दहशत
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दहशत
दहशत में है ज़िन्दगी,
जुबां भी हैं दबी-दबी,
किससे कहे, कैसे कहे,
मास्क के पीछे अपने भी है अब अजनबी।
ये दुनिया क्या से क्या हो गया,
एक “वायरस” से,
सब कुछ बदल गया,
कब खुली हवा में सांस लेंगे हम ?
खिड़कियों से जब झांकती हूँ मैं,
सड़को पे सन्नाटे पसरे हे,
हर वक्त यही पे है ठहरा,
हर ज़ख्म अभी भी गहरे है,
अभी हर गली -मोहल्ले हैं सुनसान,
उस मैदान में भी है सन्नाटा पसरा,
जिनमें बच्चों के मेले लगते थे।
पर है मुझे उम्मीद,
ये दिन भी बीत जाएंगे,
हर रात की होती है एक सुबह,
वह सुबह जरुर आएगी,
फिर खिल उठेंगे सबके चेहरे,
होगी पहले जैसी ज़िंदगी अपनी,
ये दुनिया फिर से लहलहायेगी,
फिर आएगा एक नया आयाम ।।
रचयिता- नम्रता गुप्ता
Beautifully written 👍
Wah Di.. Badhiya
Thanks sagar
Thanks dear
Very nice Sony di