महावीर को नजदीक से देखा है। चूँकि दस वर्षों तक उनके साथ रहा। वे हमारा अमूल्य समय बर्बाद कर दिए। वह कहता मैं तीर्थंकर हूँ। महावीर नकली हैं। वह मात्र सात नरक कहता है। जबकि सात सौ नरक होते हैं। महावीर आत्मा को मानते थे। वह इसे नकार देता। देखते ही देखते उसके पीछे हजारों की भीड़ हो गई। गाँव-गाँव प्रचार होने लगा।
एक दिन भगवान महावीर जिस गाँव में पहुँचे, घोषाल पहले से ही ठहरा था। वे संदेश भेजे कि घोषाल को बुला लाओ। वर्षों हमारे साथ रहा। उसे अभी कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ है। बेचारा भटक गया है। महावीर के शिष्यों ने कहा भगवन! वह तो आपका घोर विरोधी है। आपकी निंदा करता है। भगवान बोले- यदि तुम्हारा ही पुत्र तुम पर विष्टा कर देगा; तब क्या करोगे। वह मेरा पुत्र है। उसे संदेश दो वह हमसे मिले। मैं उससे बातें करूँगा। उसे संदेश दिया गया। उसने मिलने से इनकार कर दिया।
भगवान महावीर करुणावश स्वयं उससे मिलने चले गए। परन्तु झूठ बोलने वाले का क्या भरोसा? अहंकार के आवरण से ढके व्यक्ति का क्या भरोसा?
महावीर ने कहा- घोषाल तुम मेरे पुराने शिष्य हो। यह क्या कर रहे हो? क्या पागल हो गए हो? शिष्य कहीं गुरु की निंदा करता है। घोषाल ने ऐसे देखा जैसे कभी देखा ही न हो। उसने कहा- आप भ्रान्ति में हैं। जो आपके साथ था; वह आत्मा तो जा चुकी है। उसी शरीर में यह नई आत्मा तीर्थंकर की प्रवेश कर गई है। मैं वह नहीं हूँ जो आपके साथ था। यह देह भर आपके साथ थी। यह मुझे भी पता है। लेकिन जो आदमी आपका शिष्य था; वह मर चुका है। अब आप भूलकर किसी से यह मत कहना कि मक्खाली घोषाल मेरा शिष्य था। यह तो एक तीर्थंकर की आत्मा मुझमें प्रवेश कर गई है।
भगवान महावीर चुप हो गए। वापस लौट आए। उनके हजारों शिष्य जय-जयकार करने लगे। घोषाल ने महावीर को पराजित कर दिया |
झूठ बोलने वाले से, अहंकार के आवरण से घिरे व्यक्ति से महावीर क्या कहेंगे?
घोषाल की मौत नजदीक आई। वह काँपने लगा। भयभीत हो गया। अब झूठ काम नहीं आएगा। गप्पें भाग जाएंगी। वह अपने शिष्यों से बोला कि मैंने जो भी तुम लोगों से कहा है सब झूठ था। तुम लोग मेरी लाश को सड़कों पर घसीटते हुए ले जाना। लोगों से कहना मेरे मुँह पर थूकें क्योंकि मैंने इस मुँह से झूठ के सिवाए और कुछ भी नहीं बोला है। मेरी कब्र पर ‘झूठा’ लिख देना। जिससे भविष्य में कोई अपने गुरु की निन्दा न करे। झूठ का आश्रय न ले।
मक्खाली घोषाल हिम्मत वाला आदमी रहा होगा। नहीं तो इस तरह की हिम्मत कौन करता है? क्षण भर चुप रह जाता तो, क्षण भर में मर जाता। तो आज उसका एक धर्म रहता। सम्प्रदाय रहता। उसके अनुयायी रहते। उसकी पूजा होती। चूंकि उस समय मक्खाली घोषाल महावीर के बड़े से बड़े प्रतियोगियों में से एक था। उसने मरते समय सत्य का सहारा लिया तथा अपने अनुयायियों को बचा लिया।
जब शिष्य में पूर्ण पात्रता आ जाती है तब गुरु पूर्णरूपेण स्वतः शिष्य में उतर जाता है। गुरु को आकुलता होती है। बेचैनी होती है। जैसे कुम्हार अपने घड़े को अच्छे से अच्छा बनाने के लिए बेचैन रहता है। वह एक हाथ अन्दर रखकर दूसरे हाथ से प्रहार करता है। धूप में सुखाता है। फिर अग्नि में पकाता है। तब उसमें शीतल जल रखता है। गुरु को इससे भी ज्यादा जल्दबाजी होती है। कुछ शिष्य कच्चे घड़े की तरह अग्नि में जाने से विरोध कर देते हैं। अपनी सुन्दरता की दलील देने लगते हैं। वही खतरनाक है। कृष्ण जैसा सद्गुरु वैसे तर्कों को भी एक-एक कर काट कर युद्ध रूपी अग्नि में ढकेल देता है।
शिष्य इसी अहोभाव से भरकर वर्ष में एक बार आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु का अवश्य दर्शन करता है। यदि उसमें थोड़ी भी भक्ति है तब वह हजारों कि.मी. की यात्रा करके गुरु के चरणों में स्वयं को समर्पित कर देता है।
यह दिन समर्पण का है। उत्सर्ग का है। बलिदान का है। गुरु के प्रति शिष्य को प्रगट करने का है। हृदय आकाश में चन्द्रमा पूर्णता पर है। गुरु प्रेम रूपी बादल में बरस रहा है। शिष्य आनन्दमग्न है। वह गुरु के चरणों में स्वयं को अर्पित कर अपने को धन्य मानता है।
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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