भक्त और भगवान
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‘समय के सदगुरु ’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत..
भक्त और भगवान
एक भक्त पिता अपनी लड़की की पुकार पर भात भरने उसके ससुराल जा रहा था। साथ में थी अंधे-लंगड़ों की भजन मंडली। यात्रा कर रहे थे एक टूटी हुई बैलगाड़ी से। सभी भगवान के भजन में मस्त थे। लम्बी दूरी की यात्रा थी। अंधेरा हो गया। घोर जंगल में बैलगाड़ी की धुरी टूट गई। बैल भी बूढ़े थे। साथी भी वैसे ही थे। भक्त किसे पुकारेंगे। उनके लिए इस दुनिया में या उस दुनिया में और कोई नहीं होता। उनका सारा सम्बन्ध परमात्मा से ही होता है। हर तरह का सम्बन्ध उसी से करता है। अतएव दुःख कठिनाई की स्थिति में भी उसी को पुकारता है। उस भक्त ने भी अपने प्रभु को पुकारा।
एक लोहार आया और गाड़ी झटपट बना गया। भक्त जी गाड़ी हांकने लगे। बूढ़े बैल चलने का नाम नहीं लेते थे। कुछ ही दूर जाने पर एक व्यक्ति भक्तों की अनुनय-विनय कर गाड़ी पर सवार हो जाता है। बैलों की बागडोर स्वयं संभालता है। गाड़ी चल पड़ती है। मानों गाड़ी में पंख लग गए। समयानुसार गाड़ी मुकाम पर पहुँच गई। गाड़ीवान नमस्ते कहकर अंतर्ध्यान हो गया। भक्त ने ध्यान में देखा ये तो हमारे परमप्रभु-भगवान कृष्ण थे। जिन्होंने कभी लोहार बनकर गाड़ी बनाई। तो कभी सारथी बनकर गाड़ी हांकी। कभी लड़की का भाई बनकर पूरे गाँव को उपहार देकर भक्त ‘नरसी मेहता’ एवं उनकी लड़की की इज्जत रखी। विभिन्न रूपों में वह अपने भक्त की सेवा करता है।
परमात्मा अपने भक्त की सेवा करता है- यह कोरी कहानी ही नहीं बल्कि अक्षरशः सत्य घटना है। परमात्मा हर समय हर क्षण अपने भक्त की रक्षा माँ-पिता, सखा-सखी, प्रेमी-प्रेमिका के रूप में करता है। आप जैसा चाहें उससे सम्बन्ध बना लें। यह आपके ऊपर निर्भर है। वह हर रूप में हर क्षण आपकी तरफ मुखातिब हो रहा है। देर उसकी तरफ से नहीं बल्कि हमारी तरफ से है।
हम घर-परिवार, पुत्र-पुत्री, भाई-बंधु पर सहर्ष विश्वास कर लेते हैं, जिनसे प्रत्येक को धोखा मिलता है। वे सभी माया के रज्जु से बुरी तरह आबद्ध हैं। फिर भी उसी के चक्कर में फँसे रहते हैं। पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी में प्रतिदिन मार-पीट, कलह होती है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप होते रहते हैं। फिर भी उस तरफ से मुँह मोड़कर भगवान की शरण में नहीं जाना चाहते। बल्कि भगवान के मंदिर में जाते भी हैं तो मंदिर के प्रांगण का ही पुष्प पत्र तोड़कर भगवान को झूठा प्रेम दिखाते हैं। रटा-रटाया मंत्र दुहराते हैं। उससे याचना करते हैं अपने पुत्र की नौकरी की, पुत्री की शादी की। अपनी तरक्की की | विभिन्न प्रकार की याचनाएँ होती हैं। हम दांव पर अपना तन, मन, धन तीनों में से किसी को नहीं लगाते।
फिर मांगने चले जाते हैं- उसके द्वार पर। हमारी स्थिति निर्लज्ज भिखमंगों से भी बदतर है। जिसके लिए पूरे जीवन का तन-मन-धन दाँव पर लगाया। वहाँ से तो अपमान मिला, अवसाद मिला। फिर भी हमारा मोह भंग नहीं होता है।
मोह-लोभ की वासना ही मनुष्य को जन्मों-जन्मों तक अधोगति में ला पटकती है। आखिर यह मृगतृष्णा किसलिए? क्यों?
एक तो अनजाने में होता है। जिसे छोड़ा जा सकता है। परन्तु यह भूल तो जानी-पहचानी हुई है। पूर्व परिचित है। जिसे हम छोड़ना नहीं चाहते। बल्कि ऐसे सम्बन्ध बना लिया है जैसे कोढ़ी के कोढ़ एवं खाज में सम्बन्ध है। कीड़े एवं गंदगी का नाली से सम्बन्ध है। कुत्ते का हड्डी से सम्बन्ध है। हम बिन बुलाए मेहमान की तरह हैं।
कुत्ते का प्रसंग –
एक कुत्ता मेरे आश्रम में आया। मैंने देखा उसका पैर टूट गया है। वह दर्द से छटपटा रहा था। मुझे दया आई उसका इलाज किया। कुछ ही दिनों में ठीक हो गया। उसके खाने एवं रहने की उचित व्यवस्था की गई। वह साधु की तरह रहने लगा। परन्तु कुछ ही दिनों के बाद वह किसी कुतिया के चक्कर में भाग गया। बहुत दिनों तक दर्शन नहीं दिया। लगभग 6 माह के बाद पुनः दिल्ली आश्रम में आया। मैं टहल रहा था। उसने प्रणाम किया। उसकी कमर बुरी तरह क्षतिग्रस्त थी। कराह रहा था। किसी तरह आगे वाला पैर बढ़ाता- पीछे का पैर घसीट कर चलता। उसकी स्थिति अत्यन्त नाजुक थी।
मैंने उससे पूछा- तुम कहाँ भाग जाते हो? अपनी स्थिति खराब कर लेते हो! वह रोते हुए बोला-अब ऐसी गलती कभी नहीं करूंगा। इस बार हमारी रक्षा कर दें। मैं हर समय प्रभु भजन स्मरण में ही रहूँगा। मैंने पूछा कमर कैसे तोड़ी? वह बोला, मैं एक कुतिया के पीछे भाग रहा था, अचानक उसके अन्य मित्रगणों ने मुझे घेर लिया। मुझ पर एक साथ आक्रमण कर जगह-जगह काट खाया। किसी तरह उनसे जान बचाकर भागा तो रोड पर एक जीप ने धक्का मार दिया। बीच रोड़ पर गिरकर छट-पटाता रहा। पूछा किसी ने नहीं, न ही किसी ने मेरी तरफ देखा। घंटों पड़ा रहा। होश आने पर उठा। अब कहाँ जाऊँ? कौन रखेगा मुझे? स्वस्थ-सुन्दर-सबल-स्वामिभक्त कुत्ते को कोई रख भी लेता है। रोगी कुत्ते को तो कोई देखना तक पसन्द नहीं करता। मैं जिधर से निकलता उधर के लोग नाक-भौं सिकोड़ते तथा दूर-दूर कहकर खदेड़ते, मेरे भाई-बांधवगण मुझे काटने के लिए दौड़ते। यही है मेरी आत्म कहानी। आप इस बार मेरी रक्षा कीजिए प्रभु। आपके सिवाए इस विराट दुनिया में मेरी रक्षा कोई नहीं कर सकता।
मैंने करुणावश उसका उपचार शुरु कर दिया। महीने भर में वह पूर्ण स्वस्थ हो गया। इसके बाद लगभग दस-पंद्रह दिन आश्रम में दिखाई पड़ा। फिर पता नहीं कब और कहाँ कुतिया के चक्कर में भाग गया? यही स्थिति है हम सभी की। जब हम पर कष्ट आता है, दुःख का पहाड़ टूटता है तब गुरु-द्वारे पहुँचते हैं। जैसे ही कष्ट का समय समाप्त होता है तब हम वासना के द्वार पर पहुँच जाते हैं। यही वासना हमें बार-बार अधोगति में ला पटकती है। फिर भी उससे हम मुँह नहीं मोड़ते।
अपने पुरुषार्थ का अहंकार –
परम प्रिय प्रभु हमें हर समय एक तरफा प्रेम देते हैं। हमारी सुख-सुविधा का ख्याल करते हैं। फिर भी हम उन्हें भूलकर अपने ऊपर ही विश्वास करते हैं। अपने ही पुरुषार्थ पर विश्वास करते हैं। अपनी ही प्रतिभा की बड़ाई करते हैं।
पुरुषार्थी होना श्रेष्ठतम है। अपने पर विश्वास करना भी उचित है। परन्तु परमात्मा के विस्मरण की कीमत पर नहीं। हर समय हर क्षण उसकी स्मृति बनी रहे और आप कर्म में तल्लीन रहें- तब उसमें जो फूल लगेगा- वह होगा- संतोष का। फल लगेगा -श्रद्धा का। बीज बनेगा- समर्पण का। मैं जनवरी 2001 में इलाहाबाद के पूर्ण कुम्भ में गया था। वहाँ कुछ दिन निवास किया। अपने शिष्यों की क्लास ली। सद्विप्र समाज सेवा पर विशेष रूप से प्रशिक्षण दिया। कुछ लोगों को संन्यास की दीक्षा दी। उन्हें कर्तव्य बोध का ज्ञान कराया। उनका रहना या भाग जाना उनके स्वभाव पर निर्भर करता है। ममता रूपी कुत्ता सब में छिपा है। उसका वर्चस्व होना ही वासना में भागना है। ज्ञान रूपी राम भी सभी में छिपा है। उसका वर्चस्व होना ही सद्विप्र का भार उठाकर जंगल में आरुढ़ हो जाना है। अत्याचार, व्याभिचार, भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध करना है।
लक्ष्मी का अनुग्रह –
मैंने दिनांक 2 फरवरी को प्रातःकाल ही अकौरी, सिद्धाश्रम के लिए प्रस्थान किया। साथ में थे-‘स्वामी मैत्रेय’ जो वहाँ के प्रमुख हैं तथा कुछ नए संन्यासी भी थे। हम लोग दोपहर लगभग दो बजे आश्रम पर पहुँचे। जहाँ झोंपड़ी में रहने सम्बन्धी अन्य सुविधाएं की गई थीं। कुछ दिन रुक कर वहाँ पूजा-पाठ, ध्यान-धारणा के साथ-साथ दोनों समय हवन का विधान शुरु किया गया। नए संन्यासियों को विभिन्न प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया |
स्वामी मैत्रेय जी से मैंने पूछा कि आश्रम का निर्माण कार्य क्यों रुका है? उन्होंने आर्थिक असमर्थता बताई। मैंने उनसे कहा कि संन्यासी का कोई काम अर्थ (धन) के कारण नहीं रुकता है। लक्ष्मी तो संन्यासी की दासी की तरह सेवा करती है। संत कबीर भी कहते हैं- ‘साकट के घर कर्ता-धर्ता, भक्तों के घर चेरी ||’ संसारी के लिए लक्ष्मी ही मालकिन होती है। उन्हीं की इच्छा पर संसारी को कार्य करना पड़ता है। जबकि भक्त को जहाँ जरूरत होती है लक्ष्मी स्वयं उस कार्य को सम्पन्न कर अपने को गौरवान्वित समझती हैं।
मैंने दिल्ली से चलते समय कोई खास रुपए नहीं लिए थे। हाँ कुछ सेवकों के द्वारा दो-तीन हजार रुपए बैग में रख दिए गए। उसी के साथ कुम्भ मेले में पहुँचा। वहाँ प्रतिदिन का खर्च जैसे साग-सब्जी, खाने-पीने, चाय-मिठाई के साथ साधु-महात्माओं वेफ स्वागत-विदाई के भी खर्चे थे जो स्वाभाविक रूप से हो ही रहे थे। कुछ सेवकों को गाड़ी भाड़ा भी देना स्वाभाविक ही है।
मैंने डॉ. स्वामी मैत्रेय से कहा कि आप इस बैग से रुपए निकाल लें। अपना कार्य कल से प्रारम्भ कर दें। 30’×40’ का आश्रम की छत का कार्य एवं प्लास्टर का कार्य शीघ्र पूर्ण करें। मैं सोन नदी में स्नान हेतु चला गया। वहाँ से लौटने पर पूछा कि क्या हुआ डॉक्टर साहब? वे मुस्कुराते हुए बोले-अपने काम भर धन निकाल लिया। मेरा कार्य सम्पन्न हो जाएगा। मैंने लक्ष्मी नारायण को धन्यवाद दिया।
हनुमान जी का अनुग्रह –
मैंने दिनांक आठ फरवरी 1998 को आश्रम अकौरी सीधी, म.प्र. से रीवा के लिए प्रस्थान किया। श्री कल्याण सिंह, डॉ. स्वामी मैत्रेय, अरुण इत्यादि लोग अपनी गाड़ी से रीवा ले गए। वहाँ से चार बजे संध्या की बस पकड़ी। हमें बताया गया कि यह साढ़े सात बजे इलाहाबाद पहुँच जाएगी। अरुण को मैंने आदेश दिया कि तुम यहाँ से मिरजापुर की बस पकड़ लो। फिर वहाँ से नारायणपुर पहुँच जाओगे। मेरी गाड़ी प्रयागराज एक्सप्रेस रात्रि नौ बजकर तीस मिनट पर है। वहाँ महात्मा अंगद देव के साथ अन्य शिष्य लोग होंगे। मैं पहुँच जाऊँगा।
मेरी बस ठीक चार बजे चल दी। मैं बस की ग्यारह नम्बर सीट पर बैठा था। हमारे बगल में एक शिक्षक बैठे थे। जिनसे परिचय होने पर पूछा कि यह बस कब इलाहाबाद पहुँचेगी। मास्टर जी बोले कोई ठीक नहीं है। सुबह तक पहुँच जाए तो ठीक ही समझें। उधर से तो बसें आ जाती हैं। इधर से जाने में जाम में फंस जाती हैं। चूंकि पहाड़ की चढ़ाई पर रोड निर्माण का कार्य हो रहा है। इससे बसें फंस जाती हैं। हमारे बड़े भाई दो दिन पहले गए थे इसी बस से। वे सुबह सात बजे पहुँचे हैं। मैं यह सुनकर दंग रह गया।
अब कितनी सावधानी बरती जाए। मैंने कंडक्टर को बुलाकर पूछा- अरे भाई हमें प्रयागराज एक्सप्रेस गाड़ी पकड़नी है। तुम कब तक पहुँचा दोगे। वह बोला यदि जाम में नहीं पड़ेंगे तब आठ बजे के पहले पहुँचा देंगे। जाम में फंसने पर सुबह भी हो सकती है। मैंने कंडक्टर एवं सभी यात्रियों के सामने कहा कि चलो जाम में नहीं फंसोगे। हनुमान जी तुम्हारी बस को रास्ता देंगे।
सचमुच रोड जाम के बावजूद इसे रास्ता मिलता गया। परन्तु सरकारी बस एवं सरकारी सेवक तो अपनी सेवा लेने के लिए होते हैं। इन्हें अन्यों की सुविधा से कोई मतलब नहीं होता। जब इलाहाबाद से मात्र चालीस किलोमीटर की दूरी पर पहुँचे तो वहीं रोककर ड्राईवर-कंडक्टर भोजन करने चले गए। सात बजे बस रोकी थी, आठ बज गए। मैंने कंडक्टर से निवेदन किया बंधु मेरी गाड़ी छूट जाएगी। कितनी देर बस रोकोगे। वह आश्वासन देने लगा जैसे आम सरकारी सेवक आश्वासन देते हैं। जैसे यहाँ नेता आश्वासन पर ही शासन करते हैं। आपको हम गाड़ी पकड़वा देंगे। आप चिन्ता न करें।
चार-पांच किलोमीटर के बाद ही मध्य प्रदेश के चेक पोस्ट पर गाड़ी रुक गई। यहाँ आधा घंटा बस रुकी। मैं निवेदन करता रहा। बस कंडक्टर आश्वासन देता रहा। बीस किलोमीटर पर चेकिंग होने लगी। पुनः बस चली अब इलाहाबाद पंद्रह किलोमीटर बाकी था।
आज अन्तिम स्नान पूर्णिमा का था। मेले के एक करोड़ चालीस लाख लोगों की भीड़ नजर आने लगी। साथ ही पुलिसिया रोब भी दिखाई पड़ने लगा। गाड़ी कहीं भी रोकी जाने लगी। अब नौ बजकर बीस मिनट हो गए। बस के यात्री हम पर हँसने लगे। बाबा को गाड़ी पकड़वा दी। मैं निराश होकर बस से उतर गया। कंडक्टर हत्यारे की तरह चुप बैठ गया। जैसे वह हत्या करके मौन हो गया हो।
मैंने एक पुलिस अधिकारी से मदद मांगी कि हमे ऑटो रिक्शा या कुछ भी पकड़ा दो। हमें रेलवे स्टेशन से प्रयागराज गाड़ी पकड़नी है। वह हँसते हुए बोला- यहाँ सभी को गाड़ी ही पकड़नी है। कोई साधन नहीं मिलेगा। मात्र दस किलोमीटर है स्टेशन, यह पुल पार कर सीधे पैदल चले जाओ। हमारे पास एक बैग, आसनी, कमण्डल था। हम दस किलोमीटर तो अपने जीवन में कभी गाड़ी पकड़ने के लिए चले ही नहीं थे। वह भी रात्रि में जबकि ट्रेन छूट रही हो। मैं लगभग तीन किलोमीटर दौड़ा, साथ ही रास्ते के सिपाही, टैम्पो, रिक्शा वाले से निवेदन भी करता रहा। हमें स्टेशन पहुँचा दो। जो माँगो वही दूँगा। परन्तु किसी ने ध्यान नहीं दिया।
मैं बुरी तरह थक गया। मेरी धोती खुल गई। आसनी कहीं गिर गई। पुल के ऊपर खड़ा था। एकाएक हमें याद आया- विश्वमित्र गायत्री छंद पैदा कर सकते हैं। दूसरी सृष्टि कर सकते हैं। देव और दानव संस्कृति दोनों पर एक साथ भारी पड़ सकते हैं। तो क्या हमें बिना लिए गाड़ी चली जाएगी। ऐसा नहीं हो सकता। अप-डाउन दोनों तरफ की गाड़ियाँ रुकी रहेंगी। मुझे लेकर ही जाना पड़ेगा। मैं चलकर भी नहीं जाऊँगा। चुपचाप पुल के ऊपर खड़ा हो गया।
कुछ देर में एक बंदर जैसा मुँह वाला व्यक्ति रिक्शा लेकर आया। मेरे सामने खड़ा हो गया। हमारी तरफ घूर-घूर कर देखने लगा। मैं उपेक्षा से कुछ भी नहीं बोला क्योंकि निवेदन करते-करते थक गया था। रिक्शा वाला ही बोला, क्यों स्वामी जी आपको स्टेशन जाना है। मैंने स्वीकार में सिर हिला दिया अत्यन्त थकान के चलते बोलने की भी हिम्मत खत्म हो गई थी। उसने हमारा बैग लेकर रिक्शे पर रख लिया। तब हमने पूछा भाड़ा क्या लोगे? जो इच्छा हो दे देना स्वामी जी। मैंने जोर दिया, नहीं यार पहले भाड़ा बता दो। वह बोला-चालीस रुपए। मैं चुपचाप रिक्शे पर बैठ गया। मुझे ध्यान आया कि अरुण भी मिरजापुर पहुँच रहा है। यदि उसकी भी बस छूट गई तब रात्रि उसे भी रोड़ पर बितानी पड़ेगी। माँ-बाप का इकलौता पुत्र है। वह तो हमें अपने माँ-बाप से भी ज्यादा प्यार करता है। शायद अभी हमें ही सर्वाधिक प्यार करता है। आदर देता है। सम्मान देता है। सेवा करता है। अतएव उसे लिए बिना बस नहीं जानी चाहिए।
हनुमान जी द्वारा रिक्शा चलाना –
मेरा रिक्शा चल रहा था। एकाएक ध्यान उस पर आया। उसकी तेज रफ्तार तो कार, जीप, स्कूटर को पीछे छोड़ रही थी। चूंकि मेले की भीड़-भाड़ का रास्ता था। सिपाही पुलिस को देखकर और अकड़ कर चलता किसी के रोकने पर भी नहीं रुकता। उल्टे उसका मुँह देखकर सभी हँस देते। मुझे दस बजे रेलवे स्टेशन इलाहाबाद छोड़ा जबकि अन्य रिक्शे बाहर ही रोक दिए गए थे। मेरा ध्यान पैसे की तरफ आया। हमारे पास पैसे भी नहीं होंगे | अपनी पॉकेट में हाथ डाला, पचास-पचास रुपए के दो नोट थे। उसमें से एक उसे दिया। वह बोला स्वामी जी आप इसे रखें। आप गाड़ी पकड़िए। मैंने उसे कहा तुम अपना भाड़ा लो भाई। उसने रुपए ग्रहण किए। पुनः हमें एक नोट पकड़ा दिया। मैंने सोचा कि दस रुपए वापस किए होंगे। पॉकेट में रखकर स्टेशन पर चल दिया।
स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी –इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से बाहर ही था कि उद्घोष सुनाई दिया। प्रयाग राज एक्सप्रेस प्लेट फार्म नम्बर एक पर लगी है। मैंने घड़ी देखी दस बज रहे हैं। स्टेशन पर आया, पैर रखने की जगह नहीं थी। मैंने एक सिपाही जी से पूछा- भाई कोच नम्बर 5 में मेरा रिजर्वेशन है, वह किधर है। उसने बोझ की तरह उत्तर दिया, किसी में चढ़ जाओ। कोच मत पूछो। मेरे जोर देने पर दूसरे सिपाही ने पीछे की तरफ इशारा किया। मैं थका-मांदा किसी तरह भीड़ में पीछे चल दिया। उधर आठ, नौ, दस, ग्यारह कोच मिलने लगे। रेलवे का कोई अधिकारी ठीक उत्तर तक नहीं देता। सभी बेगारी कर रहे थे। मैं थक कर आगे चल दिया। गाड़ी ने सीटी दी और चल दी। मेरे मुँह से निकला वाह तुम चल दी। पुनः गाड़ी रुक गई।
मैं आगे चला। किसी तरह पाँच नम्बर कोच का दर्शन हुआ, उसमें हमें ही लोग नहीं चढ़ने दे रहे थे। जैसे आम बाबा बिना टिकट के चलते हैं, वही सोचकर हमें चढ़ने नहीं देना चाहते थे। इसी बीच महात्मा अंगद देव ने पुकारा- गुरुदेव आप आ गए। मैंने स्वीकार में सिर हिलाया। वे बाहर आकर हमारा सामान लेकर अन्दर गए। मैं भी उनके साथ अन्दर गया। हमारी बर्थ पर एक सज्जन अपने पुत्र के साथ बैठे थे। खिड़की के पास एक पुलिस इंस्पेक्टर उनके स्वागत में खड़े थे। मैंने उनसे पूछा भाई साहब यह मेरा बर्थ है। उन्होंने ऐंठकर उत्तर दिया ठीक है। हमें भी दिल्ली जाना है। रिजर्वेशन नहीं मिला तो क्या नहीं जाऊँ? अंगद देव शरीर से अंगद हैं। फिर भी उससे दबे हुए था, या संकोच में था। वे अंग्रेजी में अपना परिचय दिए मैं सुप्रीम कोर्ट में वकील हूँ। मैंने अंग्रेजी में ही कठोर शब्दों में प्रत्युत्तर दिया। क्या वकील हो तो दूसरे की बर्थ अधिग्रहण कर लोगे? ये इंस्पेक्टर हैं तो क्या नाजायज करने की ही शपथ ली है? जो बोनाफाइड पैसेन्जर है उसे ट्रेन में नहीं चढ़ने देने की कसम खा ली है। और न्याय दिलाने वाले वकील हो या न्याय का गला घोंटने वाले। वे अंग्रेजी में मेरा तर्क सुनकर झेंप गए। एक तरफ खिसक गए। अब नम्र भाषा में बोले- महाराज जी आप बैठें। मैं नीचे बैठकर चलूंगा। तब मैंने कहा- ठीक, अब आप बैठें ट्रेन चलने पर नीचे बिस्तर लगा लें।
अंगद देव से पानी मांगा। चूंकि बुरी तरह से थक गया था। आधा गिलास पानी पीने में आधा घंटा लगा। तब एनाउन्समेंट सुनाई दिया अप-डाउन की सारी ट्रेन विभिन्न प्लेट फार्मों पर खड़ी हैं। मैंने अंगद देव से कहा कि क्यों जी! तुम भी ट्रेन के अंदर छुप कर बैठ गए थे? क्या समझते हो ट्रेन बिना मुझे लिए चली जाएगी? वे चुप खड़े थे। क्या ट्रेन चला दूं? वे बोले- हाँ गुरुदेव गाड़ी एक घंटे से ज्यादा लेट हो गई है। इसे खोल दीजिए | मैंने आदेशात्मक स्वर में कहा अब खुल जाओ। फिर क्या था? मेरे कहते ही ट्रेन खुल गई। बिना विलम्ब किए, बिना सीटी दिए चल पड़ी। अंगद देव आश्चर्य से आंखें फाड़कर देखने लगे। फिर पैर छूकर प्रणाम किया। क्या तुम लोग सदैव मेरी ही परीक्षा लेते हो? कभी अपनी भी तो परीक्षा दो यार? अब मेरा बिस्तर लगा दो। मैं विश्राम करूंगा।
मैं विश्राम करने चला गया। कम्बल मांगा तब वे मौन खड़े रहे। फिर कुछ देर के बाद बोले, गुरुदेव कम्बल तो किसी ने निकाल लिया। चलो ठीक ही हुआ। मैं तो तुमसे बोला था कि कम्बल सुन्दर एवं कीमती है। इसे कोई ले सकता है। तुम इसे संभाल कर रखना। चलो साधु को सुन्दर सामान नहीं रखना चाहिए। तुम भी विश्राम करो।
गाड़ी दिल्ली सुबह नौ बजे पहुँची। रेलवे स्टेशन पर कमल जैन पति-पत्नी फल माला लेकर स्वागत में खड़े थे। हम लोग आगे बढ़े। वी.आई.पी. उसी गाड़ी से उतरे। अपनी-अपनी गाड़ी में बैठ गए। जैन साहब के घर गया। वहाँ स्नान करने हेतु गंदे कपड़े बदले। पॉकेट से रुपए निकाले तो देखते हैं- वहाँ पचास-पचास के दोनों नोट मौजूद हैं।
मुझे एकाएक ध्यान आया अरे भाई ये तो हनुमान जी थे। जो हमें रिक्शा चालक बनकर स्टेशन पर लाए एवं पचास रुपए भी वापस कर गए। वहीं नारायणपुर से अरुण का फोन आया- बोला ‘गुरुदेव रास्ते में मेरी बस बिगड़ गई थी। किसी तरह वह मिरजापुर रात्रि में नौ बजे पहुँची। वहाँ से नारायणपुर के लिए मिलने वाली मेरी जो अन्तिम बस है, आठ बजे ही खुल जाती है। वह पैसेन्जर लेकर रोड़ पर खड़ी थी। मैं आपका ध्यान कर दौड़ते हुए बस में चढ़ा, बस खुल गई। मैं रात्रि में बारह बजे अपने घर पहुँच गया। आपको मेरा बार-बार प्रणाम स्वीकार हो |’
परमपिता परमात्मा पर विश्वास करें। उनका ध्यान करें। हर हालत में हर परिस्थिति में, आपके इच्छित रूप में वे मदद करते हैं।
मैंने ध्यान किया सारा दृश्य मेरे सामने प्रकट हो गया। अब मैं हनुमान जी को कैसे धन्यवाद दूं। यह प्रश्न मेरे सामने खड़ा हो गया। रात्रि में दर्शन हुआ, मुझे धन्यवाद देने की जरूरत नहीं है। मैं सद्विप्र हूँ। सद्विप्र की सेवा करना ही हमारा परम कर्तव्य है। आप आज के सद्विप्रों का मार्ग दर्शन करें। मैं हर समय आपके साथ हूँ। श्रद्धा से मेरा मस्तक झुक गया।
|| हरि ॐ ||
‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –