वास्तविक संन्यास है क्या ?
|| श्री सद्गुरवे नमः ||
कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै।
आप खाय औरों को दीजै।।
वास्तविक संन्यास है क्या ?
आप जहां हैं वहीं कुछ भी उद्यम करें। कोई उद्यम, कोई काम न बड़ा है न छोटा। इसमें किसी प्रकार की प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं है। आप इतना कर्म अवश्य करें कि आपका तथा आपके परिवार का भोजन एवं पारिवारिक खर्च चल जाए। आने वाले अतिथि का सम्मान कर सकें । आस-पड़ोस यदि कोई भूखा है तो उसे भी भोजन दे सकें । श्रम के बिना आश्रम भी नहीं। श्रम से ही सम्पत्ति कमाई जा सकती है। बिना श्रम के जो सम्पत्ति की इच्छा करता है या इकट्ठा करता है वह चोर है, समाज का शत्रु है। वह संन्यासी कैसे हो सकता है।
कबीर प्रेम से चादर बीनते हैं राम के लिए, राम को ही समर्पित करते हैं। वास्तविक संन्यासी वही है जो श्रमयुक्त सम्पत्ति से कार्य चलाता हो, सच्चरित्र शिक्षा प्राप्त की हो, सिद्धान्तवादी राजनीति करता हो, नैतिक व्यापार करता हो, मानवीय विकास हेतु विज्ञान की खोज करता हो, संयमी भोगवाद में विश्वास करता हो, त्यागयुक्त पूजा करता हो। ये सभी गुण सद्गुरु कबीर में एक साथ देखने को मिलते हैं। जिसका आज नितान्त अभाव है। इसके जिम्मेवार आज के तथाकथित ऋषि-मुनि ही हैं। जो समाज के दिशा निर्देशक हैं। अब जब ये ही दिग्भ्रमित हैं तो दूसरों को रास्ता कैसे दिखा सकते हैं। यह क्रम सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही चल रहा है। अपने को जगतगुरु कहलाने वाले लोग ही बौने हो गये। दुनिया में शूद्र तो थे ही, मुसलमानों व ईसाइयों को भी बुला लिया गया। औरतों को जिनकी जनसंख्या करीब आधी थी, अछूत कहकर समाज से दूर रख दिया गया। इससे बदसूरत समाज का निर्माण हुआ।
जब-जब धर्मगुरु भटकता है समाज भी भटक जाता है। धर्म ही समाज की आंख है धार्मिक व्यक्ति ही समाज का अगुवा होता है। वही बिना आंख का हो गया है। परन्तु स्वीकार करने को तैयार नहीं कि ऐसा है। तर्क पर तर्क प्रस्तुत कर रहा है कि मैं और पैना देख रहा हूं। तर्कशक्ति से लोगों को अपनी ही बात मनवाता है। शास्त्र को शस्त्र की तरह इस्तेमाल कर रहा है- तो वह समाज निश्चय ही किसी गहरे अन्धे कुएं में गिर जायेगा। इसका भविष्य अन्धकारमय ही होगा जैसा कि आज का भारत है। कितनी दुर्दशा हो रही है इसकी।
मैं सुना हूं, एक सेंधिया चोर था। प्रतिदिन छोटी-मोटी चोरी किया करता था। लेकिन अब उसका मन इससे ऊब गया था। अतः उसने अपना संगठन बनाया तथा बड़ी चोरी करने की ठानी। क्रियान्वयन पर विचार-विमर्श किया तथा रात्रि में चोरी करने के लिए उस शहर के सबसे बडे़ अधिकारी के यहां प्रस्थान किया। रात्रि में झाड़ी में छिपकर उसके सोने का इन्तजार करने लगा। धीरे-धीरे रात बीतने को आ गयी, किन्तु वह व्यक्ति सोया नहीं। कुछ लोग बातें किए जा रहे थे। सबेरा होने को आ गया। अब वह उदास होकर वापस घर को चलने का निर्णय लिया। सोचने लगा कि आखिर मामला क्या है कि अभी तक कोई सोया नहीं। फिर हिम्मत कर चहारदीवारी फांदकर अन्दर चला गया। दीवार से कान लगाकर सुनने की कोशिश करने लगा। सुनते ही चैंक गया। अपने कान पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। यह उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारी से किसी मन्दिर के भगवान की मूर्ति चोरी करने की बातें कर रहा था। मूर्ति सोने की है रत्नों से जड़ित है। मूल्य करोड़ों में है। क्यों न एक सेंधियामार चोर को पकड़ा जाए। मूर्ति गायब कर मेरे यहां रख दिया जायेगा। किसी को शक भी नहीं होगा। ग्राहक मिल जाने पर सरकारी गाड़ी से सुरक्षा व्यवस्था में जौहरी के यहां पहुंचा दिया जायेगा। रुपये आपस में बांट लेंगे। सेंधिये को चोरी में अभियुक्त बना देंगे। मूर्ति के कपडे़ की बरामदगी दिखा दी जायेगी उसके पास से। वह वहां से भागा। सोचने लगा कि क्या ये लोग भी यही करते हैं। कुछ दिन तो वह इस बात को सोचता रहा। फिर उस नगर के नेता के यहां पहुंचा। सोचा कि ये जनता के सेवक हैं। गरीबों के मसीहा हैं। रोज अपने क्षेत्र में जाना होता है सुबह-सुबह। ये जल्दी सो जायेंगे। परन्तु यह क्या? वहां भी रात भर जागता रहा। कोई सोने का नाम नहीं ले रहा था। अतः नजदीक जाकर वहां भी जायजा लेना उचित समझा, वापस जाने से पहले। नेताजी अपने सहायकों व अधिकारियों से कह रहे थे। हमारा क्षेत्र बाढ़पीड़ित है। लोग अन्न नाम पर मर रहे हैं। उन लोगों के नाम पर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये लाया हूं। अतः मेरे लिए एक नई गाड़ी तथा नयी कोठी की व्यवस्था कर देना। मेरे कुछ साथी हैं इनके लिए कुछ कपड़े व खर्चे के लिए कुछ पैसों की व्यवस्था कर देना। अधिकारी स्वीकारोक्ति में सिर हिलाए जा रहे थे। सर! इस वर्ष की बाढ़ से इतना तो हो ही जाएगा। यदि भगवान की कृपा रही तथा अगले साल भी बाढ़ आई तो इन लोगों का और कल्याण हो जायेगा। सारे ठेके इन लोगों को ही दिए जाएंगे। आपस में मिल-बैठकर फैसला कर लेंगे। सरकार को भी हिसाब दे दिया जाएगा तथा हम लोगों का भी काम बन जाएगा। आखिर जो मरने वाला है उसे कौन बचा सकता है। सेंधिया वहां से भी भाग खड़ा हुआ। यह सब एक दिवास्वप्न लग रहा था। क्या ये लोग भी यह सब कर सकते हैं। वह तो सोचता था कि मैं ही चोर हूं।
कुछ दिन बाद वह अपने शहर के ही मन्दिर में चोरी करने चला गया। सोचने लगा कि मन्दिर में दिन भर दान-दक्षिणा चढ़ता रहता है। दान पेटी भरी रहती है। चलो आज पेटी ही उठा लाऊँगा। अन्धेरा हो गया। उपयुक्त समय समझकर मन्दिर पहुंच गया। 10 बजे तक सभी भक्त जन वापस हो गये थे। मन्दिर का फाटक बन्द हो गया। पुजारी के सोने का इन्तजार करने लगा। परन्तु वहां भी पुजारी नहीं सोया। बातें हो रही थीं। रात्रि समाप्त होने लगी। उसने सोचा कि वह किसी विशेष पूजा-पाठ में होगा, ध्यान में होगा। मैं चलूं और अपना काम करूं। परन्तु सेंधिया वहां भी पहुंचकर देखता है तो देखता ही रह जाता है। वहां नेता व अधिकारी दोनों ही मौजूद थे। दान के पैसे के बंटवारे की बात चल रही थी। रेजगारी तो मन्दिर के खर्च के लिए रखी गई तथा मोटा पैसा तीन भागों में बांट दिया गया- प्रधान पुजारी, नेता तथा अधिकारी। तब तक बन्दूक लिये एक मोटा तगड़ा आदमी आता है। नेताजी पूछते हैं- क्यों रे क्या लाया आज। वह बोला- हुजूर आज रात्रि ठीक नहीं गयी। चार-पांच हत्याएं भी हो गयीं ट्रेन की लूट में परन्तु सिर्फ पचास हजार रुपये ही आये। “तू ही बोल इसमें किसका खर्च चलेगा |” नेताजी बोले-“तुम्हारा, मेरा या इन महोदय का। यह काम ठीक नहीं। हत्याओं की परवाह नहीं। कितनी भी हों, किन्तु माल पूरा चाहिए। पचास हजार रख व चल यहां से|” वह गिड़गिड़ाता रहा। हुजूर इसमें मेरा खर्च भी है। कुछ मुझे भी तो दे दें। अधिकारी बोला- “एक तो रकम कम लाया दूसरे रो रहा है। चल हट यहां से। किसी तरह अपना काम चला। रात भर में जो किया है वह सुबह हमें ही तो निपटाना है। हम लोगों का काम भी तूने बढ़ा दिया है |” यह सब देखकर सेंधिया चोर भागा वहां से। किससे कहे। कौन विश्वास करेगा? सभी चोर हैं। मेरी चोरी तो कुछ भी नहीं। मुझे तो पुलिस वाले किसी चोरी में पकड़ते हैं तो जेल भेजते हैं। मारते हैं, चोरी न करने की कसमें देते हैं, परन्तु इनको कौन पूछे।
सेंधमार ने बहुत दिनों तक चोरी करना छोड़ दिया। सोचता रहा किसके यहां चोरी करूं। चोर के यहां कैसे चोरी करूं? कोई ईमानदार नैतिक व्यक्ति तो है ही नहीं। सोचते-सोचते वह एकाएक प्रसन्न हो गया। कुछ रुका एवं प्रस्थान कर गया। नगर के बाहर एक सुनसान जगह पर एक संन्यासी रहते थे। बहुत प्रसिद्ध थे। भैरव बाबा के भक्त थे। तंत्र-मंत्र में अद्भुत सिद्धि प्राप्त थे। बडे़-बडे़ लोग उनके यहां जाते थे। इन्तजार करने लगा वहां रात्रि होने का। सोचा कि आज मेरा काम अवश्य हो जायेगा। वहां भी रात भर जागना ही पड़ा। कोई सोया नहीं था। प्रातः काल भैरव बाबा के नजदीक की झोपड़ी की फूंस उठाकर देखा तो देखता ही रह गया। आंखें पथरा गईं। पैर जम गया। शरीर सुन्न हो गया। कुछ समय बाद होश आया तो वह भागा। पीछे से किसी ने त्रिशूल से वार किया। गर्दन में लग गया किसी तरह वापस घर आया। पत्नी को बताया कि- बाबा भी चोर है। चरित्रहीन है। पुत्रदान के नाम पर सुरा-सुन्दरी का ढोंग चल रहा है। मांस-मदिरा तो उनका प्रधान आहार है। आज उस लड़की से कह रहे थे कि जाओ किसी से मत कहना। तुम्हें पुत्र होगा। पचास हजार रुपये अमुक यज्ञ में पहुंचा देना। अन्यथा इसका अंजाम बुरा होगा। इतने में उसके एक शिष्य की नजर मुझ पर पड़ गई। भेद खुलने के डर से उसने मेरा पीछा किया। फिर त्रिशूल से वार कर दिया। अब मुझे मर जाने दो, यह सब देखने से अच्छा तो मर जाना ही है। इतना कहकर सेंधिये ने अपना शरीर छोड़ दिया।
संन्यास जब श्रम छोड़ देता है तो यही होता है। संन्यास ही वह गंगोत्री है, जिसका जल समुद्र तक जाता है। जब गंगोत्री ही अशुद्ध जल देगी तो बीच में यह शुद्ध कैसे हो सकता है। समाज का प्रहरी है संन्यासी। चौकन्न प्रहरी। कहीं कोई प्रवेश न कर जाए। दस दरवाजे हैं राजमहल के। किसी दरवाजे से काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह रूपी चोर कभी भी प्रवेश कर सकता है। यदि संन्यासी क्षण भर सोया, विचलित हुआ कि चोर पहुंच गया अन्दर। वह तो इसी इन्तजार में है पूरी तन्मयता के साथ। सारा खजाना लुट जायेगा। जीवन बर्बाद हो जायेगा। सतत् जागरूकता का नाम ही है संन्यास।
मनुष्य के विकास का एक लम्बा इतिहास है। प्रकृति प्रदत्त पूरी सृष्टि ही सदैव सश्रम है। इसका एक कण भी क्षण भर विश्राम नहीं करता। अगर प्रकृति एक पल भी विश्राम करने लग जाये तो सब कुछ तहस-नहस हो जायेगा। सृष्टि ही मिट जायेगी। सूर्य सतत चलता रहता है। पृथ्वी भी अनवरत चलायमान है। चन्द्रमा भी चलायमान है। नक्षत्र एवं तारे भी चलायमान हैं। पेड़-पौधे सदैव अपने कार्य में लगे रहते हैं। नदियां अपनी अबाध गति से निरन्तर बहती रहती हैं। यही उनके जीवन की सुन्दरता है। यही उनके जीवन का रहस्य है। मानव का प्रत्येक अंग उसकी निद्रावस्था में भी कार्य करता रहता है। कोई अंग विश्राम नहीं करता। मस्तिष्क, हृदय, फेफडे़, श्वास आदि सब निर्बाध गति से चलते रहते हैं। एक क्षण के लिए भी यदि कोई अंग काम करना बंद कर दे तो जीवनलीला समाप्त हो जायेगी। श्वास से ही रक्त संचार, दिल की धड़कन, फेफडे़ का कार्य आदि सब कुछ चलता है। विश्राम तो मात्र बाह्य भाग ही करता है। अचेतन तथा अतिचेतन दक्षता पूर्वक चैबीसों घंटे अपना कार्य करते रहते हैं। अतः मानव का हर क्षण कर्म में रहना ही पूजा है। आदर्श कर्म ही श्रेष्ठ ईश्वर ध्यान है। व्यक्ति सदैव जीविकोपार्जन में ईमानदार रहे, व्यय में समझदार रहे और लोक कल्याण के प्रति सजग रहे, यही उत्तम कर्म है।
दैनिक कार्य पवित्र रहे। कर्म के साथ-साथ उपासना चलती रहे। जिससे जीवात्मा पर लिपटे कषाय, कल्मषों को धोने का अवसर मिलता रहे, यही उचित योगाभ्यास है। उद्यम में व्यस्तता मनुष्य को प्रगति के शिखर पर पहुंचा देती है। खाली दिमाग व खाली समय ही शैतान का घर है, भ्रष्टाचार का अड्डा है। जो कार्य मिले उसे पूरे मनोयोग से पूरा करना ही श्रेष्ठता है। अधूरे मन से या बिना मन से बेगार की तरह किये कार्य का कोई महत्व नहीं। एकाग्र मन से किया गया कार्य ही योग है। भगवान कृष्ण ने गीता में इसे कर्मयोग कहा है। परिणाम से कोई वास्ता नहीं। मनुष्य शुभ कर्म का परिणाम शुभ ही चाहता है, परन्तु परिस्थितिवश यह विपरीत हो जाता है। इससे वह दुःखी हो जाता है, जिससे उसे शोक व क्लेश ही हाथ लगता है। सुख-दुःख का अभाव ही निष्काम योग है। अनासक्ति भाव व सुन्दर ढंग से कार्य करना ही योग है।
‘योगः कर्मसु कौशलम्।’ दक्षतापूर्वक किया गया कार्य ही कुशल कार्य का परिचायक होता है। आश्रम में बच्चे पढ़ते थे दिन भर गाय चराते थे। लकड़ी तोड़कर लाते थे। इसी कृत कार्य में पढ़ाई भी हो जाती थी। उनके इन कार्यों से गुरुजन विद्यार्थी की प्रतिभा का आकलन एवं विकास करते रहते थे। जैसे जो विद्यार्थी लकड़ियां सावधानी पूर्वक तोड़ते, श्रद्धा से गाय चराते, सेवा करते, वे प्रथम वर्ग के विद्यार्थी होते थे। वे जो लकड़ी तो तोड़ते थे, किन्तु लापरवाही से पेड़ से गिरकर हाथ-पैर तोड़ लेते थे, गाय चराते थे, किन्तु बिना मन के; कार्य करना है- यह समझकर गाय चराते थे, कभी गाय की पिटाई करते थे तो कभी बछडे़ की, वे मध्यम वर्ग के विद्यार्थी होते थे। ऐसे जो गाय भी नहीं चराते, न लकड़ी लाते, न सेवा करते, कहीं न कहीं उल्टी-सीधी बातें करते, अपनी गायें दूसरों की गायों की भीड़ में डाल देते, गपशप कर दिन बिता देते, तीसरे दर्जे के छात्र होते थे। जो सिर्फ भीड़ बढ़ाते हैं। दूसरों को भी खराब करते हैं।
प्रथम श्रेणी के वे छात्र जो फलाकांक्षा रहित होकर कर्म करते हैं निष्काम योगी हैं। द्वितीय वे जो बिना मन के कार्य करते हैं संसारी जीव हैं। तीसरा है वह जो बिना श्रम के चतुरता, छल-कपट से काम करता है वही है भोगवादी साधु-संन्यासी। आजकल इसी तीसरे किस्म के लोगों की भरमार है। पाखण्ड करके बड़ा मठ बनाना, प्रतिष्ठा अर्जित करना, धन कमाना, यही नियति बन गयी है, आजकल के साधु-संतों की। समाज को इन पाखण्डियों ने घेर रखा है। जिससे सच्चा योग लुप्त हो रहा है। झूठी आंधी उड़ा रखी है जिससे साधारण लोगों की आंखें बन्द हो गयी हैं।
सच्चे योग को कर्म रूप में प्रतिष्ठित करने का समय आ गया है। साधारण लोगों के मन-मस्तिष्क में डूबी असंगतियों, मान्यताओं को बाहर निकालना होगा। कर्मयोग ही उत्तम स्वास्थ्य, एकाग्र मन तथा भगवत प्राप्ति का सहज स्वाभाविक माध्यम बन सकता है। यह सहज, सर्वसुलभ एवं सार्वजनिक है। पूरे मनोयोग से किया गया कर्म व्यक्ति के अन्दर से अज्ञात लोभ, मोह, तृष्णा तथा अहंकार को निकालने में सक्षम हो सकता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव-गुर्दे, फेफडे़, लिवर आदि सभी कुछ भी तो हमेशा ही बिना किसी इच्छा के अपने कार्य में निरन्तर लगे रहते हैं।
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ बिना फलाफल की इच्छा से कर्म करना ही कृष्ण का कर्म योग है।
(समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति कह कबीर कुछ उद्यम कीजै से उद्धृत ..)
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‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
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